ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - स्वराडार्चीजगती
स्वरः - निषादः
तदिद्ध्य॑स्य॒ सव॑नं वि॒वेर॒पो यथा॑ पु॒रा मन॑वे गा॒तुमश्रे॑त् । गोअ॑र्णसि त्वा॒ष्ट्रे अश्व॑निर्णिजि॒ प्रेम॑ध्व॒रेष्व॑ध्व॒राँ अ॑शिश्रयुः ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । हि । अ॒स्य॒ । सव॑नम् । वि॒वेः । अ॒पः । यथा॑ । पु॒रा । मन॑वे । गा॒तुम् । अश्रे॑त् । गोऽअ॑र्णसि । त्वा॒ष्ट्रे । अश्व॑ऽनिर्निजि । प्र । ई॒म् । अ॒ध्व॒रेषु॑ । अ॒ध्व॒रान् । अ॒शि॒श्र॒युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिद्ध्यस्य सवनं विवेरपो यथा पुरा मनवे गातुमश्रेत् । गोअर्णसि त्वाष्ट्रे अश्वनिर्णिजि प्रेमध्वरेष्वध्वराँ अशिश्रयुः ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । इत् । हि । अस्य । सवनम् । विवेः । अपः । यथा । पुरा । मनवे । गातुम् । अश्रेत् । गोऽअर्णसि । त्वाष्ट्रे । अश्वऽनिर्निजि । प्र । ईम् । अध्वरेषु । अध्वरान् । अशिश्रयुः ॥ १०.७६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य) इस आत्मा के (तत्-इत्-हि) उस (सवनम्) अवसर (अपः) तथा कर्म को (विवेः) विकसित करता है (यथा पुरा) जैसे पूर्व (मनवे) मननशील जन के लिए (गातुम्-अश्रेत्) गमन को प्राप्त हुआ है (त्वाष्ट्रे) त्वष्टा-परमात्मा सम्बन्धी (गो-अर्णसि) स्तुतियों से प्राप्तव्य आनन्दस्वरूप मोक्ष में (अश्वनिर्णिजि) इन्द्रिय घोड़ों के शोधन से प्राप्त होने योग्य में (अध्वरेषु) अध्यात्मयज्ञों में (अध्वरान्) अध्यात्मयाजी (अशिश्रयुः) आश्रित होवें ॥३॥
भावार्थ
आत्मा के लिये परमात्मा यह अवसर और कर्मविधान प्रदर्शित करता है कि आनन्दरसपूर्ण मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, जो परम्परा से स्तुति करनेवाला प्राप्त करता था। उस ऐसे अभीष्ट आनन्द का अध्यात्मयाजी आश्रय लिया करते हैं ॥३॥
विषय
नाना पदों पर योग्यों का स्थापन।
भावार्थ
(अस्य) इसका (तत् सवनम्) वह उस प्रकार अभिषेक वा शासन (अपः) समस्त प्रजाओं को इस प्रकार (विवेः) व्याप ले (यथा पुरा) जिस प्रकार पूर्ववत् (मनवे) मनुष्य के हितार्थ (गातुम् अश्रेत्) ज्ञान, मार्ग प्राप्त हो। (गो-अर्णसि) गौ, पृथिवी वा वाणी के रूप में और (अश्व-निर्णिजि) अश्व रूप में (त्वाष्ट्रे) तेजस्वी सूर्य के (गो-अर्णसि) किरण रूप में वा (अश्व-निर्णिजे) व्यापक प्रकाशरूप में (अध्वरेषु) अहिंसनीय पदों पर (अध्वरान्) इन अहिंसनीय, बलवान् (ईम्) वीर वा विद्वान् पुरुषों को ही (प्र अशिश्रयुः) आश्रय रूप से स्थापित करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥
विषय
क्रियाशीलता व अभ्रंश
पदार्थ
[१] (तत्) = वह (हि) = निश्चय से (अस्य) = इस सोम का (सवनम्) = उत्पादन (अपः) = कर्मों को (विवेः) = व्याप्त करता है। शरीर में सोम के रक्षण से मनुष्य का जीवन क्रियाशील बनता है । यह सोम (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिये (यथा) = ठीक-ठीक [जैसे चाहिए उस प्रकार ] (पुरा) = [पृ पालन पूरणयोः] पालन व पूरण के दृष्टिकोण से (गातुम्) = मार्ग का (अश्रेत्) = सेवन करता है । सोम के रक्षण के होने पर मनुष्य गलत मार्ग पर नहीं जाता, ठीक मार्ग पर चलने से उसका पालन व पोषण उचित प्रकार से होता है। [२] ये सोम का सवन व रक्षण करनेवाले लोग (गो अर्णसि) = वेदवाणी से प्राप्य ज्ञानजलों (त्वाष्ट्रे) = [त्वटुः इदम्] निर्माण सम्बन्धी कार्यों के निमित्त तथा (अश्वनिर्णिजि) = इन्द्रियों के शोधन के निमित्त [णिजिर् शौचपोषणयोः], (ईम्) = और निश्चय से (अध्वरेषु) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों के निमित्त (अध्वरान्) = हिंसा व कुटिलता से रहित कर्मों को (प्र अशिश्रयुः) = प्रकर्षेण सेवन करते हैं। सोम के रक्षण के ये परिणाम हैं- [क] ज्ञान प्राप्ति, [ख] निर्माणात्मक कार्यों में रुचि, [ग] इन्द्रियों की शुचिता, [घ] यज्ञशीलता ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण हमें क्रियाशील बनाता है और मार्ग से भ्रष्ट होने से बचाता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्य) अस्यात्मनः (तत्-इत्-हि) तदेव (सवनम्-अपः-विवेः) अवसरं कर्म विवृणोति (यथा मनवे पुरागातुम्-अश्रेत्) यथा पुराकाले मननशीलाय-अस्मै जनाय गमनं प्राप्तमभूत् (त्वाष्ट्रे गो-अर्णसि) त्वष्टुः परमात्मनः सम्बन्धिनि स्तुतिभिः प्राप्तव्यानन्दरसे मोक्षे (अश्वनिर्णिजि) इन्द्रियाश्वानां शोधनेन लभ्ये (अध्वरेषु-अध्वरान्-ईं प्र-अशिश्रयुः) अध्यात्मयज्ञेषु-अध्वरवन्तोऽध्यात्मयाजिनः “अकारो मत्वर्थीयोऽत्र छान्दसः” आश्रिता भवन्ति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Let that creative soma yajna programme of this yajamana promote and extend his actions and achievements the way as ever before it has opened and extended the paths of progress for humanity and inspired pioneers of positive acts of love and service to go forward in the scientific development of land, cows, culture and enlightenment and in the technological development of efficient means of transport and civilisational attainments.
मराठी (1)
भावार्थ
आत्म्यासाठी परमात्मा संधी देऊन कर्मविधान प्रकट करतो की आनंद रसपूर्ण मोक्ष कसा प्राप्त होतो. जो परंपरेने स्तुती करणारा, मोक्ष प्राप्त करत होता त्या अभीष्ट आनंदाचा अध्यात्मयाजी आश्रय घेतात. ॥३॥
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