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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - मित्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र स मि॑त्र॒ मर्तो॑ अस्तु॒ प्रय॑स्वा॒न्यस्त॑ आदित्य॒ शिक्ष॑ति व्र॒तेन॑। न ह॑न्यते॒ न जी॑यते॒ त्वोतो॒ नैन॒मंहो॑ अश्नो॒त्यन्ति॑तो॒ न दू॒रात्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सः । मि॒त्र॒ । मर्तः॑ । अ॒स्तु॒ । प्रय॑स्वान् । यः । ते॒ । आ॒दि॒त्य॒ । शिक्ष॑ति । व्र॒तेन॑ । न । ह॒न्य॒ते॒ । न । जी॒य॒ते॒ । त्वाऽऊ॑तः । न । ए॒न॒म् । अंहः॑ । अ॒श्नो॒ति॒ । अन्ति॑तः । न । दू॒रात् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र स मित्र मर्तो अस्तु प्रयस्वान्यस्त आदित्य शिक्षति व्रतेन। न हन्यते न जीयते त्वोतो नैनमंहो अश्नोत्यन्तितो न दूरात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। सः। मित्र। मर्तः। अस्तु। प्रयस्वान्। यः। ते। आदित्य। शिक्षति। व्रतेन। न। हन्यते। न। जीयते। त्वाऽऊतः। न। एनम्। अंहः। अश्नोति। अन्तितः। न। दूरात्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वराप्तमित्रतामाह।

    अन्वयः

    हे मित्र आप्त विद्वञ्जगदीश्वर वा यो मर्त्तः प्रयस्वानस्तु हे आदित्य ! यो मनुष्यस्ते व्रतेनेवाऽन्यात्प्रशिक्षति स त्वोतोऽन्यैर्न हन्यते न जीयते। एनमन्तितोंऽहो नाऽश्नोति नैनं दूरादंहोऽश्नोति ॥२॥

    पदार्थः

    (प्र) (सः) (मित्र) सखे (मर्त्तः) मनुष्यः (अन्तु) भवतु (प्रयस्वान्) प्रयत्नवान् (यः) (ते) तव (आदित्य) अविनाशिस्वरूप (शिक्षति) विद्यां गृह्णाति ग्राहयति वा। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (व्रतेन) कर्मणेव (न) (हन्यते) (न) (जीयते) जेतुं शक्यते (त्वोतः) त्वया रक्षितः (न) (एनम्) (अंहः) पापम् (अश्नोति) प्राप्नोति (अन्तितः) समीपात् (न) (दूरात्) ॥२॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या आप्तेश्वरयोर्गुणकर्मस्वभाववत्स्वगुणकर्मस्वभावान्कृत्वा सत्यन्यायेन सर्वाञ्च्छिक्षन्ते ते निष्पापा धर्मात्मानो भूत्वाऽऽप्तेश्वराभ्यां रक्षिताः सन्तो दुष्टैर्हन्तुं पराजेतुं च न शक्यते। नैव ते दूरात्समीपाद्वा पक्षपातेन पापं भजन्ते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर और आप्त विद्वान् के मित्रपन को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (मित्र) मित्र यथार्थवक्ता विद्वान् वा जगदीश्वर ! (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (प्रयस्वान्) प्रयत्नवाला (अस्तु) हो। और हे (आदित्य) अविनाशिस्वरूप ! जो मनुष्य (ते) आपके (व्रतेन) कर्म से जैसे वैसे अन्य जनों को (प्र, शिक्षति) विद्याग्रहण कराता वा आप ग्रहण करता है (सः) वह (त्वोतः) आपसे रक्षित अन्य जनों से (न)(हन्यते) मारा जाता (न) और न (जीयते) जीता जाता है (एनम्) इसको (अन्तितः) समीप से (अंहः) पाप (न) नहीं (अश्नोति) प्राप्त होता और (न) न इसको (दूरात्) दूर से पाप प्राप्त होता है ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य यथार्थवक्ता और स्वामी के गुणकर्म और स्वभाव के सदृश अपने गुणकर्म और स्वभावों को करके सत्य न्याय से सबको शिक्षा करते हैं, वे पापरहित धर्मात्मा होकर यथार्थवक्ता और स्वामी से रक्षित हुए दुष्टों से नाश तथा पराजय को प्राप्त नहीं हो सकते और न वे दूर वा समीप से पक्षपात से पाप का सेवन करते हैं ॥२॥

