ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 44
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सूर्या
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अघो॑रचक्षु॒रप॑तिघ्न्येधि शि॒वा प॒शुभ्य॑: सु॒मना॑: सु॒वर्चा॑: । वी॒र॒सूर्दे॒वका॑मा स्यो॒ना शं नो॑ भव द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥
स्वर सहित पद पाठअघो॑रऽचक्षुः । अप॑तिऽघ्नी । ए॒धि॒ । शि॒वा । प॒शुऽभ्यः॑ । सु॒ऽमनाः॑ । सु॒ऽवर्चाः॑ । वी॒र॒ऽसूः । दे॒वऽका॑मा । स्यो॒ना । शम् । नः॒ । भ॒व॒ । द्वि॒ऽपदे॑ । शम् । चतुः॑ऽपदे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अघोरचक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्य: सुमना: सुवर्चा: । वीरसूर्देवकामा स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ॥
स्वर रहित पद पाठअघोरऽचक्षुः । अपतिऽघ्नी । एधि । शिवा । पशुऽभ्यः । सुऽमनाः । सुऽवर्चाः । वीरऽसूः । देवऽकामा । स्योना । शम् । नः । भव । द्विऽपदे । शम् । चतुःऽपदे ॥ १०.८५.४४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 44
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अघोरचक्षुः) हे वधू ! तू प्रियदर्शन (अपतिघ्नी) पति को पीड़ा न देनेवाली अपि तु सुखद (एधि) हो (पशुभ्यः) देखनेवाले वंशजों के लिये तथा अन्य जनों के लिए भी (शिवा) कल्याणकरी (सुमनाः) शोभन मनवाली-शिवसङ्कल्पवाली (सुवर्चाः) शोभन तेजवाली हो (वीरसूः) प्रशस्त सन्तान उत्पन्न करनेवाली (देवकामा) पतिदेव की हितकामना करनेवाली तथा देवरों की हितकामना करनेवाली भी (स्योना) स्वयं सुखरूप (नः-द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव) हमारे दो पैरवाले के लिये कल्याणकरी, चार पैरवाले के लिये कल्याणकरी हो ॥४४॥
भावार्थ
वधू प्रियदर्शन पति, देवर तथा वंशजों और अन्य जनों की हितकामना करनेवाली, स्वयं प्रसन्न रहते हुए घर के पशूओं का भी हित चाहनेवाली होनी चाहिए ॥४४॥
विषय
पत्नी को कर्त्तव्य का उपदेश।
भावार्थ
हे स्त्रि ! तू (अ-घोरचक्षुः) घोर अर्थात् क्रूरता से रहित चक्षु वाले सौम्य स्नेहमय नयनों वाली, सौम्यदृष्टि और (अपति-घ्नी) पति का नाश करने वा पति को दण्डित और पीड़ित एवं दुःखदायी न होकर (एधि) रह। तू (पशुभ्यः) पशुओं के लिये (शिवा) कल्याणकारिणी, (सु-मनाः) शुभ चित्त वाली, (सुवर्चाः) उत्तम तेजस्विनी, (वीर-सूः) उत्तम पुत्र को उत्पन्न करने वाली, (देव-कामा) विद्वानों को वा अपने कान्त पति को सदा चाहने वाली, (स्योना) सुखकारिणी (एधि) हो। तू (नः द्विपदे शम् भव) हमारे दोपाये भृत्यादि के लिये और (नः चतुष्पदे शम् भव) हमारे चौपायों के लिये भी शान्तिकारक हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
पति की कामना
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के प्रसंग में ही पति कहता है कि हे पत्नि ! तू (अघोरचक्षुः) = कभी भी आँख में क्रोधवाली न हो और इस प्रकार (अ-पति घ्नी एधि) = पति को न मारनेवाली हो । पत्नी सदा क्रोधी स्वभाव की हो और उसकी आँख से क्रोध ही टपकता रहे तो पति के आयुष्य में बड़ी कमी आ जाती है। संसार संघर्ष से परेशान पति घर में आता है और प्रसन्नवदना पत्नी से स्वागत को प्राप्त करता है तो उसका सारा कष्ट समाप्त हो जाता है। पर यदि पत्नी भी क्रोध में आगबबूला हुई बैठी हो तो फिर पति का कल्याण नहीं। [२] हे पत्नि ! तू घर में (पशुभ्यः शिवा) = गवादि पशुओं के लिये भी शिवा कल्याण करनेवाली हो । (सुमनाः) = सदा उत्तम मनवाली और परिणामतः (सुवर्चा:) = उत्तम वर्चस्वाली हो। मन विलासमय होने पर वर्चस्विता का सम्भव नहीं होता । [३] उत्तम मनवाली व वर्चस्विनी होती हुई तू (वीरसूः) = वीर सन्तानों को जन्म दे । वीर सन्तानों को जन्म वही दे पाती है जिसके कि मन में किसी प्रकार का अशुभ विचार न हो, वासना के अभाव में जो वर्चस्विनी हो । [४] (देवकामा) = वासनाओं से ऊपर उठने के लिये तू सदा उस देव की कामनावाली हो । प्रभु प्राप्ति का विचार मनुष्य को वासनाओं का शिकार होने से बचाता है । (स्योना) = तू सभी के लिये सुख को देनेवाली हो। (नः) = हमारे (द्विपदे) = दो पाँववाले मनुष्यों के लिये तो तू (शं भव) = शान्ति को देनेवाली हो ही, (चतुष्पदे शम्) = गवादि पशुओं के लिये भी शान्ति को देनेवाली हो ।
भावार्थ
भावार्थ - पत्नी [क] क्रोधशून्य हो, [ख] उत्तम मनवाली व वर्चस्विनी हो, [ग] वीर सन्तानों को जन्म दे, [घ] प्रभु प्राप्ति की कामनावाली हो, [ङ] सबके लिये शान्ति का कारण बने ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अघोरचक्षुः) अक्रूरदर्शना-प्रियदर्शना (अपतिघ्नी) पतिपीडिका न, पत्ये सुखदा (रुधि) भव (पशुभ्यः शिवा सुमनाः सुवर्चाः) पश्यद्भ्यो वंश्येभ्योऽन्येभ्यो जनेभ्यश्च कल्याणकरी शोभनमनाः शिवसङ्कल्पा शोभना तेजस्विनी भव (वीरसूः) प्रशस्तपुत्रोत्पादयित्री (देवकामा) निजपतिदेवं कामयमाना ‘देवृकामा’ पाठे तु देवॄन् कामयमाना (स्योना) स्वयं सुखरूपा (नः-द्विपदे शं चतुष्पदे शं भव) अस्मभ्यं तथा मनुष्यमात्राय पशुमात्राय कल्याणकरी भव ॥४४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Be lady of the gracious eye for the husband. Be kind and good to the animals, noble at heart and brilliant in mind and sense of honour and propriety. Be the mother of brave and noble children. Love your husband’s brothers. Be cheerful and blissful. Let there be all round peace and total well being for us all, peace and well being for humans and animals all.
मराठी (1)
भावार्थ
वधू ही प्रियदर्शन, पती, दीर व वंशज आणि इतरांच्या हिताची कामना करणारी, स्वत: प्रसन्न, घरातील पशूंचे हित इच्छिणारी असली पाहिजे. ॥४४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal