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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अग्ने॑ तृ॒तीये॒ सव॑ने॒ हि कानि॑षः पुरो॒ळाशं॑ सहसः सून॒वाहु॑तम्। अथा॑ दे॒वेष्व॑ध्व॒रं वि॑प॒न्यया॒ धा रत्न॑वन्तम॒मृते॑षु॒ जागृ॑विम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । तृ॒तीये॑ । सव॑ने । हि । कानि॑षः । पुरो॒ळाश॑म् । स॒ह॒सः॒ । सू॒नो॒ इति॑ । आऽहु॑तम् । अथ॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒ध्व॒रम् । वि॒प॒न्यया॑ । धाः । रत्न॑ऽवन्तम् । अ॒मृते॑षु । जागृ॑विम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने तृतीये सवने हि कानिषः पुरोळाशं सहसः सूनवाहुतम्। अथा देवेष्वध्वरं विपन्यया धा रत्नवन्तममृतेषु जागृविम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। तृतीये। सवने। हि। कानिषः। पुरोळाशम्। सहसः। सूनो इति। आऽहुतम्। अथ। देवेषु। अध्वरम्। विपन्यया। धाः। रत्नऽवन्तम्। अमृतेषु। जागृविम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे कानिषः सहसः सूनोऽग्ने त्वं हि विपन्यया तृतीये सवनेऽथ देवेष्वमृतेषु जागृविं रत्नवन्तमाहुतमध्वरं पुरोडाशं च धाः ॥५॥

    पदार्थः

    (अग्ने) विद्युदिव बलिष्ठ (तृतीये) (सवने) (हि) यतः (कानिषः) कमनीयस्य (पुरोडाशम्) रोगनिवारकमन्नम् (सहसः) बलवतः (सूनो) अपत्य (आहुतम्) समन्तात्स्वीकृतम् (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणेषु वा (अध्वरम्) अहिंसादिलक्षणं धर्म्यं व्यवहारम् (विपन्यया) विशेषेण स्तुतया प्रशंसितया प्रज्ञया क्रियवा वा (धाः) धेहि (रत्नवन्तम्) बहूनि रत्नानि विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (अमृतेषु) नाशरहितेषु जगदीश्वरादिषु पदार्थेषु (जागृविम्) जागरूकम् ॥५॥

    भावार्थः

    ये परमेश्वरादीनां पदार्थानां विज्ञानेनाहिंसादिलक्षणे व्यवहारे वर्त्तित्वा युक्ताहारविहाराः सन्त ऐश्वर्य्यमुन्निनीषन्ति ते सर्वतः सुखिनो जायन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (कानिषः) कामना करने योग्य (सहसः) बलयुक्त के (सूनो) पुत्र (अग्ने) बिजुली के सदृश बलयुक्त ! आप (हि) जैसे (विपन्यया) विशेष करके स्तुतियुक्त प्रशंसा सहित बुद्धि वा क्रिया से (तृतीये) तीसरे समय के (सवने) होम आदि कर्म में (अथ) और (देवेषु) विद्वान् वा उत्तम गुणों में (अमृतेषु) नाशरहित जगदीश्वर आदि पदार्थों में (जागृविम्) जागनेवाले (रत्नवन्तम्) बहुत रत्नों से विशिष्ट (आहुतम्) सब प्रकार स्वीकार किये गये (अध्वरम्) अहिंसा आदि स्वरूप धर्मयुक्त व्यवहार और (पुरोडाशम्) रोग के दूर करनेवाले अन्न को (धाः) धारण करो ॥५॥

    भावार्थ

    जो लोग परमेश्वर आदि पदार्थों के विज्ञान से अहिंसा आदि व्यवहार में वर्त्तमान नियमपूर्वक भोजन विहारयुक्त होकर ऐश्वर्य्य की वृद्धि करने की इच्छा करते हैं, वे सब प्रकार सुखी होते हैं ॥५॥

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    विषय

    ज्ञान+यज्ञ

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! हे (सहसः सूनो) = शक्ति के पुञ्ज प्रभो! आप इस (आहुतम्) = सब लोक-लोकान्तरों में दिये गये (पुरोडाशम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में दिये गये वेदज्ञान को (तृतीये सवने) = जीवन के तृतीय सवन में भी ६९ से ११६ वर्ष तक के जीवन के सायन्तन-सवन में भी (हि) = निश्चयपूर्वक (कानिषः) = दीप्त करिए, अर्थात् हम गृहस्थ से ऊपर उठकर वानप्रस्थ व संन्यास में भी इस वेदज्ञान को उपेक्षित न करें। [२] (अथा) = अब इस वेदज्ञान के साथ (देवेषु) = देववृत्ति के व्यक्तियों में (विपन्यया) = विशिष्ट स्तुति के साथ (अध्वरम्) = यज्ञ को (धाः) = धारण करिए । उस यज्ञ को धारण करिए, जो कि (रत्नवन्तम्) = रत्नोंवाला है-सब रमणीय वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है 'एष वो स्विष्टकामधुक्' । उस यज्ञ को धारण करिए जो कि (अमृतेषु जागृविम्) = देवों मेंसंसार के विषयों के पीछे न मरनेवाले मनुष्यों में सदा जागता है। वैषयिक पुरुष ही यज्ञ को छोड़ बैठते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जीवन के तृतीय सवन में भी, अर्थात् ६९ से ११६ वर्ष तक भी ज्ञान व यज्ञ को अपनानेवाले हों ।

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    विषय

    माध्यन्दिन सवन का भाव।

    भावार्थ

    हे (सहसः सूनो) बल के प्रेरक, वीर्य के उत्पादक ! एवं बलवान् पुरुष के पुत्र एवं शिष्य ! (अग्ने) विद्वन् ! तेजस्विन्! तू (आहुतम्) आहुति किये अन्न के समान ही आदरपूर्वक प्रदान किये हुए (पुरोडाशं) आगे रखे हुए अन्नादि पदार्थ को (तृतीये सवने हि) तृतीय, सर्वश्रेष्ठ सवन-काल में भी (कानिषः) भली प्रकार चाह। (अथ) और (अमृतेषु) दीर्घायु चिरंजीव (देवेषु) विद्या की कामना करने वाले शिष्य जनों में (विपन्यया) विविध प्रकार से उपदेश करने योग्य वाणी द्वारा (रत्नवन्तम्) उत्तम ज्ञान से युक्त (जागृवि) सदा जागरणशील, सदा सावधान शिष्य को (अध्वरम्) यज्ञ के समान कभी नष्ट न होने वाला वा अहिंसादि व्रतनिष्ठ बनाकर (धाः) धारण कर उसको पाल, पुष्ट कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ गायत्री। २, ६ निचृद्गायत्री। ३ स्वराडुष्णिक्। ४ त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक परमेश्वराच्या विज्ञानाने अहिंसा इत्यादीचे पालन करून नियमपूर्वक आहार-विहारयुक्त बनून ऐश्वर्याची वृद्धी करण्याची इच्छा बाळगतात ते सर्व प्रकारे सुखी होतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lover, inspirer and source of strength and vigour, please to accept this sacred offering of purodash in the third session of yajna and, with our sacred hymns of praise and prayer, carry this stimulating and exciting oblation and the whole yajna of love and non-violence overflowing with jewels of life, and reach it among the immortal divinities of nature and humanity.

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