ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
हरी॒ नु त॑ इन्द्र वा॒जय॑न्ता घृत॒श्चुतं॑ स्वा॒रम॑स्वार्ष्टाम्। वि स॑म॒ना भूमि॑रप्रथि॒ष्टारं॑स्त॒ पर्व॑तश्चित्सरि॒ष्यन्॥
स्वर सहित पद पाठहरी॒ इति॑ । नु । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । वा॒जय॑न्ता । घृ॒त॒ऽश्चुत॑म् । स्वा॒रम् । अ॒स्वा॒र्ष्टा॒म् । वि । स॒म॒ना । भूमिः॑ । अ॒प्र॒थि॒ष्ट । अरं॑स्त । पर्व॑तः । चि॒त् । स॒रि॒ष्यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
हरी नु त इन्द्र वाजयन्ता घृतश्चुतं स्वारमस्वार्ष्टाम्। वि समना भूमिरप्रथिष्टारंस्त पर्वतश्चित्सरिष्यन्॥
स्वर रहित पद पाठहरी इति। नु। ते। इन्द्र। वाजयन्ता। घृतऽश्चुतम्। स्वारम्। अस्वार्ष्टाम्। वि। समना। भूमिः। अप्रथिष्ट। अरंस्त। पर्वतः। चित्। सरिष्यन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र यस्य ते तव घृतश्चुतं स्वारं वाजयन्तः सूर्यस्य हरी इव विद्याविनयावस्वार्ष्टांस्ताभ्यां सह भूमिरिव त्वं नु व्यप्रथिष्टारंस्त सरिष्यन् पर्वतश्चिदिव समना विजयस्व ॥७॥
पदार्थः
(हरी) हरणशीलौ किरणौ (नु) सद्यः (ते) तव (इन्द्र) सूर्यवद्वर्त्तमान (वाजयन्ता) गमयन्तौ (घृतश्चुतम्) उदकात् प्राप्तम् (स्वारम्) उपतापं शब्दं वा (अस्वार्ष्टाम्) शब्दयन्तः (वि) (समना) समनानि सङ्ग्रामान् (भूमिः) पृथिवीव (अप्रथिष्ट) प्रथताम् (अरंस्त) रमताम् (पर्वतः) मेघः (चित्) इव (सरिष्यन्) गमिष्यन् ॥७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषाः सूर्यवत्प्रजानामुपकारका मेघवदानन्दप्रदा विशालबलाः सन्ति त एव शत्रून् विजेतुं शक्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान प्रतापी राजन् ! जिन (ते) आपके (घृतश्चुतम्) जल से प्राप्त हुए (स्वारम्) उपताप वा शब्द को (वाजयन्ता) चलते हुए सूर्य के (हरी) हरणशील किरणों के समान विद्या और विनय को जो (अस्वार्ष्टाम्) शब्दायमान करते अर्थात् व्यवहार में लाते उनके साथ (भूमिः) भूमि के समान आप (नु) शीघ्र (वि,अप्रथिष्ट) प्रख्यात हूजिये और (अरंस्त) सुख में रमण कीजिये तथा (सरिष्यन्) गमन करनेवाले होते हुए (पर्वतः) मेघ के (चित्) समान (समना) संग्रामों को जीतो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजपुरुष सूर्य के समान प्रजाजनों के उपकार करने वा मेघ के समान आनन्द देने और उत्तम बलवाले हैं, वे ही शत्रुओं को जीत सकते हैं ॥७॥
विषय
भूमि-प्रथन' तथा 'पर्वत-रमण' "
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (नु) = अब (ते) = तेरे (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व (घृतश्चुतम्) = ज्ञानदीप्ति को क्षरित करनेवाले [श्च्युत् to sprinkle] = ज्ञानदीप्ति से अन्तःकरण को सिक्त करनेवाले (स्वारम् अस्वाष्टम्) = शब्द को करनेवाले हों। ये इन्द्रियाश्व (वाजयन्ता) = [वाजं कुर्वन्तौ] शक्ति को हमारे में सम्पादित करते हुए सदा प्रकाशवृद्धि के कारणभूत शब्दों को ही उच्चरित करें । २. इन ज्ञान के जनक शब्दों के उच्चारण से (समना) = [सम्+अना] उत्तम प्राणशक्तिवाली यह (भूमि:) = शरीररूप पृथिवी (अप्रथिष्ट) = [प्रथ विस्तारे] विस्तृत होती है। इसकी शक्तियों का विकास होता है। ज्ञान हमें अन्य सब व्यसनों से बचानेवाला होता है। व्यसनों में न फंसने से शक्तिवर्धन होता है। ३. शक्तियों का वर्धन ही क्या ! (पर्वतः चित्) = पर्वत भी (सरिष्यन्) = गतिवाला होता हुआ अरस्त क्रीड़ा सा करता प्रतीत होता है (रमु क्रीडायाम्) ।
