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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    न॒म॒स्यत॑ ह॒व्यदा॑तिं स्वध्व॒रं दु॑व॒स्यत॒ दम्यं॑ जा॒तवे॑दसम्। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ बृह॒तो विच॑र्षणिर॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पु॒रोहि॑तः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒म॒स्यत॑ । ह॒व्यऽदा॑तिम् । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । दु॒व॒स्यत॑ । दभ्य॑म् । जा॒तऽवे॑दसम् । र॒थीः । ऋ॒तस्य॑ । बृ॒ह॒तः । विऽच॑र्षणिः । अ॒ग्निः । दे॒वाना॑म् । अ॒भ॒व॒त् । पु॒रःऽहि॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्यत हव्यदातिं स्वध्वरं दुवस्यत दम्यं जातवेदसम्। रथीर्ऋतस्य बृहतो विचर्षणिरग्निर्देवानामभवत्पुरोहितः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नमस्यत। हव्यऽदातिम्। सुऽअध्वरम्। दुवस्यत। दम्यम्। जातऽवेदसम्। रथीः। ऋतस्य। बृहतः। विऽचर्षणिः। अग्निः। देवानाम्। अभवत्। पुरःऽहितः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यो रथीर्ऋतस्य बृहतो विचर्षणिर्देवानां पुरोहितोऽग्निरभवत्तं हव्यदातिं स्वध्वरं दम्यं जातवेदसं नमस्यत दुवस्यत च ॥८॥

    पदार्थः

    (नमस्यत) (हव्यदातिम्) हव्यानां दातिर्दानं येन तम् (स्वध्वरम्) शोभनोऽध्वरो यस्मात्तम् (दुवस्यत) सेवध्वम् (दम्यम्) दातुं शीलम् (जातवेदसम्) जातेषु विद्यमानम् (रथीः) प्रशस्तरथवान् (ऋतस्य) सत्यस्य (बृहतः) महतः कार्यस्य (विचर्षणिः) पश्यकः (अग्निः) पावकः (देवानाम्) विदुषाम् (अभवत्) भवति (पुरोहितः) पुर एनं दधति सः ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यो बृहद्विद्योऽहिंसको जितेन्द्रियः प्रशंसितो विदुषां मध्ये विद्वान् भवेत् स एव युष्माभिर्नमस्करणीयः सेवनीयश्च स्यात् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जो (रथीः) प्रशंसित रथवान् (ऋतस्य) सत्य (बृहतः) बड़े कार्य का (विचर्षणिः) देखनेवाला (देवानाम्) विद्वानों का (पुरोहितः) पहिले जिसको धारण करते (अग्निः) पवित्र करनेवाला (अभवत्) होता है और (हव्यदातिम्) होमने योग्य पदार्थों का देनेवाला (स्वध्वरम्) जिससे कि सुन्दर यज्ञ होता उस (दम्यम्) दानशील (जातवेदसम्) और उत्पन्न हुए पदार्थों से विद्यमान विद्वान् को (नमस्यत) नमस्कार करो और उसकी (दुवस्यत) सेवा करो ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो बहुत विद्यावाला अहिंसक, जितेन्द्रिय, विद्वानों के बीच विद्वान् हो, वही तुम लोगों को नमस्कार करने और सेवने योग्य भी हो ॥८॥

