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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - रुद्रः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्तु॒हि श्रु॒तं ग॑र्त॒सदं॒ युवा॑नं मृ॒गं न भी॒ममु॑पह॒त्नुमु॒ग्रम्। मृ॒ळा ज॑रि॒त्रे रु॑द्र॒ स्तवा॑नो॒ऽन्यं ते॑ अ॒स्मन्नि व॑पन्तु॒ सेनाः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒हि । श्रु॒तम् । ग॒र्त॒ऽसद॑म् । युवा॑नम् । मृ॒गम् । न । भी॒मम् । उ॒प॒ऽह॒त्नुम् । उ॒ग्रम् । मृ॒ळ । ज॒रि॒त्रे । रु॒द्र॒ । स्तवा॑नः । अ॒न्यम् । ते॒ । अ॒स्मत् । नि । व॒प॒न्तु॒ । सेनाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहत्नुमुग्रम्। मृळा जरित्रे रुद्र स्तवानोऽन्यं ते अस्मन्नि वपन्तु सेनाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुहि। श्रुतम्। गर्तऽसदम्। युवानम्। मृगम्। न। भीमम्। उपऽहत्नुम्। उग्रम्। मृळ। जरित्रे। रुद्र। स्तवानः। अन्यम्। ते। अस्मत्। नि। वपन्तु। सेनाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे रुद्र सेनेश त्वं मृगं न भीमं श्रुतं गर्त्तसदमुपहत्नुमुग्रं युवानं स्तुहि जरित्रे मृळ स्तवानः सन्नन्यं प्रशंस यतो विद्वांसोऽस्मत्ते सेना निवपन्तु ॥११॥

    पदार्थः

    (स्तुहि) (श्रुतम्) यश्श्रुतवान् तम् (गर्त्तसदम्) यो गर्त्ते गृहे सीदति तम् (युवानम्) पूर्णबलम् (मृगम्) सिंहम् (न) इव (भीमम्) भयङ्करम् (उपहत्नुम्) य उपहन्ति तम् (उग्रम्) क्रूरम् (मृळ) सुखम्। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (जरित्रे) स्तावकाय (रुद्र) अन्यायकारिणां रोदयितः (स्तवानः) स्तुवन् (अन्यम्) धर्मात्मानम् (ते) तव (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (नि) (वपन्तु) विस्तारयन्तु (सेनाः) बलानि ॥११॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये राज्यं वर्द्धितुमिच्छेयुस्ते सिंहवच्छत्रूणां भयंकराञ्छ्रेष्ठानामानन्दप्रदान् राजकार्य्ये सेनायां च सत्कृत्य नियोज्य न्यायेन राज्यं सततं पालयेयुः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषयको अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (रुद्र) अन्यायकारियों को रुलानेवाले सेनापति ! आप (मृगम्) सिंह के (न) समान (भीमम्) भयंकर (श्रुतम्) जो सुने हैं उस (गर्त्तसदम्) घर में बैठकर (उपहत्नुम्) और समीप में मारते हुए (उग्रम्) क्रूर (युवानम्) पूर्ण बलवाले पुरुष की (स्तुहि) स्तुति कर और (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (मृळ) सुखी कर (स्तवानः) स्तुति करता हुआ (अन्यम्) और धर्मात्मा की प्रशंसा कर जिससे विद्वान् (अस्मत्) मेरी उत्तेजना से (ते) तेरी (सेनाः) सेना अर्थात् बल को (नि,वपन्तु) विस्तारें ॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राज्य बढ़ाने की इच्छा करें, वे सिंह के समान शत्रुओं में भयंकर और श्रेष्ठों में आनन्द देनेवालों का राजकार्य्य और सेना में सत्कार कर और उनको आज्ञा दे न्याय से निरन्तर राज्य की पालना करे ॥११॥

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    विषय

    गर्तसद् युवा

    पदार्थ

    १. उस (श्रुतम्) = प्रसिद्ध व ज्ञानस्वरूप प्रभु का स्तुहि स्तवन करो । जो कि (गर्तसदम्) = हृदय रूप गुफा में आसीन है अथवा [गर्त = रथ] शरीररूप रथ में विद्यमान हैं। (युवानम्) = हमारे से दुर्गणों को पृथक् करनेवाले तथा सुगुणों को हमारे से मेल करनेवाले हैं। (मृगम्) = हमारा शोधन करनेवाले हैं, (न भीमम्) = हमारे लिए भयंकर नहीं । (उपहत्नुम्) = हमारे शत्रुओं का हिंसन करनेवाले हैं (उग्रम्) = तेजस्वी हैं । २. हे रुद्र हे परमात्मन् ! आप (स्तवानः) = स्तुति किये जाते हुए (जरित्रे) = स्तोता के लिए (मृडा) = सुख को करिए। स्तोता का जीवन शत्रुरूप वासनाओं के संहार से कल्याणमय हो । हे प्रभो ! (ते) = आपकी (सेनाः) = शत्रुविनाशकारिणी सेनाएँ (अस्मत् अन्यम्) = हमारे से भिन्न पुरुष को ही निवपन्तु काटनेवाली हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदयस्थ प्रभु हमारे जीवन के शोधन के लिए प्रेम से सुन्दर प्रेरणा दे रहे हैं। उस प्रभु के अस्त्र हमारे से भिन्न को ही नष्ट करनेवाले हों।

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    विषय

    रुद्र, दुष्ट-दमनकारी, पितावत् पालक राजा सेनापति और विद्वान् आचार्य, के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! तू ( गर्त्तसदं ) रथ पर विराजने वाले ( श्रुतं ) प्रसिद्ध, और ज्ञानवान् ( युवानं ) युवा, बलवान् ( मृगं न भीमं ) सिंह के समान शत्रुओं में भय उत्पन्न करने वाले, ( उग्रम् ) घोर बलवान्, (उपहत्नु) शत्रुनाशक पुरुष की (स्तुहि) स्तुति कर, हे ( रुद्र ) दुष्टों के रुलाने वाले ! तू ( जरित्रे ) स्तुतिशील, विद्वान् पुरुष को सदा ( मृड ) सुखी कर । ( ते सेनाः ) तेरे सैन्य (अन्यं ) दूसरे शत्रु जन को ( अस्मत् ) हम से दूर ही ( निवपन्तु ) छिन्न भिन्न करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राज्य वाढविण्याची इच्छा करतात त्यांनी शत्रूंबरोबर सिंहासारखे भयंकर रीतीने वागावे व श्रेष्ठांना आनंद देणाऱ्या लोकांचा राजकार्यात व सेनेमध्ये सत्कार करावा व न्यायाने निरंतर राज्याचे पालन करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Rudra, scourge of the evil and the wicked, praise and cherish the eminent young man of action seated in the war chariot, fearful as a tiger, destroyer of enemies and illustrious of merit. Be kind and gracious to the admirer and worshipper who sings in praise of you. And let your forces throw off from us the others who are ungrateful and negative.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The functions and duties of the State officials are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of army ! you break the nerves of unsocial elements and roar like a lion from your seat at your place. You should always praise and speak highly of a powerful person who is cruel to marauders. Make such people happy who present good gestures to you and other pious persons. Let your army or military power expand well with my persuasions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    While seeking to expand one's kingdom the ruler should give due recognition to those who are ferocious and frightening and to those who give delight to noble persons. They should have good positions in the civil and army, and their orders should be carried out in the kingdom.

    Foot Notes

    (मुगम् न) सिंहम् इव । = Like a lion. (मूल) सुखय। अत्र द्वयवोऽतस्विङ इति दीर्घ:व = Make happy. (अन्यम् ) धर्मात्मानम् । = To the pious. ( वपन्तु ) विस्तारयन्तु । = Expand.

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