ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 54/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स॒मा॒न्या वियु॑ते दू॒रेअ॑न्ते ध्रु॒वे प॒दे त॑स्थतुर्जाग॒रूके॑। उ॒त स्वसा॑रा युव॒ती भव॑न्ती॒ आदु॑ ब्रुवाते मिथु॒नानि॒ नाम॑॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒न्या । वियु॑ते॒ इति॒ विऽयु॑ते । दू॒रेअ॑न्ते॒ इति॑ दू॒रेऽअ॑न्ते । ध्रु॒वे । प॒दे । त॒स्थ॒तुः॒ जा॒ग॒रूके॑ । उ॒त । स्वसा॑रा । यु॒व॒ती इति॑ । भव॑न्ती॒ इति॑ । आत् । ऊँ॒ इति॑ । ब्रु॒वा॒ते॒ इति॑ । मि॒थु॒नानि॑ । नाम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समान्या वियुते दूरेअन्ते ध्रुवे पदे तस्थतुर्जागरूके। उत स्वसारा युवती भवन्ती आदु ब्रुवाते मिथुनानि नाम॥
स्वर रहित पद पाठसमान्या। वियुते इति विऽयुते। दूरेअन्ते इति दूरेऽअन्ते। ध्रुवे। पदे। तस्थतुः जागरूके। उत। स्वसारा। युवती इति। भवन्ती इति। आत्। ऊँ इति। ब्रुवाते इति। मिथुनानि। नाम॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 54; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिष्यविषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या ये युवती स्वसारा भवन्ती मिथुनानि नाम ब्रुवाते इव समान्या वियुते दूरेअन्ते ध्रुवे पदे उतापि जागरूके द्यावापृथिव्यौ तस्थतुस्ते उ विदित्वादैश्वर्य्यं लब्धव्यम् ॥७॥
पदार्थः
(समान्या) समानस्वभावे (वियुते) मिश्रिताऽमिश्रिते (दूरेअन्ते) विप्रकृष्टे समीपे च (ध्रुवे) दृढे (पदे) प्रापणीये (तस्थतुः) तिष्ठतः (जागरूके) प्रसिद्धे (उत) अपि (स्वसारा) भगिन्यौ (युवती) प्राप्तयौवनावस्थे (भवन्ती) वर्त्तमाने (आत्) आनन्तर्ये (उ) (ब्रुवाते) वदतः (मिथुनानि) युग्मानि (नाम) सञ्ज्ञा ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रेमयुक्ता स्वसारोऽभीष्टानि वचनानि ब्रुवन्ते मिथुनानि वर्त्तन्ते तथैव दूरसमीपस्थाः प्रकाशाऽप्रकाशयुक्ता लोका अस्मिन् जगति वर्त्तन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिष्य के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (युवती) यौवन अवस्था को प्राप्त हुई (स्वसारा) भगिनी (भवन्ती) वर्त्तमान (मिथुनानि) जोड़ों को (नाम) संज्ञा को (ब्रुवाते) कहती हैं (समान्या) तुल्य स्वभाववाली (वियुते) मिली और नहीं मिली हुई (दूरेअन्ते) दूर और समीप में (ध्रुवे) दृढ़ (पदे) प्राप्त होने योग्य (उत) भी (जागरूक) प्रसिद्ध अन्तरिक्ष और पृथिवी (तस्थतुः) स्थित हैं उनको (उ) और जानने के (आत्) अनन्तर ऐश्वर्य को प्राप्त होना चाहिये ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रेम से युक्त भगिनीजन मनोवाञ्छित वचनों को कहती हैं और जोड़े वर्त्तमान हैं, वैसे ही दूर और समीप में वर्त्तमान प्रकाश और अप्रकाश से युक्त लोक इस संसार में वर्त्तमान हैं ॥७॥
विषय
ध्रुव पद में स्थिति
पदार्थ
[१] अध्यात्म में द्यावापृथिवी 'मस्तिष्क और शरीर' हैं। ये (समान्या) = मिलकर हमें सम्यक् प्राणित करनेवाले हैं [सं आनयतः प्राणयतः] । (वि-युते) = परस्पर पृथक्-पृथक् होते हुए, (दूरे) = एक दूसरे से दूर होते हुए भी (अन्ते) = समीप ही हैं। शरीर व मस्तिष्क पृथिवी व द्युलोक की तरह अलगअलग व दूर हैं, पर दूर होते हुए भी मिलकर कार्य करने से समीप ही हैं। (जागरूके) = जब ये दोनों जागरित व सावधान रहते हैं, अर्थात् शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं होता और मस्तिष्क दुर्विचारों का शिकार नहीं होता, तो ये (ध्रुवे पदे तस्थतुः) = उस ध्रुव पद प्रभु में स्थित होते हैं। स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्क के होने पर हम प्रभु को प्राप्त करते हैं यही प्रभु में स्थित होता है, ब्रह्मनिष्ठ होना है। [२] (उत) = और (युवती भवन्ती) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] दोषों को पृथक् व गुणों को संयुक्त करती हुई ये द्यावापृथिवी [मस्तिष्क व शरीर] (स्व-सारा) = आत्मतत्त्व की ओर गतिवाली होती हैं। ये शरीर व मस्तिष्क दोनों मिलकर ही हमें परमात्मा को प्राप्त कराते हैं। केवल शरीर व केवल मस्तिष्क हमें प्रभु को नहीं प्राप्त करा सकता। (आत्) = इसलिए ही तो (मिथुनानि नाम ब्रुवाते) = छन्दात्मक नामों से कहे जाते हैं, जैसे 'द्यावापृथिवी', 'रोदसी' आदि। ये द्वन्द्वात्मक नाम इसी बात का संकेत करते हैं कि हमें शरीर व मस्तिष्क दोनों को ही ठीक करना है। दोनों के स्वस्थ होने पर ही हम प्रभु को प्राप्त कर पायेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ – 'शरीर को हम नीरोग बनायें, मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनायें' यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग
विषय
स्त्री पुरुषों के स्वभाव कैसे होने चाहियें।
भावार्थ
पुनः स्त्री-पुरुषों के स्वभाव कैसे हों ? (समान्या) वे दोनों समान होकर एक दूसरे को प्रसन्न, तृप्त करने वाले, (वियुते) विशेष रूप, भिन्न प्रकृति होकर भी परस्पर संगत, (दूरे-अन्ते) दूर रहकर भी हृदय में बसने से समीप, अथवा (दूरे-अन्ते) दूर चिरकाल के जीवन तक अवसान करने वाले होकर (ध्रुवे पदे) स्थिर स्थान में (जागरूके) सदा जागृत, सावधान होकर (तस्थतुः) रहें। वे दोनों (युवती) युवावस्था को प्राप्त (स्वसारा) स्वयं एक दूसरे को प्राप्त होने वाले अथवा बहिन बहिन या बहिन भाई के समान परस्पर प्रेमयुक्त (भवन्ती) रहते हुए (आत्) तदनन्तर (मिथुनानि नाम) परस्पर मिलकर रहने वाले जोड़ों २ के नाम (बुवा) कहते हैं, बतलाते हैं । अर्थात् नाना युगल नामों को धारण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्दः– १ निचृत्पंक्तिः। भुरिक् पंक्तिः। १२ स्वराट् पंक्तिः । २, ३, ६, ८, १०, ११, १३, १४ त्रिष्टुप्। ४, ७, १५, १६, १८, २०, २१ निचृत्त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। १९, २२ विराट्त्रिष्टुप्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा प्रेमाने युक्त भगिनीगण मनोवाञ्छित वचन बोलतात व जोडीने राहतात तसेच दूर व समीप असलेले प्रकाश व अप्रकाशयुक्त लोक या जगात असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Alike yet apart far off at the end, they abide in orbit ever awake and youthful, strong and stable, and moreover they are called twin sisters since their very birth, dyava-prthivi, heaven and earth, by name.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are further stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! know the real nature of the earth and heaven which are like two vigilant young sisters, similar in some respects but united and disjoined, near and far, stable and firmly established. They are addressed therefore by twin appellatives as Dyăvă-Prithvi. Know the real nature of these earth and heaven and attain prosperity utilizing them properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As loving sisters speak sweet and desirable words and are always united, so are the Some of them far, some are near, various planets in this universe. some luminous and some with- out light. This phenomenon what you should know.
Foot Notes
(वियुते ) मिश्रिताऽमिश्रिते = United and disjointed. (दूरेअन्ते) विप्रकृष्टे समीप च = Far and near. (पदे) प्रापणीय = To be attained.
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