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    विषय

    वह महान् पुरोहित

    पदार्थ

    [१] (हव्यदातिम्) = सब हव्य पदार्थों के देनेवाले, (स्वध्वरम्) = उत्तम यज्ञोंवाले प्रभु को (नमस्यत) = प्रातः-सायं नमन करनेवाले बनो। प्रभु सब उत्कृष्ट पदार्थों को हमें प्राप्त कराते हैं। सब आवश्यक हव्यों को प्राप्त कराके वे हमारे सब यज्ञों को पूर्ण किया करते हैं। (दम्यम्) = [दमेभ्यो हितं] सब गृहों के लिये हितकर (जातवेदसम्) = उस सर्वज्ञ व सब धनोंवाले प्रभु को (दुवस्यत) = तुम पूजो। जिस घर में प्रभु-पूजन सम्मिलित रूप से होता रहता है, वह घर उत्तम वृत्तिवाला बनकर सदा ठीक बना रहता है और किसी प्रकार के आवश्यक धन की कमी नहीं रहती। [२] वे प्रभु, जिनका नमन व पूजन हमें गृहों में करना है, (बृहतः ऋतस्य) = महान् ऋत के (रथी:) = प्रणेता हैं। प्रभु के शासन में प्रत्येक प्राकृतिक पिण्ड व लोक बड़ी नियमित गति से चल रहा है। प्रकृति के इन नियमों को ही 'ऋत' कहते हैं। अनन्त लोक-लोकान्तर इस ऋत के अनुसार अपने-अपने मार्ग पर चल रहे हैं। (विचर्षणिः) = वे प्रभु विशेषरूप से हमारे ब्रह्माण्ड के द्रष्टा हैं, अध्यक्ष हैं, प्रभु की अध्यक्षता में यह सारा ब्रह्माण्ड यन्त्र घूम रहा है। (अग्निः) = वे ही अग्रणी हैं, सबको आगे ले चल रहे हैं। [३] (देवानां पुरोहितः अभवत्) = देवों के वे पुरोहित हैं। देववृत्ति के लोगों के लिये वे आदर्श के रूप में हैं। उनके सामने [पुर:] विद्यमान हैं [हितः] । प्रभु को देखकर देव भी वैसा बनने का प्रयत्न करते हैं। प्रभु अनन्त दयालु हैं, ये भी दया को अपनाते हैं। प्रभु न्यायकारी हैं, ये भी न्याय को अपनाने के लिये यत्नशील होते हैं। इस प्रकार ये देव भी परमात्मा के गुणों को धारण करने का प्रयत्न करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का हम उपासन करें, प्रभु जैसा बनने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (हव्यदातिं) ग्रहण करने और खाने योग्य अन्नों को देने वाले (सु-अध्वरं) उत्तम पालक, और अहिंसक स्वामी को (नमस्यत) सदा आदर से नमस्कार करो। और (दम्यं) दानशील, दमन करने में योग्य, समर्थ और सब गृहों, गृहस्थित प्रजाजनों के हितकर, (जातवेदसम्) ज्ञानवान् और ऐश्वर्यवान् की (दुवस्यत) सेवा परिचर्या करो । वह (रथी:) उत्तम महारथी, (वृहतः) बड़े भारी राष्ट्र और (ऋतस्य) कार्य व्यवहार एवं सत्य ज्ञान और न्याय का (विचर्षणिः) देखने हारा (अग्निः) स्वयं अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानी, (देवानां) सब दानशील एवं तेजस्वी पुरुषों में (पुरः हितः) सबसे आगे अध्यक्ष रूप से स्थापित करने योग्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो विद्यावान, अहिंसक, जितेन्द्रिय, विद्वानांमध्ये विद्वान असेल त्यालाच तुम्ही वंदनीय व आदरणीय समजा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Offer salutations and service in homage to Agni. Creator of food for yajna and enjoyment, leader of yajna to success, supreme giver, knower of all that is born, omnipresent lord ever on the move, watching and superintending the universal operation of law and yajna, Agni is the foremost high-priest of the dynamics of Divinity working through the forces of nature.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a highly learned person.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons! revere and serve him who is the master of good chariot or body and is the observer and seer of great truth. He is also the leader of the enlightened persons, and is the liberal giver of acceptable knowledge and articles, He is performer of good Yajnas and he gives knowledge of all that exists.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! great scholars should be revered and served by you who is non-violent man of self abnegation and highly admired in the circle of the enlightened persons.

    Foot Notes

    (दम्यम्) दातुं शीलम् । = Liberal donor. (ऋतस्य) सत्यस्य । ऋतमिति सत्यनाम ( NG. 3, 10) = Of truth. (त्रिचर्षणिः) पश्यकः । विचर्षणिः पश्यतिकर्मा (NG. 3, 11 ) = Seer. ( पुरोहितः) पुर एनं दधति सः । = Leader. In this mantra we find the following epithets used for Agni. वृहतः ऋतस्य विचर्षण्य: रथी: जातवेदाः, देवानां पुरोहितः । Even to the interpretation of Shri Sayanacharya, Prof. Wilson and Griffith clearly point out that here Agni is a conscious being who is to be worshipped and served and not an inanimate element like the material fire.

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