ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 52/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रति॑ धा॒ना भ॑रत॒ तूय॑मस्मै पुरो॒ळाशं॑ वी॒रत॑माय नृ॒णाम्। दि॒वेदि॑वे स॒दृशी॑रिन्द्र॒ तुभ्यं॒ वर्ध॑न्तु त्वा सोम॒पेया॑य धृष्णो॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । धा॒नाः । भ॒र॒त॒ । तूय॑म् । अ॒स्मै॒ । पु॒रो॒ळाश॑म् । वी॒रऽत॑माय । नृ॒णाम् । दि॒वेऽदि॑वे । स॒ऽदृशीः॑ । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । वर्ध॑न्तु । त्वा॒ । सो॒म॒ऽपेया॑य । धृ॒ष्णो॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति धाना भरत तूयमस्मै पुरोळाशं वीरतमाय नृणाम्। दिवेदिवे सदृशीरिन्द्र तुभ्यं वर्धन्तु त्वा सोमपेयाय धृष्णो॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। धानाः। भरत। तूयम्। अस्मै। पुरोळाशम्। वीरऽतमाय। नृणाम्। दिवेऽदिवे। सऽदृशीः। इन्द्र। तुभ्यम्। वर्धन्तु। त्वा। सोमऽपेयाय। धृष्णो इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 52; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ यज्ञान्नसञ्चयनविषयमाह।
अन्वयः
हे धृष्णो इन्द्र ! याः सदृशीः सेना दिवदिवे नृणां वीरतमाय सोमपेयाय तुभ्यं वर्द्धन्तु। ये विद्वांसस्त्वा वर्द्धयन्तु ताँस्त्वं वर्धयस्व। हे विद्वांसो यूयमस्मै धानाः पुरोळाशं च तूयं प्रति भरत ॥८॥
पदार्थः
(प्रति) (धानाः) (भरत) (तूयम्) तूर्णं सुखकरम् (अस्मै) (पुरोळाशम्) (वीरतमाय) अत्युत्तमाय वीराय (नृणाम्) नायकानां मध्ये (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सदृशीः) समानस्वरूपाः सेनाः (इन्द्र) दुष्टदलविदारक (तुभ्यम्) (वर्द्धन्तु) वर्धन्ताम्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (त्वा) त्वाम् (सोमपेयाय) पेयः सोमो येन तस्मै (धृष्णो) प्रगल्भ ॥८॥
भावार्थः
सर्वे राजजनाः प्रजाजना राज्योन्नतये सर्वान् सम्भारान् सञ्चिन्वन्तु तैः सुपरीक्षिता वीरसेनाः सम्पाद्य दुष्टानां पराजयं श्रेष्ठानां विजयं कृत्वा प्रतिदिनमानन्दयितव्यमिति ॥८॥ अत्र राजप्रजायज्ञाऽन्नसंस्कारादिवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति द्वापञ्चाशत्तमं सूक्तं अष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब यज्ञ के अन्न के इकट्ठे करने के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (धृष्णो) वाणी में चतुर (इन्द्र) दुष्टों के समूह के नाश करनेवाले ! जो (सदृशीः) तुल्य स्वरूपवाली सेना (दिवेदिवे) प्रतिदिन (नृणाम्) अग्रणी पुरुषों के मध्य में (वीरतमाय) अत्यन्त श्रेष्ठ वीर पुरुष (सोमपेयाय) पान किया सोम के रस का जिसने उन आपके लिये (वर्द्धन्तु) वृद्धि को प्राप्त हों और जो विद्वान् लोग (त्वा) आपके लिये वृद्धि करें उनकी आप वृद्धि करो और हे विद्वानों ! आप लोग (अस्मै) इसके लिये (धानाः) भूँजे हुए अन्न और (पुरोळाशम्) उत्तमप्रकार संस्कारयुक्त अन्नविशेष और जो कि (तूयम्) शीघ्र सुखकारक उसको (प्रतिभरत) पूर्ण कीजिये ॥८॥
भावार्थ
सम्पूर्ण राजजन और प्रजा के जन राज्य की वृद्धि के लिये सम्पूर्ण पदार्थों को इकट्ठे करें, उनसे उत्तम प्रकार परीक्षित वीर सेनाओं को करके और दुष्ट पुरुषों का पराजय और श्रेष्ठ पुरुषों का विजय करके प्रतिदिन आनन्द करना चाहिये ॥८॥ इस सूक्त में राजा प्रजा और यज्ञान्नसंस्कारादि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जानना चाहिये ॥ यह बावनवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सोम्य भोजन
पदार्थ
