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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इळा॑म् । अ॒ग्ने॒ । पु॒रु॒ऽदंस॑म् । स॒निम् । गोः । श॒श्व॒त्ऽत॒मम् । हव॑मानाय । सा॒ध॒ । स्यात् । नः॒ । सू॒नुः । तन॑यः । वि॒जाऽवा॑ । अ॒ग्ने॒ । सा । ते॒ । सु॒ऽम॒तिः । भू॒तु॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इळामग्ने पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं हवमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इळाम्। अग्ने। पुरुऽदंसम्। सनिम्। गोः। शश्वत्ऽतमम्। हवमानाय। साध। स्यात्। नः। सूनुः। तनयः। विजाऽवा। अग्ने। सा। ते। सुऽमतिः। भूतु। अस्मे इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं हवमानाय शश्वत्तमं पुरुदंसमिळां गोः सनिमैश्वर्यं साध येन नः सूनुः तनयः विजावा स्यात्। हे अग्ने या ते सुमतिरस्ति सास्मे भूतु ॥७॥

    पदार्थः

    (इळाम्) सुशिक्षितां वाचम् (अग्ने) पावक इव विद्याप्रकाशक (पुरुदंसम्) पुरूणि बहूनि दंसांसि धर्म्याणि कर्माणि यस्य तम् (सनिम्) न्यायेन सत्याऽसत्यविभाजकम् (गोः) पृथिव्या मध्ये (शश्वत्तमम्) अनादिभूतम् (हवमानाय) प्रशंसमानाय (साध) साध्नुहि (स्यात्) भवेत् (नः) अस्माकम् (सूनुः) सन्तानः (तनयः) धार्मिकः पुत्रः (विजावा) विजयशीलः। अत्र जि धातोरौणादिको वन् प्रत्ययो बाहुलकादाकारादेशश्च। (अग्ने) विद्वन् (सा) (ते) तव (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मासु ॥७॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्जिज्ञासुभ्यो विद्यां सुशिक्षां धर्मानुष्ठानमैश्वर्यञ्च साधनीयं यथा सर्वेषां कुमाराः कुमार्यश्चोत्तमाः स्युस्तथा प्रयत्नोऽनुविधेयः सर्वतो विद्यां गृहीत्वा सर्वेभ्यो देया इति ॥७॥ अत्र विद्वदध्यापकाऽध्येत्रग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चदशं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्याप्रकाशकारक विद्वन् ! आप (हवमानाय) प्रशंसाकर्ता के लिये (शश्वत्तमम्) अनादि से उत्पन्न (पुरुदंसम्) अत्यन्त धर्मसहित कर्मयुक्त (इळाम्) उत्तम शिक्षायुक्त वाणी को (गोः) पृथिवी के मध्य में (सनिम्) न्याय से सत्य और असत्य के विभागकारक ऐश्वर्य को (साध) सिद्ध करिये जिससे (नः) हम लोगों का (सूनुः) सन्तान (तनयः) धार्मिक पुत्र (विजावा) विजयशील (स्यात्) हो। हे (अग्ने) विद्वन् ! जो (ते) आपकी (सुमतिः) उत्तम बुद्धि है (सा) वह (अस्मे) हम लोगों के लिये (भूतु) होवे ॥७॥

    भावार्थ

    विद्वानों को चाहिये कि जिज्ञासु जनों के लिये विद्या उत्तमशिक्षा धर्मानुष्ठान तथा ऐश्वर्यवृद्धि सिद्ध करें और जैसे कि सम्पूर्ण मनुष्यों के लड़के लड़कियाँ उत्तम कर्मयुक्त तथा सबके सन्तान विद्या बल युक्त होवें, ऐसा प्रयत्न करें अर्थात् सब स्थान से विद्या ग्रहण करके सबको देवें ॥७॥ इस सूक्त में विद्वान् अध्यापक अध्येता और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'विजावा तनयः' सूनुः

    पदार्थ

    ३.६.११ पर अर्थ द्रष्टव्य है । सम्पूर्ण सूक्त 'द्वेष, राक्षसीभाव व रोगों' से ऊपर उठने पर बल देता है। अगले सूक्त में भी ‘सुवीर्य' द्वारा जीवन उत्तम बनाने के लिए प्रार्थना है-

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    विषय

    विजिगीषु के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो (म०३। सू०७ म०११) इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कील कात्य ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः– १, ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांनी जिज्ञासू लोकांसाठी विद्या, उत्तम शिक्षण, धर्मानुष्ठान, ऐश्वर्यसिद्धी करावी. सर्वांच्या मुलांमुलींनी उत्तम कार्य करावे, विद्याबलयुक्त व्हावे असा प्रयत्न करावा व सर्वांना विद्या द्यावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, wealth and vitality of existence, master of science and divinity, bless the celebrant yajaka with that divine speech and vision, and that abundant share of earthly prosperity which is versatile and of eternal value. Make that possible for us so that we may be blest with youthful and victorious generations of children and grand children and we may ever enjoy the favour of your benign eye and gracious disposition.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of enlightened are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O illuminator of knowledge! you are like the fire. Grant to the admirer of noble virtues perpetual wealth which leads to many right and noble deeds and which discriminates well between truth and falsehood in this world, and between the condemned and refined speechs. May your gracious will be ever upon us, so that we may be blessed with children who are righteous and victorious.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons should impart true knowledge, good education, observe Dharma (righteousness) and achieve prosperity for the welfare of the seekers after truth. They should endeavor to ennoble the boys and girls of all. They should acquire knowledge from all and impart the same to all.

    Foot Notes

    (हवमानाय) प्रशन्समानाय। = For the admirer of noble virtues and persons. (तनयः ) धार्मिकः पुत्रः | = Righteous son. (विजावा) विजयशील: । अत्र जि-जये इति धातोरोणादिको वन् प्रत्ययो बाहुलकादाकारदिशाश्व। = Conqueror or victorious.

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