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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्यावा॑ चिदस्मै पृथि॒वी न॑मेते॒ शुष्मा॑च्चिदस्य॒ पर्व॑ता भयन्ते। यः सो॑म॒पा नि॑चि॒तो वज्र॑बाहु॒र्यो वज्र॑हस्तः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यावा॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । पृ॒थि॒वी इति॑ । न॒मे॒ते॒ इति॑ । शुष्मा॑त् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । पर्व॑ताः । भ॒य॒न्ते॒ । यः । सो॒म॒ऽपाः । नि॒ऽचि॒तः । वज्र॑ऽबाहुः । यः । वज्र॑ऽहस्तः । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते। यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यावा। चित्। अस्मै। पृथिवी इति। नमेते इति। शुष्मात्। चित्। अस्य। पर्वताः। भयन्ते। यः। सोमऽपाः। निऽचितः। वज्रऽबाहुः। यः। वज्रऽहस्तः। सः। जनासः। इन्द्रः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सूर्यविषयमाह।

    अन्वयः

    हे जनासो युष्माभिरस्मै द्यावापृथिवी चिन्नमेते अस्य शुष्माच्चित्पर्वता भयन्ते यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तोऽस्ति स इन्द्रो वेदितव्यः ॥१३॥

    पदार्थः

    (द्यावा) द्यौः (चित्) इव (अस्मै) सूर्याय (पृथिवी) भूमिः (नमेते) प्रभूतं शब्दयेते (शुष्मात्) बलात् (चित्) अपि (अस्य) सूर्य्यस्य (पर्वताः) मेघाः (भयन्ते) बिभ्यति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (यः) (सोमपाः) यः सोमरसं पिबति सः (निचितः) निश्चितश्चितः (वज्रबाहुः) बाहुवत् किरणबलः (यः) (वज्रहस्तः) वज्राः किरणा हस्ता यस्य (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यस्याकर्षणेन प्रकाशक्षिती नम्रे इव वर्त्तेते मेघा भ्रमन्ति हस्ताभ्यामिव यो रसमूर्ध्वन्नयति तं यथावत्संप्रयुञ्जत ॥१३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर सूर्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (जनासः) मनुष्यो ! तुमको (अस्मै) इस सूर्यमण्डल के लिये (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि के समान बृहत् पदार्थ (चित्) भी (नमेते) अति सामर्थ्ययुक्त शब्दायमान होते हैं (अस्य) इस सूर्यमण्डल के (शुष्मात्) बल से (चित्) ही (पर्वताः) मेघ (भयन्ते) भयभीत होते हैं (यः) जो (सोमपाः) रस को पीता (निचितः) निरन्तर अनेक पदार्थों से इकट्ठा किया गया (वज्रबाहुः) और (यः) जो बाहुओं के तुल्य किरण बलयुक्त तथा (वज्रहस्तः) जिसकी हाथों के समान किरणें हैं वह (इन्द्रः) सूर्य्यलोक जानने योग्य है ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसके आकर्षण से प्रकाश और क्षिति नमे हुए वर्त्तमान हैं, मेघ भ्रमि रहे हैं, हाथों के समान जो रस को ऊर्ध्व पहुँचाता है, उसका यथावत् अच्छे प्रकार प्रयोग करो ॥१३॥

