ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 51/ मन्त्र 9
तव॑ प्रया॒जा अ॑नुया॒जाश्च॒ केव॑ल॒ ऊर्ज॑स्वन्तो ह॒विष॑: सन्तु भा॒गाः । तवा॑ग्ने य॒ज्ञो॒३॒॑ऽयम॑स्तु॒ सर्व॒स्तुभ्यं॑ नमन्तां प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । प्र॒ऽया॒जाः । अ॒नु॒ऽया॒जाः । च॒ । केव॑ले । ऊर्ज॑स्वन्तः । ह॒विषः॑ । स॒न्तु॒ । भा॒गाः । तव॑ । अ॒ग्ने॒ । य॒ज्ञः । अ॒यम् । अ॒स्तु॒ । सर्वः॑ । तुभ्य॑म् । न॒म॒न्ता॒म् । प्र॒ऽदिशः॑ । चत॑स्रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविष: सन्तु भागाः । तवाग्ने यज्ञो३ऽयमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रः ॥
स्वर रहित पद पाठतव । प्रऽयाजाः । अनुऽयाजाः । च । केवले । ऊर्जस्वन्तः । हविषः । सन्तु । भागाः । तव । अग्ने । यज्ञः । अयम् । अस्तु । सर्वः । तुभ्यम् । नमन्ताम् । प्रऽदिशः । चतस्रः ॥ १०.५१.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 51; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अङ्गों के नायक आत्मन् ! (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः-केवले) तेरे प्रकृष्ट भोक्तव्य अन्नादि पदार्थ तथा तदनुरूप पेय पदार्थ मोक्षसाधक होवें (हविषः-भागाः-ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्रहण करने योग्य विषय के अनुभव तेजस्वी हों, भोग में न डूबें (तव अयं सर्वः-यज्ञः-अस्तु) यह तेरा शरीरयज्ञ सब कल्याणसाधक हो, तेरे प्रतिकूल न जाये (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चारों दिशाओं में रहनेवाली प्रजाएँ तेरा सत्कार करें। एवं (अग्ने) हे विद्युत् अग्ने ! (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः-केवले) तेरे प्रकृष्टसंगमनीय-धनात्मक तारें तथा अनुकृष्टसंगमनीय ऋणात्मक तारें अपने-अपने बन्धन में अलग-अलग हों (हविषः-भागाः-ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्राह्य वज्र के अंश तेजस्वी हों (अयं सर्वः-यज्ञः-तव अस्तु) यह सारा यन्त्रसमूह तेरा हो, तू इसे चला (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चारों दिशाओं में होनेवाली कलाएँ तेरे आश्रित हों ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य के समस्त खान और पान और विषयभोग संसार में फँसनेवाले न हों, किन्तु सच्चे कल्याण और मोक्ष के साधन बनें। समस्त दिशाओं की प्रजाएँ तेरी प्रतिष्ठा करें, ऐसा अपने को बना। एवं विद्युत् के धनात्मक और ऋणात्मक तार अपने-अपने स्थान बन्धन में अलग-अलग हों, जो सारी यन्त्र की कलाओं को स्वाधीन करके चला सकें ॥९॥
विषय
यज्ञ से प्रयाज और अनुयाज के तुल्य जीवन में अन्न, कर्म-फल आदि एवं उत्तम गुरु-सुहृद आदि की याचना।
भावार्थ
हे (अग्ने) देहान्तर्गत अग्ने ! जीव ! (तव) तेरे (केवले) असाधारण (प्रयाजाः अनुयाजाः) प्रयाज, अनुयाज और (हविषः ऊर्जस्वन्तः भागाः) हवि, अन्न के बलशाली भाग, (सन्तु) हों। (अयं सर्वः यज्ञः तव अस्तु) यह समस्त यज्ञ तेरा ही हो। (तुभ्यं चतस्रः प्रदिशः नमन्ताम्) तेरे आगे चारों दिशाएं झुकें। तुझे आदर से देखें। यज्ञ में अग्नि के प्रयाज अनुयाज और हवि के भागों के समान इस जीव के लिये उत्तम ज्ञानदातागण हैं, वे ‘प्रयाज’ और अनुकूल मित्रवर्ग अनुगामी हैं वे ‘अनुयाज’ और ज्ञानसेवी बलवान्, सहयोगी ‘ऊर्जस्वान्’ पुरुष हों। इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१, ३, ५, ७, ९ देवा ऋषयः। २,४,६, ८ अग्निः सौचीक ऋषिः। देवता—१, ३ ५, ७, ९ अग्निः सौचीकः। २, ४, ६, ८ देवाः॥ छन्दः— १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ७ त्रिष्टुप्। ८, ९ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु के प्रति अर्पण
पदार्थ
