ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
तेषां॒ हि म॒ह्ना म॑ह॒ताम॑न॒र्वणां॒ स्तोमाँ॒ इय॑र्म्यृत॒ज्ञा ऋ॑ता॒वृधा॑म् । ये अ॑प्स॒वम॑र्ण॒वं चि॒त्ररा॑धस॒स्ते नो॑ रासन्तां म॒हये॑ सुमि॒त्र्याः ॥
स्वर सहित पद पाठतेषा॑म् । हि । म॒ह्ना । मा॒ह॒ताम् । अ॒न॒र्वणा॑म् । स्तोमा॑न् । इय॑र्मि । ऋ॒त॒ऽज्ञाः । ऋ॒त॒ऽवृधा॑म् । ये । अ॒प्स॒वम् । अ॒र्ण॒वम् । चि॒त्रऽरा॑धसः । ते । नः॒ । रा॒स॒न्ता॒म् । म॒हये॑ । सु॒ऽमि॒त्र्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तेषां हि मह्ना महतामनर्वणां स्तोमाँ इयर्म्यृतज्ञा ऋतावृधाम् । ये अप्सवमर्णवं चित्रराधसस्ते नो रासन्तां महये सुमित्र्याः ॥
स्वर रहित पद पाठतेषाम् । हि । मह्ना । माहताम् । अनर्वणाम् । स्तोमान् । इयर्मि । ऋतऽज्ञाः । ऋतऽवृधाम् । ये । अप्सवम् । अर्णवम् । चित्रऽराधसः । ते । नः । रासन्ताम् । महये । सुऽमित्र्याः ॥ १०.६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तेषां महताम्-अनर्वणाम्) उन पूर्वोक्त अपने-अपने महत्त्व से महत्त्व वाले, स्वाश्रित, स्वलाभ प्रदान करने में समर्थ तथा (ऋतावृधाम्) यथार्थ ज्ञान से बढ़ानेवाले पदार्थों का (ऋतज्ञाः) मैं यथार्थ ज्ञाता (हि) अवश्य (स्तोमान्-इयर्मि) प्रशंसनीय कलाकौशलों को प्राप्त करता हूँ, जो (सुमित्र्याः) शोभन मित्रों में साधु हैं (ते) वे (अप्सवम्-अर्णवम्-चित्रराधः) रूपवाले सुन्दर प्राण, चायनीय धन को (नः-महये रासन्ताम्) हमारी वृद्धि के लिए देवें ॥३॥
भावार्थ
मन्त्रोक्त विविध पदार्थों के विज्ञान द्वारा अनेक कलाकौशलों का आविष्कार करना चाहिए और अनेक मित्र सहयोगियों के सहयोग से इस कार्य को प्रगति देनी चाहिए ॥३॥
विषय
उन शक्तिशाली पदार्थों का वर्णन।
भावार्थ
मैं (ऋत-ज्ञाः) यथार्थ सत्य ज्ञान का जानने वाला (मह्ना महताम्) अपने महान् सामर्थ्य से महान्, उन (अनर्वणाम्) अन्य चालक की अपेक्षा न करने वाले, स्वयं गतिशील, (ऋत-वृधाम्) सत्य, बल, अन्न, ज्ञान, यज्ञ, तेज को बढ़ाने वाले वा उनसे स्वयं बढ़ने वाले (तेषाम्) उनके (स्तोमान् इयर्मि) स्तुत्य गुणों और स्तुति योग्य वचनों को कहता हूं। (ये) जो (चित्र-राधसः) बहुत धनों के स्वामी होकर (अप्सवम्) जलों के उत्पादक (अर्णवम्) जलों से पूर्ण आकाश वा मेघ को उत्पन्न करते वा वर्षाते हैं ते (सुमित्र्याः) उत्तम मित्र कहाने योग्य हैं। (ते) वे (नः) हमें (महये) महान् सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये (रासन्ताम्) उपदेश करें और ऐश्वर्य प्रदान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
विषय
अप्सव- अर्णव
पदार्थ