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    विषय

    'वज्रहस्त' प्रभु

    पदार्थ

    १. (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (द्यावा पृथिवी चित्) = द्युलोक व पृथिवीलोक भी निश्चय से (नमेते) = नमन करते हैं, अर्थात् इसके शासन में चलते हैं। (अस्य शुष्मात्) = इसके शत्रुशोषक बल से (पर्वताः चित्) = पर्वत भी (भयन्ते) = भयभीत होते हैं, अर्थात् दृढ़ से दृढ़ पर्वत को भी विदीर्ण करने में वे प्रभु समर्थ हैं । २. (यः) = जो (सोम-पा:) = इस उत्पन्न जगत् के रक्षक हैं । (नि- चितः) = [चिकेति= to observe, see, perceive] निश्चय से सर्वद्रष्टा हैं । (वज्रबाहुः) = वज्रसदृश बाहुवाले हैं—कभी न थकनेवाले हैं– अनन्त शक्तिसम्पन्न हैं। (यः) = जो (वज्रहस्तः) = अशुभमार्ग पर जानेवालों के लिए हाथ में वज्र को लिये हुए हैं, अर्थात् पापियों को दण्डित करनेवाले हैं। (जनासः) = लोगो ! (स इन्द्रः) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु 'इन्द्र' नामवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – अनन्तशक्तिसम्पन्न वे प्रभु हैं। वे ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के शासक हैं। पापियों को दण्ड देनेवाले वे ही हैं ।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार मेघ ( शुष्मिन्तमं वीरवन्तं रथिं रासि ) सब से अधिक बल वीर्य से युक्त अन्न देता है और प्रजागण ( अवस्यवः ) अन्न की कामना करते हुए (ऊती) जल द्वारा की गयी तृप्ति से (ऊर्जं वर्धयन्तः) अन्न की वृद्धि कृषि से करते रहते हैं उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ये ) जो हम लोग ( ते ) ( ऊती ) तेरी शक्ति, पालनसामर्थ्य से ( अवस्यवः ) रक्षा, ज्ञान, प्रीति, शत्रुनाश, वृद्धि आदि की कामना करते हुए ( ऊर्जं वर्धयन्तः ) बल पराक्रम को बढ़ाते रहते हैं ( ते ) वे हम ( ते स्याम ) तेरे होकर रहें । ( यं ) जिस ( शुष्मिन्तमं ) बहुत अधिक बलवाले, ( वीरवन्तम् ) वीर्यवान् पुत्र भृत्य मित्रादि से युक्त, ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( चाकनाम ) चाहते हैं, हे ( देव ) राजन् ! तू वही ( अस्मे ) हमें ( रासि ) प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (अस्मै द्यावापृथिवी चित्-नमेते) इसके लिये द्युलोक पृथिवीलोक भी नमन करते हैं मानो स्वागत करते हैं इसके संकेत या आदेश को मानते हैं (अस्य शुष्मात् चित् पर्वताः भयन्ते) अपितु इसके बल से मेघ भय करते हैं । (यः सोमपाः निचितः) जो सोम-मेघ जलों का पान करता या सोम उपासना स्वभाव का पान कर्त्ता अन्तर्दित (यः-वज्रबाहुः वज्रहस्तः) जो वज्र समान बाहुओं वाला वज्र हाथों में रखनेवाला (जनासः सः-इन्द्रः) हे जनों! वह इन्द्र व्याप्त विद्युत् देव या परमात्मा है ॥१३॥

    विशेष

    ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्याच्या आकर्षणाने प्रकाश व क्षिती नमलेले आहेत, मेघ भ्रमण करीत आहेत, हात जसे कार्य करतात तसे जो रस वर पोचवितो त्या (सूर्याचा) चा यथायोग्य उपयोग करून घ्या. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Heaven and earth bow to him in homage. Clouds cower and mountains quake for fear of his power. He is the creator, preserver and promoter of the soma nectar and ecstasy of life, knowledge concentrate and power both, thunder-armed for punishment and protection, flower-handed with kusha grass for blessing and benediction. Such is Indra, lord of light and might and life of life, O children of the earth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again about the sun-power is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! the firmament and earth like substances create roar because of the solar power. The clouds get frightened with it's power. Like a person drinking SOMA and herbal juices, the sun with its powerful arms, like rays and hands, like thunderbolt establishes its supremacy. We all should know its greatness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Because of the solar gravitation, the firmament and earth draw their existence and the clouds make a sound. The sun extracts up the moisture with its own rays-like hands and arms. We should take maximum use of the solar energy.

    Foot Notes

    (नमेते ) प्रभूतं शब्दयेते | = (Firmament and earth) create roaring sound. (भयन्ते) बिभ्वति | = Gets frightened. (वज्रहस्तः) वज्रा: किरणा हस्ता यस्य सः = Whose hands are the rays and which are strong like the thunderbolt.

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