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    विषय

    सूर्य का शिष्य बनना

    पदार्थ

    [१] हे (मित्र) = सूर्य ! (स मर्तः) = वह मनुष्य (प्रयस्वान्) = उत्तम श्रमवाला (प्र अस्तु) = प्रकर्षेण हो, (यः) = जो, हे (आदित्य) = अत्यन्त उत्कृष्ट स्वास्थ्य को देनेवाले सूर्य! [अदितेः अपत्यम्] (ते व्रतेन) = तेरे व्रत से (शिक्षति) = शिक्षा को ग्रहण करता है। सूर्य का व्रत निरन्तर सरण [गमन] है। सूर्य से इस क्रियाशीलता का पाठ पढ़नेवाला व्यक्ति भी क्रियाशील बनकर सूर्य की तरह चमकनेवाला होता है। [२] हे सूर्य! (त्वा ऊतः) = तेरे द्वारा रक्षित हुआ हुआ यह पुरुष (न हन्यते) = मारा नहीं जाता, (न जीयते) = नां ही पराभूत किया जाता है। सूर्य से क्रियाशीलता का व्रत ग्रहण करके यह पुरुष स्वस्थ व पवित्र जीवनवाला बना रहता है। (न) = नां तो (एनम्) = इसे (अन्तितः) = समीप से (अंहः अश्नोति) = पाप व कष्ट व्यापता है और (न) = नां ही (दूरात्) = दूर से। अध्यात्म कष्ट समीप से होनेवाले कष्ट हैं, अधिभूत से होनेवाले कष्ट दूर से होनेवाले कष्ट हैं। सूर्य के शिष्य को ये कष्ट नहीं प्राप्त होते, उसका जीवन निष्पाप होता है। सूर्य उसका मित्र है, वह उसे पाप से मानो निवारित करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– सूर्य से क्रियाशीलता का पाठ पढ़कर मनुष्य निष्पाप जीवनवाला बनता है।

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    विषय

    मित्र राजा, मित्र परमेश्वर।

    भावार्थ

    हे (मित्र) स्नेहवन् ! आप्तजन ! आचार्य ! राजन् ! परमेश्वर ! (यः) जो पुरुष (ते) तेरे सिखाये, दर्शाये (व्रतेन) नियम कर्म से (शिक्षति) स्वयं शिक्षा ग्रहण करता वा अन्यों को शिक्षा, अन्नादि प्रदान करता है (सः) वह (मर्त्तः) मनुष्य (प्रयस्वान्) प्रयत्नशील, उत्तम अन्न और ज्ञान का स्वामी (अस्तु) अवश्य होता है। (त्वा ऊतः) तेरे द्वारा सुरक्षित पुरुष (न हन्यते) न कभी मारा जाता, वा दण्डित होता और (न जीयते) न कभी अन्यों से पराजित होता है। (एनम्) इसको (न अन्तिमः) न पास से और (न दूरात्) न दूर से ही कभी (अंहः अश्नोति) पाप ही व्यापता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ मित्रा देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पंक्तिः। ६, ९ निचृद्वायत्री। ७, ८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे विद्वान व ईश्वर यांच्या गुण, कर्म, स्वभावाप्रमाणे आपले गुण कर्म स्वभाव बनवून सत्य न्यायपूर्वक सर्वांना शिक्षण देतात ते निष्पाप धर्मात्मा बनून विद्वानांकडून व ईश्वराकडून रक्षित असतात. त्यांचा दुष्टांकडून नाश व पराजय होऊ शकत नाही. पक्षपात करून ते पापाचे सेवन करू शकत नाहीत. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra, lord of universal love, Aditya, lord self- refulgent, may that person be active and alert in action, blest with ample food and drink and the joy of life who abides by your divine law and learns and makes others learn the ways of divine discipline and action. O lord, the person under your gracious protection is neither conquered nor killed by any mortal. Sin and evil reach him not, much less touch and pollute, either from far or from near.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The benefits of friendship with God and absolutely truthful learned persons is are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Mitra (friend, absolutely truthful enlightened person or God:! may that men be industrious, blessed and enjoy abundance, who O immortal! by Your vow of truthfulness receives good education and imparts it to others. Protected by you, he is not harmed, he is not over-come by any one. A sin or immoral act does not touch him from far or near.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who make their own attributes, actions and temperament like those of the absolutely truthful learned persons (or God), and there after teach all people with true justice, and pecp become sinless and righteous. Being protected by the reliable enlightened persons and by God Himself, they can not be slain or overcome by the wicked. They do not commit sin on account of prejudice from far or near.

    Translator's Notes

    Here Rishi Dayananda has taken the word f both for an enlightened person who looks upon with friendly eyes. According to the injunctions of the Vedas. Mighty God is friend of all and Protector from sin and death. Sayanacharya has rather narrowed down the word by interpreting it as यज्ञेन instead of कर्मणा as has been done by Rishi Dayananda. Venkat Madhava has interpreted it as सत्यादिना व्रतेन युक्तः The Shatpatha Brahman (12, 8, 2, 4,) endorses it. एतत् खलु वं व्रतस्य रूपं यत् सत्यम् ( Stph 12. 8, 2, 4) Rishi Dayananda has interpreted प्रयस्वान् as प्रयत्नवान् deriving it from यसु प्रयत्ने (दिवा.)

    Foot Notes

    (प्रयस्वान्) प्रयत्नवान्। = Industrious.(अहं:) पापम् = Sin.। प्रमीते: मरणात् त्रायते इति मित्रः - Friend. व्रतमिति कर्मनाम (NG 2, 1 ) वृणोतीति सतः इदमपीतद् व्रतमेवस्यादेव निवृत्त कर्म वारयतीति सतः NKT 2. 4, 13) = Action.

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