[१] देव कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रकाशमय प्रभो! आप से हम हव्य पदार्थों को प्राप्त करेंगे तो हम यह प्रतिज्ञा करते हैं कि (तव) = आपके ही (प्रयाजा:) = प्रयाज होंगे। प्रथम हम आपके निमित्त ही आहुतियाँ देंगे। बचे हुए को ही जीवन के लिये व्ययित करेंगे। और हव्य द्रव्य के बच जाने पर अनुयाजाः च केवले अनुयाज भी मुख्य रूप से आपके ही होंगे। बचे हुए धन को भी हम लोकहित में ही विनियुक्त करते हुए आपको ही दे डालेंगे। (हविषः) = उस हविर्द्रव्य के (ऊर्जस्वन्तः भागाः) = शक्तिशाली उत्कृष्ट भाग (सन्तु) = आपके ही होंगे। हम यज्ञशेष का ही जीवनयात्रा के लिये विनियोग करेंगे। [२] हे (अग्ने) = प्रभो ! (अयं सर्वः यज्ञः तव अस्तु) = यह सारा जीवन ही यज्ञ होकर आपका हो जाए। हम इस पुरुष को परम पुरुष आपके लिये अर्पित कर दें । (चतस्त्र: प्रदिशः) = ये चारों विशाल दिशाएँ (तुभ्यं नमन्ताम्) = आपके लिए नमस्कार करें। सब कोई आपके प्रति नतमस्तक हो और इस प्रकार धन को प्राप्त करके भी धन का दुरुपयोग करनेवाला न हो। यही जीवन का सौन्दर्य है कि हम श्री सम्पन्न हैं पर उस श्री के दास नहीं । यह प्रभु नमन से ही सम्भव है।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन को यज्ञमय बनाकर प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाले बनें। सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि योगमाया से आवृत वे प्रभु सब किसी को दिखते नहीं, [१] प्राणापान की साधना मनुष्य को प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है, [२] संयमी पुरुष ही उसे देख पाता है, [३] ज्ञानियों के लिये प्रभु की महिमा कण-कण में दृष्टिगोचर होती है, [४] वे प्रभु ही हमें जीवन के अन्धकार में प्रकाश को प्राप्त कराते हैं, [५] सामान्यतः मनुष्य भौतिक वस्तुओं की ही आराधना करता है, [६] हमारा कर्त्तव्य है कि धन को प्राप्त करके भी प्रभु को न भूलें, [७] धन का यज्ञों में विनियोग करें यज्ञशेष का ही सेवन करें, [८] जीवन को यज्ञमय बनाकर प्रभु के प्रति अर्पण कर दें, [९] इन यज्ञात्मक जीवनवाले देवों से प्रभु कहते हैं-
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे अङ्गानां नायक ! आत्मन् (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः-केवले) तव प्रयाजाः प्रकृष्टभोक्तव्या अन्नादिपदार्थाः, तथा अनुयाजाः तदनुरूपपेयपदार्थाश्च केवले कैवल्यसाधने भवन्तु (हविषः-भागाः ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्राह्यस्य विषयस्य भजनीया अनुभवास्तेजस्विनः सन्तु, न भोगे मज्जयन्तु (तव-अयं सर्वः यज्ञः-अस्तु) अयं सर्वः शरीरयज्ञस्तव कल्याणसाधको भवतु, न तव प्रतिकूलं गच्छेत् (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चतस्रः चतुष्प्रकाराः प्रमुखदिग्वर्तिन्यः प्रजास्तुभ्यं नमन्तां सत्कुर्वन्तु। तथा (अग्ने) हे विद्युद्रूपाग्ने ! (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः केवले) प्रकृष्टसंगमनीयास्तथाऽनुकृष्टसंगमनीया धनर्णात्मका तन्त्रीपदार्थाः स्वे स्वे केवले बन्धने तव भवन्तु (हविषः-भागाः-ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्राह्यस्य वज्रस्य भजनीया-अंशास्तेजस्विनो भवन्तु (अयं सर्वः-यज्ञः-तवः-अस्तु) अयं सर्वः यन्त्रसमूहस्तव भवतु, एनं त्वं चालय (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चतुष्प्रकाराः प्रमुखदिग्वर्तिन्यः कलाः-तुभ्यं त्वयि ह्याश्रयन्तु ॥९॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Agni, O Soul, yours is the prayaja part of yajnic food, yours is anuyaja, the supplimentary part. Let all this be for experience and for the realisation of your essential spiritual nature. And let your share be full of energy and light for you. Indeed all this yajna of your individual existence is for you, the soul, as the cosmic yajna of existence is for the cosmic soul. Let it not go counter to the soul. Let all four directions of space and all that therein is be for experience and self- realisation. (Let it be subservient to the soul, let not the soul be lost in the experience of it.)
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाचे संपूर्ण खान, पान व विषयभोग जगात लिप्त करणारे नसावेत, तर खरे कल्याण व मोक्षाचे साधन बनावे. संपूर्ण दिशांच्या प्रजेत त्याची प्रतिष्ठा असावी, असे माणसाने स्वत:ला बनवावे. विद्युतचे धनात्मक व ऋणात्मक तार आपापल्या स्थानी वेगवेगळे असावेत. ते संपूर्ण यंत्राच्या कलांना स्वाधीन करून चालवू शकतील. ॥९॥
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