ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
स ईं॑ म॒हीं धुनि॒मेतो॑ररम्णा॒त्सो अ॑स्ना॒तॄन॑पारयत्स्व॒स्ति। त उ॒त्स्नाय॑ र॒यिम॒भि प्र त॑स्थुः॒ सोम॑स्य॒ ता मद॒ इन्द्र॑श्चकार॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई॒म् । म॒हीम् । धुनि॑म् । एतोः॑ । अ॒र॒म्णा॒त् । सः । अ॒स्ना॒तॄन् । अ॒पा॒र॒य॒त् । स्व॒स्ति । ते । उ॒त्ऽस्नाय॑ । र॒यिम् । अ॒भि । प्र । त॒स्थुः॒ । सोम॑स्य । ता । मदे॑ । इन्द्रः॑ । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं महीं धुनिमेतोररम्णात्सो अस्नातॄनपारयत्स्वस्ति। त उत्स्नाय रयिमभि प्र तस्थुः सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥
स्वर रहित पद पाठसः। ईम्। महीम्। धुनिम्। एतोः। अरम्णात्। सः। अस्नातॄन्। अपारयत्। स्वस्ति। ते। उत्ऽस्नाय। रयिम्। अभि। प्र। तस्थुः। सोमस्य। ता। मदे। इन्द्रः। चकार॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या य इन्द्रः सोमस्येन्धुनिं महीमरम्णात्सोऽस्नातॄनेतोः स्वस्त्यभिरपारयद्यस्ता मदे चकार येऽस्मिन्नुत्स्नाय रयिं प्रतस्थुस्ते दुःखं जहति स सर्वैः सेव्यः ॥५॥
पदार्थः
(सः) सूर्य इव परमेश्वरः (ईम्) जलम् (महीम्) पृथिवीम् (धुनिम्) चलिताम् (एतोः) अयनम् (अरम्णात्) हन्ति रम्णातीति वधकर्मा० निघं० २। १९। (सः) (अस्नातॄन्) अस्नातकान् (अपारयत्) पारयति (स्वस्ति) (ते) (उत्स्नाय) स्नानं कृत्वा (रयिम्) द्रव्यम् (अभि) (प्र) (तस्थुः) प्रतिष्ठन्ते (सोमस्य) उत्पन्नस्य जगतो मध्ये (ता) तानि (मदे) (इन्द्रः) (चकार) ॥५॥
भावार्थः
यो जगदीश्वरो जगतः स्रष्टा पाता हन्ता मुक्तौ शुद्धाचारान् दुःखात्पारयितास्ति येऽस्मिन् शुद्धे समाधिना निमज्य पवित्रयन्ति ते सर्वत्र प्रतिष्ठाँल्लभन्ते ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर (सोमस्य) उत्पन्न जगत् के बीच (ईम्) जल और (धुनिम्) चलती हुई (महीम्) पृथिवी को (अरम्णात्) हन्ता है (सः) वह (अस्नातॄन्) अस्नातक अर्थात् जो यज्ञ स्नान नहीं किये उनके (एतोः) गमन को (स्वस्ति) कल्याण जैसे हो वैसे (अभि, अपारयत्) सब ओर से पार पहुँचाता है जो (ता) उक्त कामों को (मदे) हर्ष के निमित्त (चकार) करता है और जो विद्वान् जन उक्त ईश्वर के निमित्त (उत्स्नाय) उत्तम समाधिस्नान कर (रयिम्) धनको (प्रतस्थुः) प्रस्थित करते फिरते (ते) वे दुःख को छोड़ते वह सबको सेवने योग्य है ॥५॥
भावार्थ
जो जगदीश्वर जगत् का रचने वा पालना करने वा हननेवाला और मुक्ति में शुद्धाचरण करनेवालों को दुःख से पार करनेवाला है, जो इस शुद्ध ईश्वर में समाधि से न्हाय (स्नानकर) के पवित्र होते हैं, वे सब जगत् में सब जगह प्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं ॥५॥
विषय
क्रोध-वेग-निरोध
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु (ईम्) = निश्चय से (महीम्) = इस प्रबल (धुनिम्) = कम्पित करनेवाले क्रोधरूप शत्रु को (एतो: अरम्णात्) = गति से रोकते हैं, अर्थात् क्रोध को भड़कने नहीं देते। क्रोध आए भी तो प्रभुस्मरण से उसका वेग रुक जाता है। स्तोता क्रोध में बह नहीं जाता। (सः) = वे प्रभु (अस्नातॄन्) = क्रोधनदी में न स्नान करनेवालों को, अर्थात् क्रोध में न बह जानेवालों को स्(वस्ति अपारयत्) = कल्याण से पार लगा देते हैं। क्रोध न करनेवाले अन्ततः इन वासनाओं से ऊपर कल्याण को प्राप्त करते हैं। २. (ते) = वे (उत्स्नाय) = इस क्रोधनदी से पार होकर (रयिम् अभिप्रतस्थुः) = ये वास्तविक ऐश्वर्य की ओर चलते हैं। क्रोध से ऊपर उठकर ही शान्ति को मनुष्य प्राप्त करता है। जीवन का सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्य 'मानस शान्ति' ही है । (ता) = इन कार्यों को (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (सोमस्य मदे) = सोम का उल्लास होने पर चकार करते हैं। हम सोमरक्षण करेंगे, तभी क्रोध आदि को जीत पाएँगे।
