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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 22/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒स्मे वर्षि॑ष्ठा कृणुहि॒ ज्येष्ठा॑ नृ॒म्णानि॑ स॒त्रा स॑हुरे॒ सहां॑सि। अ॒स्मभ्यं॑ वृ॒त्रा सु॒हना॑नि रन्धि ज॒हि वध॑र्व॒नुषो॒ मर्त्य॑स्य ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मे इति॑ । वर्षि॑ष्ठा । कृ॒णु॒हि॒ । ज्येष्ठा॑ । नृ॒म्णानि॑ । स॒त्रा । स॒हु॒रे॒ । सहां॑सि । अ॒स्मभ्य॑म् । वृ॒त्रा । सु॒ऽहना॑नि । र॒न्धि॒ । ज॒हि । वधः॑ । व॒नुषः॑ । मर्त्य॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मे वर्षिष्ठा कृणुहि ज्येष्ठा नृम्णानि सत्रा सहुरे सहांसि। अस्मभ्यं वृत्रा सुहनानि रन्धि जहि वधर्वनुषो मर्त्यस्य ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मे इति। वर्षिष्ठा। कृणुहि। ज्येष्ठा। नृम्णानि। सत्रा। सहुरे। सहांसि। अस्मभ्यम्। वृत्रा। सुऽहनानि। रन्धि। जहि। वधः। वनुषः। मर्त्यस्य ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 22; मन्त्र » 9
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सहुरे राजन् ! यानि ते सत्रा वर्षिष्ठा ज्येष्ठा नृम्णानि सहांसि वर्त्तन्ते तान्यस्मे कृणुहि। अस्मभ्यं दुःखप्रदस्य वनुषो मर्त्त्यस्य वधर्जहि सुहनानि वृत्रेव शत्रुसैन्यानि रन्धि ॥९॥

    पदार्थः

    (अस्मे) अस्मासु (वर्षिष्ठा) अतिशयेन वृद्धानि (कृणुहि) कुरु (ज्येष्ठा) प्रशस्यानि (नृम्णानि) धनानि (सत्रा) सत्यानि (सहुरे) सहनशीलेन्द्र (सहांसि) सहनानि (अस्मभ्यम्) (वृत्रा) वृत्राणि मेघघना इव शत्रुसैन्यानि (सुहनानि) सुष्ठु हन्तुं योग्यानि (रन्धि) नाशय (जहि) दूरे प्रक्षिप (वधः) वधसाधनम् (वनुषः) सेवमानस्य (मर्त्त्यस्य) ॥९॥

    भावार्थः

    हे राजादयो जना ! यूयम्मिलित्वा प्रजापीडकस्य बलं घ्नत यानि स्वेषामुत्तमानि वस्तूनि तान्यस्मासु दधत यान्यस्माकमुत्तमानि रत्नानि तानि युष्मासु वयं धरेम ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहुरे) सहनशील राजन् ! जो आपके (सत्रा) सत्य (वर्षिष्ठा) अत्यन्त वृद्ध (ज्येष्ठा) प्रशंसा करने योग्य (नृम्णानि) धन (सहांसि) और सहन वर्त्तमान हैं उनको (अस्मे) हम लोगों में (कृणुहि) करो (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये दुःख देनेवाले (वनुषः) सेवा करते हुए (मर्त्त्यस्य) मनुष्य के (वधः) मारने के साधन को (जहि) दूर फेंको और (सुहनानि) उत्तम प्रकार नाश करने योग्य (वृत्रा) मेघ बादलों के समान शत्रुओं की सेनाओं का (रन्धि) नाश कीजिये ॥९॥

    भावार्थ

    हे राजा आदि जनो ! आप लोग मिल के प्रजा को पीड़ा देनेवाले के बल का नाश करो और जो आप लोगों के उत्तम वस्तु उनको हम लोगों में धारण कीजिये और जो हम लोगों के उत्तम रत्न उनको आप लोग धरें ॥९॥

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    विषय

    वासनाविनाशक बल

    पदार्थ

    [१] हे (सहुरे) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले प्रभो ! (अस्मे) = हमारे लिए (वर्षिष्ठा) = प्रवृद्ध (ज्येष्ठा) = प्रशस्त (सहांसि) = शत्रुओं को कुचलनेवाले (नृम्णानि) = बलों को (सत्रा) = सदा (कृणुहि) = करिए। प्रभु हमें अत्यन्त प्रशस्त बलों को प्राप्त कराएँ, उन बलों को जिनसे कि हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं को कुचल सकें। [२] हे प्रभो! आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (वृत्रा) = इन ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (सुहनानि) = सुगमता से नष्ट करने योग्य रूप में (रन्धि) = [वशं नय] वशीभूत करिए। हम इन वासनाओं को इस प्रकार वश में करें कि वे हमारे से सुगमता से नष्ट की जा सकें । हे प्रभो! आप (वनुषः मर्त्यस्य) = हिंसक मनुष्य के (वधः) = आयुध को जहि नष्ट करिए। हम हिंसक मनुष्य के आयुध का शिकार न हो जाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें वह बल दें, जिससे कि हम वासना को विनष्ट कर सकें।

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    विषय

    वह राष्ट्र का नियन्ता और उत्तम कर्मशील हो ।

    भावार्थ

    हे (सहुरे) सहनशील ! शत्रु पराजय करने हारे राजन् ! तू (अस्मे) हमारे (सत्रा) सदा अथवा वस्तुतः, (वर्षिष्ठा) बहुत और (ज्येष्ठा) खूब प्रशंसनीय (नृम्णानि) धन और (सहांसि) बल (कृणुहि) बना । (अस्मभ्यं) हमारे (वृत्रा) बढ़ते शत्रुओं को (सुहनानि) सुख से हनन करने योग्य कर और (रन्धि) उनका नाश कर । (वधः वनुषः) हत्या के साधन शस्त्रास्त्र को सेवने वाले (मर्त्यस्य) दुष्ट पुरुष को (जहि) दण्डित कर । अथवा—(वनुषः मर्त्यस्य वधः जहि) मारने वाले मनुष्य के वधादि के साधनों का नाश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, २, ५, १० ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७ त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः ॥ एकादशचं सूक्तम् ॥ निचत् त्रिष्टुप् । स्वराट् पंक्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा इत्यादी लोकांनो! तुम्ही प्रजेला त्रास देणाऱ्याच्या बलाचा नाश करा व उत्तम वस्तू आम्हाला द्या आणि आमची उत्तम रत्ने तुम्ही धारण करा. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord of peace, patience, power and victory, bless us with all those gifts of yours which are permanent, challenging, highest and most generous. For us, destroy the demons of darkness and enmity which deserve to be destroyed, and ward off and annihilate the onslaughts on the worshipful humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a teacher in statecraft are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enduring king ! bestow upon us true, excellent and superior wealth and power of endurance. Demolish the weapons of the malevolent man who is the hireling of wicked persons. Let our armies be capable to liquidate easily the enemies, which are like clouds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and others ! you should diminish and destroy the strength of the malevolent persons. Give us kindly good things that you have, and let us give gems and other good things to you.

    Foot Notes

    (नुम्णानि ) धनानि । नुम्णमिति धननाम (NG 2,10 ) नृम्णमिति बलनाम (NG 2, 9) = Wealth of various kinds. (सत्रा) सत्यानि । सत्रेति सत्यनाम (NG 3, 10)। = True. (वृत्रा) वृत्राणि मेघघना इव शत्रुसैन्यानि | = The armies of the enemies which are like the clouds. (वनुषः) सेवमानस्य । = Of the servant, or of the violent wicked man.

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