ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 14
ते हि द्यावा॑पृथि॒वी मा॒तरा॑ म॒ही दे॒वी दे॒वाञ्जन्म॑ना य॒ज्ञिये॑ इ॒तः । उ॒भे बि॑भृत उ॒भयं॒ भरी॑मभिः पु॒रू रेतां॑सि पि॒तृभि॑श्च सिञ्चतः ॥
स्वर सहित पद पाठते । हि । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । मा॒तरा॑ । म॒ही । दे॒वी । दे॒वान् । जन्म॑ना । य॒ज्ञिये॒ इति॑ । इ॒तः । उ॒भे इति॑ । बि॒भृ॒तः॒ । उ॒भय॑म् । भरी॑मऽभिः । पु॒रु । रेतां॑सि । पि॒तृऽभिः॑ । च॒ । सि॒ञ्च॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि द्यावापृथिवी मातरा मही देवी देवाञ्जन्मना यज्ञिये इतः । उभे बिभृत उभयं भरीमभिः पुरू रेतांसि पितृभिश्च सिञ्चतः ॥
स्वर रहित पद पाठते । हि । द्यावापृथिवी इति । मातरा । मही । देवी । देवान् । जन्मना । यज्ञिये इति । इतः । उभे इति । बिभृतः । उभयम् । भरीमऽभिः । पुरु । रेतांसि । पितृऽभिः । च । सिञ्चतः ॥ १०.६४.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते द्यावापृथिवी) वे द्युलोक और पृथिवीलोक (मही देवी मातरा हि) महान् दिव्यगुणवाले सबके निर्माण करनेवाले हैं (यज्ञिये जन्मना देवान्-इत्) वे यजनीय-सङ्गमनीय परस्पर सङ्गम की अपेक्षा करनेवाले जन्म देने-उत्पादन करने के कारण सब दिव्य पदार्थों को प्राप्त होते हैं (उभे उभयं बिभ्रतः) वे दोनों स्थावर जङ्गम को भरणपदार्थों से जल अन्न आदियों से धारण करते हैं (पितृभिः-पुरुरेतांसि सिञ्चतः) पितृधर्मों रजवीर्यरूप धर्मों के द्वारा बहुविध रजवीर्यों को सींचते हैं ॥१४॥
भावार्थ
द्युलोक और पृथिवीलोक स्त्री-पुरुष के समान एक दूसरे को अपेक्षित करते हैं। वे दोनों रजवीर्य शक्तियों के द्वारा प्राणिवनस्पतियों को उत्पन्न करते हैं तथा उन्हें धारण करते हैं और पोषण करते हैं ॥१४॥
विषय
सूर्य भूमि के तुल्य माता पिताओं के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ते हि द्यावा पृथिवी) वे सूर्य भूमि दोनों जिस प्रकार (देवान्) सब जीवों को (इतः) प्राप्त होते हैं (उभे) दोनों (उभयम्) स्थावर और जंगम दोनों को (भरीमभिः) भरण-पोषणकारी अन्न जलों से (बिभृतः) पोषण करते और (पितृभिः रेतांसि सिञ्चतः) पालक मेघों द्वारा जलों की वर्षा करते हैं उसी प्रकार (मातरा मही देवी) पूज्य माता पिता, सर्व सुखप्रद, (यज्ञिये) परस्पर एक यज्ञ, आदर-सत्कार, सत्संग पर आश्रित होकर हमें (जन्मना) जन्म द्वारा (देवान् इतः) हम जीवों को प्राप्त होते हैं। (भरीमभिः) धारक पोषक अन्नादि से (उभयं) छोटे बड़े सब को पालते हैं और (पितृभिः च) माता पिता रूपों से वे (पुरु) अनेक (रेतांसि सिञ्चतः) जलों का आदरार्थ और वीर्यों का सन्तानार्थं निषेक करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
विषय
द्यावापृथिवी
पदार्थ
[१] शरीर में मस्तिष्क 'द्युलोक' है तथा यह स्थूल शरीर 'पृथिवी' है। (ते) = वे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (हि) = निश्चय से (मातरा) = हमारे जीवन का निर्माण करनेवाले हैं। मस्तिष्क 'ज्ञान' के द्वारा तथा शरीर 'शक्ति' के द्वारा हमारी जीवनयात्रा को पूर्ण करनेवाले हैं । अतएव (मही) = ये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मस्तिष्क का महत्त्व है, तो 'शरीर का महत्त्व उससे कम हो' ऐसी बात नहीं है । ये दोनों (देवी) = हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करनेवाले हैं । [२] ये (यज्ञिये) = याज्ञिक प्रवृत्ति के लिये हेतुभूत द्यावापृथिवी (देवान्) = देववृत्ति के पुरुषों को (जन्मना) = विकास के हेतु से इतः प्राप्त होते हैं। ज्ञान व शक्ति मिलकर हमारे में यज्ञ के भाव को जन्म देते हैं। इन यज्ञों से हमारा विकास होता है । [३] (उभे) = ये दोनों द्यावापृथिवी (भरीमभिः) = भरण-पोषणों के द्वारा (उभयम्) = हमारे जीवनों में अभ्युदय व निः श्रेयस दोनों का (बिभृतः) = पोषण करते हैं । (च) = और ये द्यावापृथिवी (पितृभिः) = माता, पिता व आचार्य रूप पिताओं के द्वारा (रेतांसि) = शक्तियों का (पुरु) = खूब ही (सिञ्चतः) = अपने में सेचन करते हैं। माता चरित्र निर्माण के द्वारा, पिता शिष्टाचार के द्वारा, आचार्य ज्ञान के द्वारा हमारे जीवनों में विविध बलों का संचार करते हैं । चरित्र का बल, शिष्टाचार का बल व ज्ञान का बल हमें क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक का विजय करने में समर्थ करते हैं। |
भावार्थ
भावार्थ - मस्तिष्क व शरीर दोनों मिलकर जीवन को सुन्दर बनाते हैं। दोनों शरीर में विविध शक्तियों का स्थापन करते हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते द्यावापृथिवी मही देवी मातरा हि) ते द्यावापृथिव्यौ महत्यौ दिव्यगुणवत्यौ सर्वस्य जगतो निर्मात्र्यौ हि स्तः (यज्ञिये जन्मना देवान्-इत्) ते यजनीये सङ्गमनीये परस्परं सङ्गमप्राप्ते जन्मदानेन-उत्पादनेन सर्वान् दिव्यपदार्थान् प्राप्नुतः (उभे-उभयं बिभ्रतः) ते उभे-उभयं स्थावरजङ्गमं भरणपदार्थैर्जलान्नादिभिश्च धारयतः पोषयतः (पितृभिः-पुरुरेतांसि सिञ्चतः) पितृधर्मै रजवीर्यात्मकैर्धर्मै-र्बहुविधानि रजवीर्याणि सिञ्चतः ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Heaven and earth, both of them great, divine, venerable mothers of life from their very birth in existence, are united with generative vitalities of nature here itself. Both sustain the moving and unmoving forms of life with their nourishing powers and both pour out abundant fertility and generative vitalities replete with the seeds of life essence in natural form.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोक व पृथ्वीलोक स्त्री-पुरुषाप्रमाणे एकमेकांची अपेक्षा करतात. ते दोन्ही रजवीर्य शक्तीद्वारे प्राणी वनस्पतींना उत्पन्न करतात व त्यांना धारण करतात आणि पोषण करतात. ॥१४॥
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