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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 55/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा, रोदसी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा॒ता च॒ यत्र॑ दुहि॒ता च॑ धे॒नू स॑ब॒र्दुघे॑ धा॒पये॑ते समी॒ची। ऋ॒तस्य॒ ते सद॑सीळे अ॒न्तर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒ता । च॒ । यत्र॑ । दु॒हि॒ता । च॒ । धे॒नू इति॑ । स॒ब॒र्दुघे॒ इति॑ स॒बः॒ऽदुघे॑ । धा॒पये॑ते॒ इति॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । ऋ॒तस्य॑ । ते॒ । सद॑सि । ई॒ळे॒ । अ॒न्तः । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    माता च यत्र दुहिता च धेनू सबर्दुघे धापयेते समीची। ऋतस्य ते सदसीळे अन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    माता। च। यत्र। दुहिता। च। धेनू इति। सबर्दुघे इति सबःऽदुघे। धापयेते इति। समीची इति सम्ऽईची। ऋतस्य। ते। सदसि। ईळे। अन्तः। महत्। देवानाम्। असुरऽत्वम्। एकम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 55; मन्त्र » 12
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    अन्वयः

    हे राजन्नहं ते सदसि यथा यत्र माता च दुहिता च समीची सबर्दुघे धेनू ऋतस्य सम्बन्धेन धापयेते तथैव ते सदस्यन्तःस्थितस्सन्नृतस्य देवानाम्महदेकमसुरत्वमीळे ॥१२॥

    पदार्थः

    (माता) मान्यप्रदा जननीव रात्रिः (च) (यत्र) यस्मिन्त्समये (दुहिता) दुहितेवोषा (च) (धेनू) धेनुवद्रसप्रदे (सबर्दुघे) सबः पालकस्य दुग्धादेरिव रसस्य प्रपूरिके (धापयेते) पाययतः (समीची) सम्यक् प्राप्नुवत्यौ (ऋतस्य) जलस्येव सत्यस्य (ते) तव (सदसि) सभायाम् (ईळे) स्तौमि (अन्तः) मध्ये (महत्) (देवानाम्) सभ्यानां विदुषाम् (असुरत्वम्) (एकम्) ॥१२॥

    भावार्थः

    ये सभ्या जना परमेश्वराद्भीत्वा तदाज्ञाऽनुसारेण यथा रात्रिदिवसौ सर्वस्य जगतो नियमेन पालकौ भवतस्तथैव सभायां धर्मस्य विजयेनाऽधर्मस्य पराजयेन प्रजा आनन्दयन्तु ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे राजन् ! मैं (ते) आपकी (सदसि) सभा में जैसे (यत्र) जिस समय (माता) मान को देनेवाली माता के सदृश रात्रि (च) और (दुहिता) कन्या के सदृश प्रातःकाल (च) और (समीची) उत्तम प्रकार प्राप्त होती हुईं (सबर्दुघे) पालन करनेवाले दुग्ध आदि के सदृश रस की पूर्ति करने और (धेनू) धेनू के सदृश रस को देनेवाली (ऋतस्य) जल के सदृश सत्य के सम्बन्ध से (धापयेते) पिलाती हैं वैसे ही सभा के (अन्तः) मध्य में वर्त्तमान हुआ (ऋतस्य) जल के सदृश सत्य का (देवानाम्) श्रेष्ठ विद्वानों में (महत्) बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) दोषों को दूर करनेवाले की (ईळे) स्तुति करता हूँ ॥१२॥

    भावार्थ

    जो सभ्य जन परमेश्वर से डर के उसकी आज्ञा के अनुसार जैसे रात्रि और दिन संपूर्ण संसार के नियमपूर्वक पालनकर्त्ता होते हैं, वैसे ही सभा में धर्म के विजय और अधर्म के पराजय से प्रजाओं को आनन्दित करें ॥१२॥

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    विषय

    माता और दुहिता

    पदार्थ

    [१] अन्नादि को देनेवाली पृथिवी 'माता' है और सुदूर स्थित होने से [दूरे हिता] अथवा वृष्टि आदि द्वारा पृथिवीलोक का पूरण करने से [दुह प्रपूरणे] द्युलोक 'दुहिता' है। (माता च) = निश्चय से यह मातृतुल्य पृथिवी, (च) = और सुदूरस्थित (दुहिता) = द्युलोक (यत्र) = के आधार जिस प्रभु में (धेनू) = हम सबका प्रीणन करते हैं, (ते) = वे (सबर्दघे) = [सब शब्द: क्षीरपर्याय: सा०] उत्तम क्षीररूप रस का दोहन करनेवाले हैं और (समीची) = परस्पर संगत हुए हुए (धापयेते) = वत्सरूप हम जीवों को उस क्षीर का पान कराते हैं। मैं उस प्रभु का (ऋतस्य सदसि अन्तः) = ॠत के स्थानभूत अन्तःकरण में (ईडे) = उपासन करता हूँ। [२] हृदय को मैं अमृत से दूर करके ऋतमय बनाता हूँ। ऋत [सत्य] से मेरा यह हृदय पवित्र होता है। इस पवित्र अन्तःकरण में मैं प्रभु का दर्शन व उपासन करता हूँ। मुझे प्रभु के बनाये द्यावा-पृथिवी माता-पिता सदृश पालें। ऐसा विश्वास साधक को होना चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ – द्यावा-पृथिवी सब प्राणियों का पालन करते हैं ।