भावार्थ
भावार्थ- क्रोध के वेग को रोककर ही हम शान्तिरूप ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं ।
विषय
परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( सः ) वह परमेश्वर ( धुनिम् ) चलने वाले जल और ( धुनिम् महीम् ) चलने वाली इस बड़ी भारी पृथ्वी को भी ( एतोः ) बराबर चलते रहने के लिये ( अरम्णात् ) प्रहार करता है। उसको गति देता रहता है । और (सः) वह ( ईम् ) इस (महीम् धुनिम्) बड़ी भारी नदी के समान बराबर चलने वाले प्रवाह से अनादि संसार या तृष्णा रूप नदी को ( एतो ) पार होने के लिये ( अरम्णात् ) इस नदी का नाश कर देता है। उसकी सत्ता को नष्ट कर देता है और साथ ही ( अस्नातॄन् ) उस भोग तृष्णा से पूर्ण नदी में स्नान न करने वालों, उसमें न डूबने वालों या, उसमें मज्जन न करने वालों को (स्वस्ति) बड़े कल्याण और सुख के साथ ( अपारयत् ) पार कर देता है । (ते) वे (उत् स्नाय) उस नदी से पार निकल कर ( रयिम् ) महान् ऐश्वर्य को (प्रतस्थुः) लक्ष्य करके आगे बढ़ते हैं । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु (ता) ये सब कार्य ( सोमस्य ) संसार के दमन में या अपने महान् उत्पादक सामर्थ्य के सर्वातिशायी होने के कारण ( चकार ) करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १ भुरिक् पङ्क्तिः । ७ स्वराट् पङ्क्तिः । २, ४, ५, ६, १, १० त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् । पञ्च दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वर सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता व हन्ता आहे. मुक्तीमध्ये तो शुभाचरण करणाऱ्यांना दुःखातून पार पाडणारा आहे. जे या शुद्ध ईश्वरात समाधीमध्ये न्हाऊन पवित्र होतात ते या जगात सर्व स्थानी प्रतिष्ठा प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He gives motion to the waters, and the earth, in fact to all things on the move, and he controls, stabilizes, arrests and ultimately stills that movement to rest. He helps the uninitiates to move and cross the seas for their good, and they rise and, having bathed in the waters, abide in the wealth of divine bliss. Indra does all these in the ecstasy of creation for the joy of his creation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of sun scholar and God is further detailed below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The water and this moving earth are in the middle of worlds. O men! the great God keeps their movement under His safety and ultimately takes it across. He does it for the accomplishment of His desire (vide, the editorial note in the previous third mantra). Those learned persons who sincerely pray to God and act accordance with His dictates and earn this wealth, they become free from all sorrows and distresses.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God is the creator and destructor of universe. He also carries across the people performing the noble deeds and striving for salvation. God ends their miseries because they take full dip in His worship. They are respected everywhere.
Foot Notes
(स:) सूर्यइव परमेश्वरः । = God is shining like sun. ( ईम्) जलम् । = Water. (अरम्णात् ) हन्ति | = Kills. (धुनिम्) चलिताम् । = Moving. (अस्नातून्) अस्नातकान् । = Those who have not taken dip into His love. (उत्स्नाय) स्नानं कृत्वा = After taking a dip in divine love. (तस्थुः ) पतिष्ठन्ते = Stay in.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal