ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - सविता
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒माव॑वर्ति॒ विष्ठि॑तो जिगी॒षुर्विश्वे॑षां॒ काम॒श्चर॑ताम॒माभू॑त्। शश्वाँ॒ अपो॒ विकृ॑तं हि॒त्व्यागा॒दनु॑ व्र॒तं स॑वि॒तुर्दैव्य॑स्य॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽआव॑वर्ति । विऽस्थि॑तः । जि॒गी॒षुः । विश्वे॑षाम् । कामः॑ । चर॑ताम् । अ॒मा । अ॒भू॒त् । शश्वा॑न् । अपः॑ । विऽकृ॑तम् । हि॒त्वी । आ । अ॒गा॒त् । अनु॑ । व्र॒तम् । स॒वि॒तुः । दैव्य॑स्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वेषां कामश्चरताममाभूत्। शश्वाँ अपो विकृतं हित्व्यागादनु व्रतं सवितुर्दैव्यस्य॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽआववर्ति। विऽस्थितः। जिगीषुः। विश्वेषाम्। कामः। चरताम्। अमा। अभूत्। शश्वान्। अपः। विऽकृतम्। हित्वी। आ। अगात्। अनु। व्रतम्। सवितुः। दैव्यस्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
अन्वयः
यो विष्ठितो विश्वेषां चरतां सुखस्य कामः शश्वान् जिगीषुरभूद्योमा गृहे समाववर्त्ति विकृतमपो हित्वी दैव्यस्य सवितुर्व्रतमन्वगात्स सुखमप्याप्नोति ॥६॥
पदार्थः
(समाववर्त्ति) सम्यगववर्त्यते (विष्ठितः) विशेषेण स्थितः (जिगीषुः) जयशीलः (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (कामः) कमिता (चरताम्) प्राणभृताम् (अमा) गृहम् (अभूत्) भवति (शश्वान्) शीघ्रगतिमान्। शश प्लुतगताविति धातोः क्विबन्तान्मतुप्। (अपः) कर्म (विकृतम्) प्राप्तविकारम् (हित्वी) हित्वा। अत्र स्नात्व्यादयश्चेति निपातनादीत्वम्। (आ) (अगात्) (अनु) (व्रतम्) नियमम् (सवितुः) जगदुत्पादकस्य (दैव्यस्य) देवैर्विद्वद्भिर्लब्धस्य जगदीश्वरस्य ॥६॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सर्वेषु प्राणिषु सुखदुःखव्यवहारे समदर्शिनः परमेश्वस्योपदेशादविरोधिनः पापाचरणं विहाय निश्चितं धर्ममाचरन्ति ते शाश्वतं सुखं लभन्ते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (विष्ठितः) विशेषता से स्थित दृढ़ (विश्वेषाम्) समस्त (चरताम्) प्राण धारनेवालों के सुख की (कामः) कामना करने वा (शश्वान्) शीघ्र चलने और (जिगीषुः) जीतने का शील रखनेवाला (अभूत्) होता है वा जो (अमा) घर में (समाववर्त्ति) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है (विकृतम्) विकार को प्राप्त हुए (अपः) कर्म को (हित्वी) छोड़ के (दैव्यस्य) विद्वानों से पाये हुए (सवितुः) संसार को उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर के (व्रतम्) नियम को (अनु,आ,अगात्) अनुकूलता से प्राप्त होता वह सुख को भी प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य सब प्राणियों में सुख-दुःख के व्यवहार में समदर्शी परमेश्वर के उपदेश से विरोध न करनेवाले और पापाचरण को छोड़ निश्चित धर्माचरण को करते हैं, वे निरन्तर सुख को प्राप्त होते हैं ॥६॥
विषय
चार आश्रम
पदार्थ
१. आचार्यकुल में (विष्ठितः) = विशिष्टरूप से स्थित हुआ हुआ (जिगीषुः) = सब वासनाओं को जीतने की कामनावाला यह ब्रह्मचारी अध्ययन पूर्ण करके (समाववर्ति) = आज समावृत्त होता है। जीवन के प्रथम प्रयाण में ब्रह्मचारी आचार्यगर्भ में स्थित होता है 'आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः'। आचार्य इसके जीवन की रक्षा करता है उसे किन्हीं भी विषयों का शिकार नहीं होने देता। यहाँ आचार्यकुल में यह सब ज्ञानों का विजय करता है। ज्ञानप्राप्ति के अनन्तर ही यह आचार्यकुल से लौटता है। २. (चरताम्) = इन ज्ञान का भक्षण करनेवाले (विश्वेषाम्) = सब दीक्षित ब्रह्मचारियों की (कामः) = इच्छा (अमा) = घर के विषय में अभूत् होती है, अर्थात् समावृत्त होने के बाद अब ये गृहस्थ बनते हैं। गृहस्थ को सुन्दरता से निभाने के लिए यत्नशील होते हैं। परन्तु गृहस्थ में कुछ-न-कुछ रागद्वेष हो ही जाता है। इस आश्रम को इसी कारण 'मलाश्रम' यह नाम ही हो गया है। यहाँ कुछ अनृत का प्रवेश हो जाता है 'सत्यानृतं तु वाणिज्यम्' । ३. यथासम्भव उत्तमता से गृहस्थ को निभाकर अब यह (शश्वान्) = आज तक गृहस्थ के कर्मों में रत पुरुष [शश प्लुतगतौ] (विकृतं अपः) = इन विकारवाले कर्मों को (हित्वी) = छोड़कर (अयात्) = फिर से वन में आ जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम में यह शहरों से दूर वनों में था। वहाँ से गृह में आया था। आज फिर वहीं लौटता है—वानप्रस्थ बनता है । ४. यहाँ वन में साधना को पूरा करके उस (दैव्यस्य) = [देवस्य अयं] प्रभु के प्रकाश को दिखानेवाले (सवितुः) = सूर्य के (व्रतम् अनु) = व्रत के अनुसार यह भी अपने जीवन व्रत को ग्रहण करता है। संन्यस्त होकर परिव्राजक बनता है और चारों ओर प्रकाश को फैलाता हुआ अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता है। यही मानवजीवन का उत्कर्ष है।