[१] (अस्मै) = इस जीव के लिए (तूयम्) = शीघ्र (धाना:) = भुने यवों को (प्रतिभरत) = प्रतिदिन प्राप्त करानेवाले होओ। (नृणां वीरतमाय) = मनुष्यों में अत्यन्त वीर इस उपासक के लिए (पुरोडाशम्) = यज्ञशेषरूप अमृत को प्राप्त कराओ। [२] (दिवे दिवे) = प्रतिदिन हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (तुभ्यम्) = तेरे लिए (सदृशी:) = समान रूपवाली ही वे धाना प्राप्त करायी जाती हैं। हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले इन्द्र ! ये धाना (त्वा) = तुझे (सोमपेयाय) = सोमपान के लिए (वर्धन्तु) = बढ़ाएँ । इन धानाओं के सेवन से तू सोम का शरीर में रक्षण करनेवाला हो। ये भुने यव अत्यन्त सोम्य भोजन हैं। इनके सेवन से सोम (वीर्य) शरीर में सुरक्षित रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम धानाओं का प्रयोग करते हुए सोम का रक्षण करें। यज्ञशेष का सेवन हमें वीर बनाए । प्रस्तुत सूक्त का मुख्य विषय जीवन के तीनों सवनों में सोम्य भोजनों द्वारा सोम का रक्षण है। 'भुने जौ व दधिमिश्रित सत्तु' सर्वोत्तम भोजन हैं। इन्हें भी यज्ञशेष के रूप में ही सेवित करना चाहिए। अगले सूक्त का प्रारम्भ भी हव्यपदार्थों के सेवन की प्रेरणा से ही होता है -
विषय
बल उत्पन्न करने और अन्न सम्पदा प्राप्त करने का उपदेश।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! हे प्रजाजनो ! आप लोग (अस्मै नृणां वीरतमाय) सब नायकों में से सबसे श्रेष्ठ इस वीर पुरुष के लिये (धानाः) अन्नों के समान ही परिपोषक शक्तियों, सेनाओं और प्रजाओं को (तूयम्) शीघ्र ही (प्रति भरत) प्रतिदिन प्राप्त कराओ। हे (धृष्णो) धर्षणशील, शत्रुओं का पराजय करने हारे ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! (दिवे दिवे) दिनों दिन (सदृशीः) रूप गुणों में समान पत्नियां जिस प्रकार पतियों की वृद्धि करती हैं उसी प्रकार बलैश्वर्य में समान, तेरे अनुरूप प्रजाएं और सेनाएं भी (सोमपेयाय) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र के पालक और उपभोगकर्त्ता (तुभ्यम्) तुझको प्राप्त हों और तुझे सन्तानादि से पत्नी के समान ही (वर्धन्तु) बढ़ावें। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ३, ४ गायत्री। २ निचृद्-गायत्री। ६ जगती। ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व राजजनांनी व प्रजाजनांनी राज्याच्या वृद्धीसाठी संपूर्ण पदार्थ एकत्र करावेत. तसेच त्यांनी उत्तम प्रकारे परीक्षित वीर सेनेद्वारे दुष्ट पुरुषांचा (नाश) पराजय व श्रेष्ठ पुरुषांचा विजय करून प्रत्येक दिवशी आनंद घ्यावा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Bear and bring roasted rice and purodasha in homage fast and full for this hero of the best of leaders and warriors. Indra, fierce and fiery hero of arm and speech, may the forces of equal form and performance rise for you, dedicated as you are to the soma of life’s dignity and excellence, and may they exalt you with glory day by day.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
About the warehousing system of the edibles is stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O victorious Indra (destroyer of the troops of enemies)! may your armies, having uniformity in action and dress, augment you for drinking Soma. May you and the learned persons augment each other. O learned persons! offer to this Indra (brave king) the most heroic of leaders, the fried barley, the rotis and ghee which give happiness soon.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of all officers of the State and the people to store or warehouse all necessary articles. They should raise their armies with well-tried brave warriors in order to defeat the wicked and achieve victory and thus enjoy the bliss.
Foot Notes
(तूयम् ) तूर्णं सुखकरम् । तूयमिति क्षिप्रनाम (N. G. 2, 15) = Bestowers of happiness soon. (धृष्णो) प्रगल्भ । धृष्णा-प्रागल्भ्ये (स्वा० ) = Stubborn.
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