ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
अ॒स्माक॒मत्र॑ पि॒तरो॑ मनु॒ष्या॑ अ॒भि प्र से॑दुर्ऋ॒तमा॑शुषा॒णाः। अश्म॑व्रजाः सु॒दुघा॑ व॒व्रे अ॒न्तरुदु॒स्रा आ॑जन्नु॒षसो॑ हुवा॒नाः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्माक॑म् । अत्र॑ । पि॒तरः॑ । म॒नु॒ष्याः॑ । अ॒भि । प्र । से॒दुः॒ । ऋ॒तम् । आ॒शु॒षा॒णाः । अश्म॑ऽव्रजाः । सु॒ऽदुघा॑ । व॒व्रे । अ॒न्तः । उत् । उ॒स्राः । आ॒ज॒न् । उ॒षसः॑ । हु॒वा॒नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्माकमत्र पितरो मनुष्या अभि प्र सेदुर्ऋतमाशुषाणाः। अश्मव्रजाः सुदुघा वव्रे अन्तरुदुस्रा आजन्नुषसो हुवानाः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठअस्माकम्। अत्र। पितरः। मनुष्याः। अभि। प्र। सेदुः। ऋतम्। आशुषाणाः। अश्मऽव्रजाः। सुऽदुघाः। वव्रे। अन्तः। उत्। उस्राः। आजन्। उषसः। हुवानाः॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! येऽत्राऽस्माकं मनुष्याः पितर ऋतमाशुषाणा अश्मव्रजाः सुदुघा उषस उस्रा इव हुवानाः सन्त उदाजन्नन्तरभि प्र सेदुस्तान् योऽभि वव्रे स भाग्यशाली जायते ॥१३॥
पदार्थः
(अस्माकम्) (अत्र) अस्मिञ्जगति व्यवहारे वा (पितरः) पालकाः (मनुष्याः) मननशीलाः समन्तात् (अभि) आभिमुख्ये (प्र) (सेदुः) प्रसीदन्ति (ऋतम्) सत्यम् (आशुषाणाः) प्राप्नुवन्तो ब्रह्मचर्येण शुष्कशरीरा वा (अश्मव्रजाः) येऽश्मसु मेघेषु व्रजन्ति (सुदुघाः) सुष्ठु कामानामलङ्कर्त्तारः (वव्रे) वृणोति (अन्तः) मध्ये (उत्) (उस्राः) किरणाः (आजन्) प्राप्नुवन्ति (उषसः) प्रभातान् (हुवानाः) कृताह्वानाः ॥१३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये युष्माकं पालका ब्रह्मचारिणो यथा सूर्यकिरणा मेघान् वर्षयन्ति तथैव कृताह्वानाः सन्तः सत्यं विज्ञापयन्ति तेषां यः सत्कारं करोति स भाग्यशाली भवति ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (अत्र) इस संसार वा व्यवहार में (अस्माकम्) हम लोगों के (मनुष्याः) मनन करने और (पितरः) पालन करनेवाले (ऋतम्) सत्य को (आशुषाणाः) सब प्रकार प्राप्त हुए वा ब्रह्मचर्य से शुष्क शरीरवाले (अश्मव्रजाः) मेघों में चलनेवाले (सुदुघाः) उत्तम प्रकार कामनाओं के पूर्ण करनेवाले (उषसः) प्रातःकालों को (उस्राः) किरणों के सदृश (हुवानाः) पुकारनेवाले हुए (उत्, आजन्) प्राप्त होते हैं (अन्तः) मध्य में (अभि) सम्मुख (प्र, सेदुः) जाते हैं, उनको जो (वव्रे) ढाँपता है, वह भाग्यशाली होता है ॥१३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो लोग आप लोगों के पालन करनेवाले ब्रह्मचर्य्य को धारण करके जैसे सूर्य की किरणें मेघों को वर्षाती हैं, वैसे ही बुलाये हुए सत्य का प्रकाश करते हैं, उनका जो सत्कार करता है, वह भाग्यशाली होता है ॥१३॥
विषय
पितरो मनुष्याः
पदार्थ
[१] (अत्र) = यहाँ संसार में (अस्माकम्) = हमारे में से (पितर:) = पालनात्मक कर्मों को करनेवाले (मनुष्या:) = विचारशील लोग (ऋतं आशुषाणाः) = यज्ञ को व ऋत को अपने में व्याप्त करते हुए (अभिप्रसेदुः) = उस प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं [प्रसद्-moving towards] । प्रभुप्राप्ति का मार्ग यही है कि हम [क] यज्ञात्मक कर्मों को करें, तथा [ख] सब क्रियाओं को ठीक समय व स्थान पर, ऋत के अनुसार, करनेवाले हों। [२] ये 'पितर मनुष्य' (उस्त्राः) = ज्ञान की रश्मियों को (उद् आजन्) = बाहिर प्रेरित करते हैं, अर्थात् उन ज्ञान रश्मियों का प्रादुर्भाव करते हैं, जो कि (अश्मव्रजाः) = इस पाषाण तुल्य दृढ़ शरीर रूप बाड़ेवाली हैं, (सुदुघा:) = उत्तम ज्ञानदुग्ध का पूरण करनेवाली हैं, तथा (वव्रे अन्तः) = [वृणोति आच्छादयति] आत्मा को अपने में आच्छादित करनेवाले हृदय के अन्दर स्थित हैं। हृदय के अन्दर सब ज्ञानरश्मियाँ वर्तमान हैं। इन ज्ञान रश्मियों को 'गौ' कहें तो यह पाषाण तुल्य शरीर ही इनका बाड़ा है। यह उत्तम ज्ञानदुग्ध का दोहन करती हैं। ये 'पितर मनुष्य' इन ज्ञान रश्मियों के प्रादुर्भाव के लिये ही (उषस: हुवाना:) = उषाकालों में प्रभु को पुकारनेवाले होते हैं, उषाकालों में प्रभु का स्मरण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम ऋत का सेवन करते हुए प्रभु की ओर चलें। प्रातः प्रभु का आह्वान करते हुए ज्ञान रश्मियों को अपने में प्रादुर्भूत करें ।
