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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    च॒क्रं यद॑स्या॒प्स्वा निष॑त्तमु॒तो तद॑स्मै॒ मध्विच्च॑च्छद्यात् । पृ॒थि॒व्यामति॑षितं॒ यदूध॒: पयो॒ गोष्वद॑धा॒ ओष॑धीषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒क्रम् । यत् । अ॒स्य॒ । अ॒प्ऽसु । आ । निऽस॑त्तम् । उ॒तो इति॑ । तत् । अ॒स्मै॒ । मधु॑ । इत् । च॒च्छ॒द्या॒त् । पृ॒थि॒व्याम् । अति॑ऽसितम् । यत् । ऊधः॑ । पयः॑ । गोषु॑ । अद॑धाः । ओष॑धीषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चक्रं यदस्याप्स्वा निषत्तमुतो तदस्मै मध्विच्चच्छद्यात् । पृथिव्यामतिषितं यदूध: पयो गोष्वदधा ओषधीषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चक्रम् । यत् । अस्य । अप्ऽसु । आ । निऽसत्तम् । उतो इति । तत् । अस्मै । मधु । इत् । चच्छद्यात् । पृथिव्याम् । अतिऽसितम् । यत् । ऊधः । पयः । गोषु । अदधाः । ओषधीषु ॥ १०.७३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्य चक्रम्) इस राजा का राष्ट्र (अप्सु-आनिषत्तम्) जलों में-नदीकुल्याओं के मध्य स्थित हो (उत-उ-अस्मै) अपितु इस राष्ट्र  के लिए (तत्-मधु) वहाँ जल (इत्-चच्छद्यात्) अवश्य राष्ट्र में बल देता है (पृथिव्याम्-अतिषितम्) भूमि में उद्घाटित तथा सींचा हुआ (यत्-ऊधः) जो जलबान्ध है, (पयः) वहाँ का जल (गोषु ओषधीषु) खेत की क्यारियों में और वहाँ की ओषधियों में (अदधाः) धारण करे-पहुँचावे ॥९॥

    भावार्थ

    राजा का राष्ट्र नदियों नहरों से युक्त हो, इससे राष्ट्र को बल मिलता है। राष्ट्र भूमि में जल को एकत्र तथा बान्ध बनाकर खेतों और ओषधियों में सींचे ॥९॥

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    विषय

    सूर्य मेघ चक्रवत् राजा के राष्ट्रचक्र का वर्णन। राजा का आदर मेघवत् राष्ट्र में जलसेचन का प्रबन्ध। पक्षान्तर में परमेश्वर वा जगत्सर्जन। वेदद्वारा जगत् का ज्ञान-वर्णन। पक्षान्तर में देहों के बीच लिङ्ग शरीरों का वर्णन, जलाश्रित देह। देह बन्धन का ज्ञान से छेदन। रसाधार देह।

    भावार्थ

    (यत्) जिस प्रकार (अस्य) इस सूर्य या मेघ का (चक्रम्) विम्ब या मेघमण्डल, (अप्सु आ नि सत्तम्) जलों में रहता है, (उतो) और (तत् मधु) वही जल (इत्) ही (अस्मै चच्छद्यात्) इसको आच्छादित करता या सब ओर से ढके रहता है, उसी प्रकार (अस्य) इस राजा का (चक्रम्) राष्ट्रचक्र वा नगर का प्रकोट (अप्सु आ नि-सत्तम्) आप्त जनों में निश्चित रूप से स्थिर रहता है और नगर के चारों ओर का प्रकोट वा राज्य की चतुर्दिगन्त सीमा जलों से वा समुद्रों से घिरी होकर स्थिर रहती है। (उतो) और (अस्मै) इस राजा की (मधु इत्) जल और मधुपर्क से ही (चच्छद्यात्) अर्चना करे। (यत् पृथिव्याम् ऊधः) जिस प्रकार मेघ वा अन्तरिक्ष (अति-सितं) बन्धन से रहित होजाता है वा (अति-सितम्) श्वेतता को अतिक्रमण कर श्याम होजाता है, तब वह (गोषु) भूमियों में (ओषधीषु) ओषधियों में (पयः अदधाः) रस वा जल को प्रदान करता है। इसी प्रकार (यत्) जब (पृथिव्यां) पृथिवी में कोई (ऊधः) जल धारक जलाशय वा जलाधार स्थान (अतिसितम्) बन्धन रूप तट-सीमा से अति क्रमण करे, सेतु आदि तोड़े तब वह राजा (पयः) उस जल को (गोषु) भूमियों में (ओषधीषु) अन्नादि के निमित्त (अदधाः) ले लेवे। उसको अन्यत्र एकत्र कर खेती के उपयोग में ले। पर्वतों से निकलते झरनों वा नदियों में भी जल अधिक हो तो राजा उनको कृषि और भूमि सेचन के कार्य में ले। (२) परमेश्वर पक्ष में (अस्य चक्रम् अप्सु आ नि-षत्तम्) इस परमेश्वर का बनाया यह जगत् ‘अपः’ अर्थात् प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं में ही आश्रित है। (अस्य) इस परमेश्वर का (मधु इत्) वेद का ज्ञान ही (चच्छद्यात्) अर्चन, गुणस्तवन और गुण प्रकाशन करता है, स्तन के समान जो (ऊध) उत्तम ज्ञान का आश्रय वेद (पृथिव्याम् अति-सितम्) पृथिवी पर प्रकट हुआ है, वह (पयः) रस के सदृश (गोषु) वेदवाणियों रूप में उसने (अदधाः) प्रदान किया और (ओषधीषु पयः) वह ओषधियों में रस के समान सर्व दुःखहारी और शान्तिदायक है। (३) अध्यात्म में—इस जीव का चक्र यह कृत्रिम देह वा जन्म-मरण चक्र, जलों वा रक्त धाराओं वा लिङ्ग शरीरों पर अश्रित है। और इस देह को मधु जल-अन्न ही ढांपता है वा इस देहबन्धन को ‘मधु’ अर्थात् ज्ञान ही दूर करता है, इसके पालनार्थ पृथिवी में ही वह स्तन मण्डल है कि जो गौओं में दूध और ओषधियों में रस रूप से है। यह पार्थिव देह भी समस्त रसाधार है कि इसकी इन्द्रियों वा वाणियों में वा तापधारक नाड़ियों वा हृदय की नाड़ियों में भी जीवन-रस है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    घर - दूध- अन्न