[१] (ऋतज्ञाः) = ऋत को जाननेवाला, ऋत, अर्थात् यज्ञ व नियमितता को अपने जीवन में अनूदित करनेवाला मैं (हि) = निश्चय से (तेषाम्) = उन देवों के (स्तोमान्) = स्तुतियों को इयर्मि प्राप्त होता हूँ, उन देवों का स्तवन करता हूँ जो देव (मह्ना) = अपनी महिमा से (महताम्) = महान् हैं, (अनर्वणाम्) = हिंसा से रहित हैं और (ऋतावृधाम्) = ऋत का वर्धन करनेवाले हैं। देवों की यहां तीन विशेषताओं का उल्लेख है— [क] सर्वप्रथम वे महान् होते हैं, उनमें तुच्छता व अनुदारता नहीं होती, [ख] वे कभी किसी की हिंसा नहीं करते, उनके कर्म लोकहित के दृष्टिकोण से होते हैं और [ग] ये अपने अन्दर ऋत का वर्धन करते हैं, इनके सब कार्य बड़े नियमित व व्यवस्थित होते हैं। मैं भी इन देवों का स्तवन करता हुआ ऐसा ही बनने का प्रयत्न करता हूँ । [२] (ये) = जो देव (चित्राधसः) = अद्भुत ऐश्वर्यवाले हैं (ते) = वे (सुमित्र्याः) = उत्तम मित्र के कर्मोंवाले देव (महये) = महत्त्व को प्राप्त कराने के लिये (न:) = हमें (अप्सवम्) = उत्तम रूपवाले शरीर को [अप्स रूप, व= वाला] तथा (अर्णवम्) = ज्ञानजलवाले मस्तिष्क को (रासन्ताम्) = प्राप्त करायें, हमारे लिये वे तेजस्वी रूपवाले स्वस्थ शरीर को तथा ज्ञानदीप्त मस्तिष्क को प्राप्त करायें।
भावार्थ
भावार्थ - देवों का सम्पर्क हमें भी देव बनायेगा । हम महान्, अहिंसक व नियमित जीवनवाले होंगे। हमें तेजस्वी शरीर व दीप्त मस्तिष्क प्राप्त होगा।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तेषां महताम्-अनर्वणाम्-ऋतावृधाम्) तेषां पूर्वोक्तानां स्वस्वमहत्त्वेन महतां महत्त्ववतां स्वाश्रितानां स्वलाभप्रदाने समर्थानां यथार्थज्ञानेन वर्धकानाम् (ऋतज्ञाः) अहं यथार्थज्ञाता (हि) अवश्यं (स्तोमान्-इयर्मि) प्रशंसनीयकलाकौशलान् “स्तोमं प्रशंसनीयकलाकौशलम्” [ऋ० १।१२।१२ दयानन्दः] प्राप्नोमि (ये) ये खलु (सुमित्र्याः) शोभनमित्रेषु साधवः (ते) ते (अप्सवम्-अर्णवं चित्रराधः) रूपवन्तं शोभनम् “अप्सो रूपनाम” [निघ० ३।७] प्राणम् “प्राणो वा-अर्णवः” [श० ७।५।२।२१] चायनीयं धनम् (नः-महये रासन्ताम्) अस्माकं वृद्धये ददतु ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
By the grandeur of these mighty, irresistible, self-sufficient powers of nature which observe and advance life’s evolution by the laws of divinity, I, knowing the laws of nature and exigencies of the environment, structure, realise and accomplish my programmes of development and social advancement within the specifics of the Vishvedevas which, harbingers of wondrous possibilities, friendly and helpful, may, we pray, give us rain showers of liquid prosperity and progress for our honour and glory.
मराठी (1)
भावार्थ
मंत्रोक्त विविध पदार्थांच्या विद्वानाद्वारे अनेक कला कौशल्यांचा आविष्कार केला पाहिजे व अनेक मित्र सहयोग्यांच्या सहयोगाने या कार्याची प्रगती केली पाहिजे. ॥३॥
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