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    विषय

    श्यावी, अरुणी का रहस्य परमेश्वर का अद्वितीय बल।

    भावार्थ

    (यत्र) जिसके आश्रय पर (माता च दुहिता च) पृथिवी और आकाश दोनों ही माता और कन्या के समान हैं पृथिवी सब प्राणियों को उत्पन्न करने से, अन्नादि द्वारा पालने से माता है और पृथिवी सबको अन्नादि से पूर्ण करने वा आकाशस्थ मेघ रूप ऊधस से वृष्टि जल का दूध के समान पान करने से दुहिता कन्या है। उसी प्रकार आकाश या सूर्य भी मेघादि का उत्पादक और वृष्टि, अन्न आदि द्वारा प्राणियों को जीवन देने से सबकी माता और सूर्य किरणों द्वारा भूमि जल को क्षीरवत् पान करने से ‘दुहिता’ कन्यावत् है। वे दोनों ही (धेनू) गौओं के समान दुग्धवत् अन्न, जल और वृष्टि आदि रस प्रदान करती हैं और प्राणियों का पालन पोषण करती हैं। वे दोनों (सबर्दुधे) क्षीरवत् रसों को दोहन करती हुई (समीची) परस्पर मिल कर एक दूसरे को (धापयेते) रस पिलाती हैं। (ऋतस्य सदसि अन्तः) ऋत गतिमान् सूर्य, संसार वा जल और अन्न का आश्रय अन्तरिक्ष के बीच यह सब (देवानां) किरणों के बड़े अद्वितीय बल का ही परिणाम है जिसको मैं (ईळे) वर्णन करता हूं। ठीक उसी प्रकार राजशक्ति और पृथिवी निवासिनी प्रजा दोनों भी माता कन्या के समान परस्पर एक दूसरे को पालें, पोसें, पूर्ण तृप्त करें (ऋतस्य सदसि अन्तः देवानां मध्ये तदेकं महत् असुरत्वम्) न्यायभवन के बीच में यह एक विद्वानों के बीच अद्वितीय, दोषनिवारक सत्य न्याय का बल है कि राजा प्रजा एक दूसरे को पुष्ट करते हैं, उसी की मैं (ईळे) प्रशंसा करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। उषाः। २—१० अग्निः। ११ अहोरात्रौ। १२–१४ रोदसी। १५ रोदसी द्युनिशौ वा॥ १६ दिशः। १७–२२ इन्द्रः पर्जन्यात्मा, त्वष्टा वाग्निश्च देवताः॥ छन्दः- १, २, ६, ७, ९-१२, १९, २२ निचृत्त्रिष्टुप्। ४, ८, १३, १६, २१ त्रिष्टुप्। १४, १५, १८ विराट् त्रिष्टुप्। १७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ भुरिक् पंक्तिः। ५, २० स्वराट् पंक्तिः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सभ्य लोक परमेश्वराला भिऊन त्याच्या आज्ञेचे पालन करतात, जसे रात्र व दिवस जगाचे नियमपूर्वक पालन करतात तसे सभेमध्ये धर्माचा विजय व अधर्माचा पराजय करून प्रजेला आनंदित करावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Where mother and daughter, day and night, heaven and earth, generous as cows, yielding nourishments sweet as nectar, together feed each other, there I offer worship, O lord ruler of the world, to you in the house of universal truth and law. Great and glorious is the life and action of the divinities of the universe, one, undivided and absolute.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Dyavaprithiv (sky and earth) are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king, sitting in your assembly, I glorify that One Great God sitting in your assembly Who is the life- giver and Lord of the enlightened persons and all divine object and Truth. I do it as the mother night and her daughter Usha (Dawn) Who are giver of sap like the cows and suppliers of the sap like the milk which nourishes all cause to drink each other.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the members of the various assemblies and councils in the State to fear God and acting according to His command, to gladden the people by getting Dharma (righteousness) victorious and defeating Adharma (un-righteousness) as under the command of God, day and night protect the whole world regularly.

    Foot Notes

    (माता) मान्यप्रदा जननीव रात्रिः =Night which is like a mother. (दुहिता) दुहितेवोषा | = Dawn which is like the daughter of the mother night (सबर्दुघे ) सब: पालकस्य दुग्धादेरिव रसस्य प्रपूरिके । ( सबदुर्घे ) सबः शब्दः क्षीखाची इति सम्प्रदाय विद आहुः (सायणाचार्यः ) = Fillers of the sap of juice of life like the nourishing milk.

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