ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
अस्य॑ घा वी॒र ईव॑तो॒ऽग्नेरी॑शीत॒ मर्त्यः॑। ति॒ग्मज॑म्भस्य मी॒ळ्हुषः॑ ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअस्य॑ । घ॒ । वी॒रः । ईव॑तः । अ॒ग्नेः । ई॒शी॒त॒ । मर्त्यः॑ । ति॒ग्मऽज॑म्भस्य । मी॒ळ्हुषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य घा वीर ईवतोऽग्नेरीशीत मर्त्यः। तिग्मजम्भस्य मीळ्हुषः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। घ। वीरः। ईवतः। अग्नेः। ईशीत। मर्त्यः। तिग्मऽजम्भस्य। मीळ्हुषः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यो वीरो मर्त्योऽग्नेरिवाऽस्येवतस्तिग्मजम्भस्य मीळ्हुषः सेनापतेः शत्रूणां मध्य ईशीत स घैव विजयं कर्त्तुमर्हेत ॥५॥
पदार्थः
(अस्य) (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (वीरः) (ईवतः) प्रशस्तगमनकर्त्तुः (अग्नेः) पावकस्येव (ईशीत) समर्थो भवेत् (मर्त्यः) मनुष्यः (तिग्मजम्भस्य) तिग्मं तीव्रं तेजस्वि जम्भो मुखं यस्य तस्य (मीळ्हुषः) वीर्य्यवतः ॥५॥
भावार्थः
सेनापतिना त एव पुरुषाः सेनायां भर्त्तव्या ये शत्रून् विजेतुं शक्नुयुः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! जो (वीरः) वीर (मर्त्यः) मनुष्य (अग्नेः) अग्नि के सदृश (अस्य) इस (ईवतः) श्रेष्ठ गमन करनेवाले (तिग्मजम्भस्य) तीक्ष्ण तेजस्वि मुख जिसका उस (मीळ्हुषः) पराक्रमी सेनापति के शत्रुओं के मध्य में (ईशीत) समर्थ हो (घ) वही विजय करने योग्य होवे ॥५॥
भावार्थ
सेनापति को चाहिये कि उन्हीं पुरुषों को सेना में भर्ती करें कि जो लोग शत्रुओं को जीत सकें ॥५॥
विषय
'तिग्मजम्भ मीढवान्' प्रभु
पदार्थ
[१] (वीरः) = गतमन्त्र के अनुसार शत्रुओं का संहार करनेवाला वीर (मर्त्यः) = मनुष्य (घा) = ही (अस्य) = इस (ईवत:) = सर्वत्र गमनवाले (अग्ने:) = उस अग्रणी प्रभु के (ईशीत) = ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाला होता है। प्रभु के ऐश्वर्य से यह अपने को ऐश्वर्य सम्पन्न बना पाता है। [२] उस प्रभु के ऐश्वर्य से जो कि (तिग्मजम्भस्य) = तीक्षण दाढ़ोंवाले हैं, अर्थात् काम-क्रोध आदि शत्रुओं को चीर फाड़ डालनेवाले हैं तथा (मीढुष:) = शत्रु विनाश द्वारा हमारे पर सुखों का सेचन करनेवाले हैं। वस्तुतः प्रभु का उपासक भी कामादि शत्रुओं के लिये तिग्म दाढ़ोंवाला बनता है और अपने जीवन का ठीक परिपाक करके सब पर सुखों का सेचन करने का प्रयत्न करता है। यह समाजहित के कार्यों में प्रवृत्त होता है। लोकहित के कार्यों में सदा गतिशील बना रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- वीर पुरुष उपास्य प्रभु की तरह ही गतिशील, कामादि शत्रुओं का विनाशक तथा सुखों का सेचक बनता है।
विषय
तेजस्वी पुरुष के योग्य पद ।
भावार्थ
(अस्य) इस (ईवतः) गमन करने वाले, प्रयाणशील (तिग्मजम्भस्य) तीक्ष्ण, तेजस्वी मुख वाले, (मीळहुषः) शत्रु पर शस्त्रादि वर्षण करने में समर्थ मेघ के तुल्य (अग्नेः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी, अग्रणी नायक (वीरः) वीर (मर्त्यः) शत्रु मारने में समर्थ पुरुष ही (ईशीत) ऐश्वर्य वा अधिकार का भागी हो । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १–६ अग्निः । ७, ८ सोमकः साहदेव्यः । ९,१० अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, ४ गायत्री । २, ५, ६ विराड् गायत्री । ३, ७, ८, ९, १० निचृद्गायत्री ॥ षडजः स्वरः ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे शत्रूंना जिंकू शकतील. अशा पुरुषांना सेनापतीने सेनेत भरती करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Only that brave man among mortals can command the wealth and power of the world who is a yajnic follower of this Agni, dynamic leader, generous giver and unflinchingly just and powerful.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! the brave person alone can achieve victory. Under the command of this undoubtedly active Chief Commander of Army whose face is full of splendor like the purifying fire and who is virile, he can overpower his enemies. Thus the brave persons achieve victory.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A Commander-in-chief should deploy only the brave persons in the army because they can conquer their enemies.
Foot Notes
(ईवतः) प्रशस्तगमनकर्त्तु:= Whose movement is admirable (तिग्मजम्भस्य) तिग्मं तीव्र तेजस्वि जम्भो मुखं यस्य तस्य । = Of the person whose face is full of splendor.
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