भावार्थ
भावार्थ – ब्रह्मचर्याश्रम में आचार्य के समीप ठहर कर ज्ञान प्राप्त करना है। अब समावृत्त होकर सुन्दर घर बनाना है। घर के कार्यों से निवृत्त होने पर वनस्थ होकर साधना सम्पन्न बनकर संन्यास में सूर्य की तरह प्रकाश को फैलाते हुए आगे बढ़ना है ।
विषय
विजिगीषुवत् समावर्त्तन करके लौटते स्नातक का वर्णन ।
भावार्थ
विद्वान् पुरुष ( जिगीषुः ) संसार के विषम मार्गों पर विजय करने की इच्छा करता हुआ एक दिग्विजय के इच्छुक वीर राजा के समान ( विष्ठितः ) विशेष मानआदरपूर्वक स्थित होकर ( सम् आववर्त्ति ) शिक्षा प्राप्त करके समावर्त्तन द्वारा लौट आता है वह ( विश्वेषां ) समस्त ( चरतां ) विचरने वाले प्राणियों और सेवकादि के भी ( कामः ) कामना करने योग्य सबकी इच्छा प्रेम का पात्र होकर ( अमा ) घर में ( अभूत् ) आकर रहे। वह ( शश्वान् ) नित्य नियम पूर्वक कार्य करने हारा होकर ( विकृतं हिरवी ) विरुद्ध, धर्म के विपरीत, असत् ( अपः ) कर्म और ज्ञान को बिगड़े जल के समान त्याग कर ( दैव्यस्य ) प्रकाश रूप में स्थित तेजस्वी ( सवितुः ) सूर्य के ( व्रतम् ) कर्म को ( अनु आ ) अनुकरण करे । अर्थात् जिस प्रकार तेजस्वी सूर्य, विजयी के समान प्रति दिन लौट आता है, सब प्राणी का आश्रय और इच्छा का पात्र होता है नित्य नियमपूर्वक आता है और विकृत, मलिन जल को त्यागकर स्वच्छ सूक्ष्म जल लेता है उसी प्रकार विद्वान् भी समावृत्त होकर सबको प्रिय, नियम से रहने वाला, विपरीत अनाचारों को त्यागकर सूर्य के कर्म का अनुकरण करे । अथवा—( दैव्यस्य सवितुः ) देव विद्वानों से प्राप्य सर्वोत्पादक परमेश्वर के उपदिष्ट व्रत का या ज्ञान में उत्पादक आचार्य के बताये व्रत का अनुगमन करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ सविता देवता ॥ छन्दः– १, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् ३, ४, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७,८ स्वराट् पङ्क्तिः ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एका दशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सर्व प्राण्यात सुख-दुःख समान पाहणारी असतात, परमेश्वराच्या उपदेशाचा विरोध न करणारी असतात व पापाचरण सोडून निश्चित धर्माचरण करणारी असतात त्यांना शाश्वत सुख मिळते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Happy is the man who is well settled in the home, prays for the well-being of all living beings and is fast and eager to win the battles of life. Such a man shuns all crooked ways of living and keeps to the pious ways of living in accordance with the laws and discipline of the brilliant and generous lord Savita, creator and ruler of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the enlightened persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That man enjoys happiness who firmly discharges his duties with regard to conqueroring (of all internal and external) foes. Such a person desires the welfare of all animate beings and being active deals with all lovingly at home, sticks to his commitments, or commandments of the Lord and Creator of the world. It is attained by the enlightened persons who given up all vicious acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only enjoy abiding happiness who do not discriminate among who look upon all beings on earth and treat equally in all their matters of happiness and miseries as his own, and never trans gress the teachings of God (as contained in the Vedas). They observe with certainty the rules of righteousness, giving up all sinful acts.
Foot Notes
(शश्वान् ) शीघ्रगतिमान् । शशप्लुतगताविति धातो: विववन्तान्मतुप् = Active going swiftly to discharge his duties. (देव्यस्य) देवविद्वद् भिर्लब्धस्य जगदीश्वरस्य । विद्वांसो हि देवाः ( Stph. 3, 7, 2, 10) = Of God attained by the enlightened persons.
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