ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 6
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सम॒ज्र्या॑ पर्व॒त्या॒३॒॑ वसू॑नि॒ दासा॑ वृ॒त्राण्यार्या॑ जिगेथ । शूर॑ इव धृ॒ष्णुश्च्यव॑नो॒ जना॑नां॒ त्वम॑ग्ने पृतना॒यूँर॒भि ष्या॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒ज्र्या॑ । प॒र्व॒त्या॑ । वसू॑नि । दासा॑ । वृ॒त्राणि॑ । आर्या॑ । जि॒गे॒थ॒ । शूरः॑ऽइव । घृ॒ष्णुः । च्यव॑नः । जना॑नाम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒त॒ना॒ऽयून् । अ॒भि । स्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समज्र्या पर्वत्या३ वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ । शूर इव धृष्णुश्च्यवनो जनानां त्वमग्ने पृतनायूँरभि ष्या: ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । अज्र्या । पर्वत्या । वसूनि । दासा । वृत्राणि । आर्या । जिगेथ । शूरःऽइव । घृष्णुः । च्यवनः । जनानाम् । त्वम् । अग्ने । पृतनाऽयून् । अभि । स्याः ॥ १०.६९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने-अज्र्या) हे अग्रणायक राजन् ! तू गतिशील नदी समुद्रों में होनेवाले (पर्वत्या) पर्वतों में होनेवाले (वसूनि) धनों को (दासा) दासों-सेवकों के लिए (आर्या) आर्यों स्वामियों के लिए किए हुए (वृत्राणि) पापों को (सं जिगेथ) सम्यक् अधिकार में कर (शूरः-इव धृष्णुः) पराक्रमी के समान धर्षणशील (जनानां च्यवनः) तू जनों का अपने-अपने विषय में प्रेरित करने के स्वभाववाला (पृतनायून्-अभि-स्यात्) विरोधियों को स्वाधीन करने में समर्थ है ॥६॥
भावार्थ
राजा को चाहिए, नदी समुद्र पर्वतों से धन अर्थात् विविध अन्नोत्पत्ति, रत्नप्राप्ति तथा पर्वतीय पदार्थों को प्राप्त कर संग्रह करे। राष्ट्र में सेवक और स्वामी के सम्बन्ध को अच्छा बनाने का प्रयत्न करे। एक दूसरे के प्रति किये अपराधों को नियन्त्रित करे। प्रत्येक जन अथवा वर्ग को अपने-अपने कार्य में प्रेरित करे। विरोधियों को स्वाधीन रखे ॥६॥
विषय
राजा का विजय कार्य।
भावार्थ
हे प्रभो ! स्वामिन् ! तू (अज्र्या) वेग से जाने वाले अश्वों और सूर्य, वायु, तेज आदि पदार्थों सें उत्पन्न (वसूनि) नाना ऐश्वर्यों और (पर्वत्या वसूनि) पर्वत और मेघ से प्राप्त होने वाले वृष्टि, जल, अन्न आदि ऐश्वर्यों को (सं जिगेथ) सूर्यवत् जीत और प्राप्त कर। तू (दासा) सेवकों और (अर्या) स्वामियों और (वृत्राणि) अनेक धनों को भी (सं जिगेथ) भली प्रकार प्राप्त कर। तू (शूरः इव धृष्णः) शूरवीर के समान शत्रु को पराजय करने वाला और (जनानां च्यवनः) मनुष्यों को सन्मार्ग में चलाने वाला शासक होकर हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! प्रभो ! राजन् ! तू (पृतनायून्) सेनाओं के द्वारा संग्राम करने वाले शत्रुओं को और (पृतनायून्) मनुष्यों को भी (अभि स्याः) पराजित कर। उन पर भी शासन कर। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्वः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृज्जगती। २ विराड् जगती। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, ५, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९, ११ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम॥
विषय
अज्या पर्वत्या वसूनि
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (अज्र्या) = कृषि से उत्पन्न होनेवाले [अज्र्य=agriculture से होनेवाले] तथा (पर्वत्या) = पर्वतों से उत्पन्न होनेवाले, पर्वतस्थ वनों, पत्थरों व कानों [mines] से उत्पन्न होनेवाले वसूनि निवास के लिये आवश्यक धनों को (संजिगेथ) = सम्यक् विजय करता है तथा (दासा आर्या) = दासों व आर्यों किन्हीं से भी उत्पादित (वृत्राणि) = उपद्रवों को भी जीतनेवाला होता है। किसी से भी किये गये विघ्न को दूर करके तू वसुओं का विजय करता है। इन वसुओं के द्वारा तू अपने जीवन को सुन्दर बनाता है। इन वसुओं का विजय तू कृषि आदि श्रम साध्य कर्मों से ही करता है। [२] (शूर इव धृष्णुः) = एक शूर पुरुष की तरह उन्नति में विघ्नभूत काम- क्रोधादि का तू धर्षण करता है (च्यवनः) = इन शत्रुओं को दूर भगानेवाला होता है। (जनानाम्) = लोगों में जो भी पुरुष (पृतनायून्) = सेना बनकर आक्रमण करनेवाले हैं उनको, हे अग्ने ! (त्वम्) = तू (अभिष्याः) = अभिभूत कर, पराजित करनेवाला हो । आन्तर शत्रुओं का विजय करनेवाला बाह्य शत्रुओं को अवश्य अभिभूत कर पाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम श्रम से वसुओं का अर्जन करें । काम-क्रोधादि को जीतकर बाह्य शत्रुओं को भी पराजित करनेवाले हों ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने-अज्र्या) हे अग्रणायक राजन् ! त्वम्, अजन्ति प्रवहन्ति ये नदीसमुद्रास्तत्र भवानि (पर्वत्या) पर्वतेषु भवानि (वसूनि) यानि धनानि खलु (दासा) दासेभ्यः सेवकेभ्यः कृतानि (आर्या) आर्येभ्यः स्वामिभ्यः कृतानि (वृत्राणि) पापानि कृतानि (सं जिगेथ) सम्यगधिकुरु (शूरः-इव धृष्णुः) पराक्रमीव धर्षणशीलः (जनानां च्यवनः) जनानां च्यवनः-स्वस्वविषयं प्रति प्रापणस्वभावः (पृतनायून्-अभि-स्यात्) विरोधिनः स्वाधीने कर्त्तुं समर्थोऽसि ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you win the wealth of clouds and mountains, plains and seas, conquer destructive and darkening forces, and win over noble and dynamic powers. O mighty power of light and fire, like a mighty warrior all surpassing, inspirer of people, you challenge and defeat the adversaries.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने नदी, समुद्र, पर्वतापासून धन अर्थात् विविध अन्नोत्पत्ती, रत्नप्राप्ती व पर्वतीय पदार्थांना प्राप्त करून संग्रह करावा. एकमेकांबरोबर केलेल्या अपराधांना नियंत्रित करावे. प्रत्येक वर्गाला आपापल्या कार्यात प्रेरित करावे. विरोधकांना स्वाधीन ठेवावे. ॥६॥
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