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (अस्य) = गत मन्त्र में वर्णित इस प्रभु-भक्त का अप्सु कर्मों के विषय में (चक्रम्) = नियमित गति से चलनेवाला क्रम, अर्थात् दैनिक कार्यक्रम का चक्र (आ-निषत्तम्) = सम्यक्तया [सद्गति] गतिमय होता है, अर्थात् जब यह प्रभु-भक्त [क] स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यों को करके, [ख] अध्यात्म उन्नति के लिये ध्यान व स्वाध्याय को करता है। [ग] इसके बाद संसार यात्रा के लिये जीविका प्राप्ति के लिये किसी उत्तम कर्म में प्रवृत्त होता है, [घ] और अन्त में प्रभु स्मरण के साथ लोकहित के लिये यथाशक्ति कार्य को करता हुआ दिन के कार्यचक्र को पूर्ण करता है (तद्) = तब (उत उ) = अवश्य ही वे प्रभु (अस्मै) = इस कर्त्तव्यचक्र को पूर्ण करनेवाले पुरुष के लिये (मधुरत्) = माधुर्य ही माधुर्य (चच्छद्यात्) = चाहते हैं [छन्द्= wish, desere] प्रभु इसके जीवन को अत्यन्त मधुर बनाते हैं । [२] इसके जीवन को मधुर बनाने के लिये वे [क] (पृथिव्याम्) = पृथिवी पर (यत् अतिषितम्) = जो अत्यन्त सुबद्ध है उस (ऊधः) = शत्रुओं से अप्राप्य सुरक्षित गृह को (अदधाः) = धारण करते हैं [an apartment to wlrich only friends are inkited] । इस छोटे, परन्तु शान्त गृह में वे शान्तिपूर्वक अपने जीवन का यापन करते हैं । [ख] इनके लिये इस घर में वे प्रभु (गोषु पयः) = गौवों में दूध का स्थापन करते हैं । इनके लिये घर में गोदुग्ध सुप्राप होता है । यह दूध इनके शरीर, मन व बुद्धि सभी को स्वस्थ बनाता है । [ग] इस दूध के साथ प्रभु (ओषधीषु) = ओषधियों में 'ओषधयः फलपाकान्ताः ' फलपाक से ही जिनका अन्त हो जाता है उन गेहूँ, जौ, चावल आदि अन्नों में (पयः) = आप्यायन व वर्धन को धारण करते हैं । अर्थात् अन्नादि वानस्पतिक पदार्थ ही इनके आप्यायन का कारण बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने दैनिक कार्यक्रम का उत्तमता से पालन करेंगे तो प्रभु हमें सुबद्ध गृह- दूध व अन्न प्राप्त कराके हमारे जीवन को अत्यन्त मधुर बना देंगे।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्य चक्रम्) अस्य राज्ञो राष्ट्रम् “चक्रवद्वर्तमानं राज्यम्” [ऋ० ४।३०।४ दयानन्दः] (अप्सु आनिषत्तम्) जलेषु-समन्तात् स्थितं भवतु (उत-उ-अस्मै) अपि तु खल्वस्मै राष्ट्राय (तत्-मधु) तत्रस्थं जलम् “मधु उदकनाम” [निघ० १।१२] (इत्-चच्छद्यात्) अवश्यं राष्ट्रे बलं प्रयच्छति “छदयत् बलयति” [ऋ० ६।४९।५ दयानन्दः] (पृथिव्याम्-अतिषितम्) भूमौ खलूद्घाटितमुत्पादितं (यत्-ऊधः) यज्जलबन्धनम् “ऊधः-जलस्थानम्” [ऋ० १।१४६।२ दयानन्दः] (पयः-गोषु-ओषधीषु-अदधाः) तत्रत्यञ्जलम् “पयः-उदकनाम” [निघ० १।१२] क्षेत्रभक्तिषु तत्रौषधिषु धारय ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    His wheel of power and presence which operates across the spaces and rules the dynamics of nature and humanity also fills and covers the whole system of existence with honey sweets of joy for life and for the lord’s own fulfilment too, the same honey which fertilises the earth and fills the clouds, the nectar that is filled in the cow’s udders and sweetens the sap in the herbs.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाचे राष्ट्र नद्या, कालवे यांनी युक्त असावे. त्यामुळे राष्ट्राला बल मिळते. राज्यात जल एकत्र करून व बांध बांधून शेतात व औषधींमध्ये सिंचन करावे. ॥९॥

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