भावार्थ
भावार्थ- इन्द्रियाँ विषयों के मार्ग से न जाकर ज्ञान शब्दों का ही उच्चारण करें। इससे शरीर की शक्तियों का विस्तार होगा।
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् के ( हरी ) ताप और प्रकाश या धारण और आकर्षणशील दोनों प्रकार के किरण ( वाजयन्ता ) अन्न उत्पन्न करने की इच्छा वाले, ( घृतश्चुतं ) जल को लानेवाले, (स्वारं) ताप और गर्जन को ( अस्वार्ष्टाम् ) उत्पन्न करते हैं और उस समय ( समना ) समस्थलवाली भूमि ( वि अप्रथिष्ट ) खूब फैली रहती है और ( पर्वतः ) मेघ ( सरिष्यन् ) दौड़ता हुआ ( अरंस्त ) विहार करता है। उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) सूर्य या विद्युत् के समान तेजस्विन् ! ( वाजयन्ता ते हरी ) वेगवान्, संग्राम में प्रयाण करने की इच्छावाले तेरे दोनों अश्व ( घृतश्चुतं ) बहते जल से निकलते, या तेज, प्रताप को दर्शानेवाले ( स्वारं ) शब्द को या गर्जन को ( अस्वार्ष्टाम् ) करते हैं । मनुष्यों सहित ( भूमिः ) भूमि ( वि अप्रथिष्ट ) विशेष रूप से विस्तृत हो, तेरा राष्ट्र बढ़े, ( अरंस्त ) वह खूब प्रसन्न हो, तू ( सरिष्यन् ) शत्रु पर चड़ाई की इच्छा करता हुआ ( पर्वतः चित् ) मेघ के समान प्रजा पालन करनेहारा ( समना ) संग्राम कर और ( अरंस्त ) राष्ट्र में रमण कर, उसका सुख से उपयोग कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजपुरुष सूर्याप्रमाणे प्रजेवर उपकार करतात, मेघाप्रमाणे आनंद देतात व अत्यंत बलवान असतात तेच शत्रूंना जिंकू शकतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and power, ruler of the world, the circuitous rays of your glory like two horses of the solar chariot radiating, moving, energising, vitalising, fertilising, giving and receiving, proclaim your grace and majesty replete with the waters of life. Let the earth expand and grow and prosper. Let the battles of life be fought and won in unison. Arise and rejoice flowing like streams from the mountain, showering like clouds of rain, from the heavens.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More guide lines about Statecraft.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O ruler ! you are glorious like the sun. You accept those persons who implement your orders in letters and spirit. The sunrays extract water and turn into clouds and thereafter come down in the form of rains and give delight on the earth. We desire you to be widely reputed, enjoy pleasure and capable to win the battles like clouds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those State authorities who deliver good to subjects like sun and clouds, only they can win over their enemies.
Foot Notes
(हरी) हरणशीलौ किरणौ | = The sun rays having nature of extracting moisture. (वृतश्चुतम् ) उदकात् प्राप्तम् । = Received or brewed from water. (अस्वाष्र्टाम् ) शब्दयन्तः = Making sound. (अप्रथिष्ट ) प्रथताम् । = You expand. (सरिष्यन् ) गमिष्यन् = While going.
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