विषय
जिज्ञासु जनों का कर्त्तव्य । मार्गदर्शी जनों का गोपालकवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अत्र ) इस लोक वा राष्ट्र में जो ( अस्माकम् ) हमारे बीच में हमारे ही ( पितरः ) पालन करने वाले और ( मनुष्याः ) मननशील पुरुष ( ऋतम् ) सत्यज्ञान, वेद, ब्रह्मचर्य, वीर्य और धनैश्वर्य को ( आशुषाणाः ) प्राप्त करते हुए और तपस्या करते हुए ( अभि प्रसेदुः ) सदा प्रसन्न रहते या कार्यों पर तपस्या करते हुए ( ऋतम् अभि प्र सेदुः ) ज्ञान, वेद, ब्रह्मचर्य, वीर्य और धन को प्राप्त करने के लिये प्रस्थान करते हैं, वे ( हुवानाः ) ज्ञान का दान और प्रतिग्रह करते हुए ( अश्मव्रजाः ) मेघ के समान ज्ञानवर्षक लोगों की शरण जाने वाले, ( सुदुघाः ) उत्तम ज्ञान का दोहन करने वाले, ( वव्रे अन्तः ) आवृत स्थान में स्थित गौओं के समान ही ( वव्रे अन्तः ) वरण करने योग्य प्रभु परमेश्वर के भीतर ही ( उषसः ) सब पापों को दग्ध करने वाली ( उस्राः ) तेजोमय रश्मियों, दीप्तियों और वाणियों को ( उत् आजन् ) प्रकट करते और प्राप्त करते हैं । अर्थात् जिस प्रकार उत्तम गो-पालक लोग ( अश्मव्रजाः वव्रे अन्तः स्थिताः उस्राः उद् आजन् ) पत्थर की बनी गोशालाओं के बीच में विद्यमान उत्तम दोहने योग्य, बाड़े में स्थित गौओं को हांकते हैं, बाहर करते हैं उसी प्रकार विद्वान् लोग ( अश्मव्रजाः ) व्यापक परमेश्वर की तरफ़ जाने वाली ( सुदुघाः ) उत्तम सुख रस प्रदान करने वाली आनन्दवर्षिणी, ( उस्राः उषसः ) स्वयं उत्पन्न होने वाली प्रातः उषा के तुल्य दीप्ति वाली ( वव्रे अन्तः ) आवृत अन्तःकरण के भीतर स्थित वाणियों को ( उत् आजन् ) ऊपर प्रकट करें, उच्चारण करें । ( २ ) सेनानायक, राष्ट्रपालक लोग भी ( अश्मव्रजाः ) शस्त्र धारण करके चलने वाली ( सुदुघाः ) राष्ट्र को ऐश्वर्य से पूर्ण करने वाली, ( उषसः ) शत्रुसंतापक, ( उस्राः ) शत्रु पर चढ़ाई करने वाली सेनाओं को और समृद्ध प्रजाओं को ( हुवानाः ) आज्ञा देते हुए ( वव्रे ) सुगुप्त ( अन्तः ) राष्ट्र के भीतर ( उत् आजन् ) उत्तम रीति से सञ्चालित करें। ( ३ ) अध्यात्म में—( पितरः ) प्राणगण।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ १, ५—२० अग्निः। २-४ अग्निर्वा वरुणश्चं देवता ॥ छन्दः– १ स्वराडतिशक्वरी । २ अतिज्जगती । ३ अष्टिः । ४, ६ भुरिक् पंक्तिः । ५, १८, २० स्वराट् पंक्तिः । ७, ९, १५, १७, १९ विराट् त्रिष्टुप् । ८,१०, ११, १२, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जशी सूर्याची किरणे मेघांचा वर्षाव करतात तसे जे लोक तुमचे पालक व ब्रह्मचारी असून सत्याचा प्रकाश करतात, त्यांचा जो सत्कार करतो तो भाग्यवान असतो ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Here in our human world, in this programme of energy discovery, our parental seniors and thinkers dedicated to the yajna of natural and psychic energy sit at peace in a state of tranquillity, searching and invoking the light of the dawn and discover and open out the showers of energy waves locked up inside the clouds and mountains.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! that person becomes very fortunate who chooses our fathers as our thoughtful guardians, attains truth extensively from all sides and who goes in their aircrafts towards the clouds in the firmament. In fact, they fulfill all our born noble desires like the rays entering the dawns.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that man becomes very fortunate who honors the elderly people, because they are your guardians, observe Brahamcharya (purity and self-control), impart the knowledge of truth, when invited, like the sun rays cause rains.
Foot Notes
(आशुषाणा:) समन्तात् प्राप्नुवन्तो ब्रह्मचर्येण शुष्कशरीरा वा । = Attaining truth or possessing firm and solid bodies by the observance of Brahmacharya. (उस्त्रा ) किरणा: । उस्त्रा इति रश्मि नाम (NG 1, 5 ) = Rays of the sun.
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