ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
ये हरी॑ मे॒धयो॒क्था मद॑न्त॒ इन्द्रा॑य च॒क्रुः सु॒युजा॒ ये अश्वा॑। ते रा॒यस्पोषं॒ द्रवि॑णान्य॒स्मे ध॒त्त ऋ॑भवः क्षेम॒यन्तो॒ न मि॒त्रम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठये । हरी॒ इति॑ । मे॒धया॑ । उ॒क्था । मद॑न्तः । इन्द्रा॑य । च॒क्रुः । सु॒ऽयुजा॑ । ये । अश्वा॑ । ते । रा॒यः । पोष॑म् । द्रवि॑णानि । अ॒स्मे इति॑ । ध॒त्त । ऋ॒भ॒वः॒ । क्षे॒म॒ऽयन्तः॑ । न । मि॒त्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये हरी मेधयोक्था मदन्त इन्द्राय चक्रुः सुयुजा ये अश्वा। ते रायस्पोषं द्रविणान्यस्मे धत्त ऋभवः क्षेमयन्तो न मित्रम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठये। हरी इति। मेधया। उक्था। मदन्तः। इन्द्राय। चक्रुः। सुऽयुजा। ये अश्वा। ते। रायः। पोषम्। द्रविणानि। अस्मे इति। धत्त। ऋभवः। क्षेमऽयन्तः। न। मित्रम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋभवो ! ये मेधयोक्था मदन्त इन्द्राय हरी अश्वा सुयुजा चक्रुः ये चैतद्विद्यां जानीयुस्ते यूयं मित्रं क्षेमयन्तो नाऽस्मे रायस्पोषं द्रविणानि धत्त ॥१०॥
पदार्थः
(ये) (हरी) तुरङ्गाविवाग्निजले (मेधया) प्रज्ञया (उक्था) प्रशंसनैः (मदन्तः) आनन्दन्तः (इन्द्राय) ऐश्वर्य्याय (चक्रुः) कुर्वन्ति (सुयुजा) यो सुष्ठु युङ्क्तस्तौ (ये) (अश्वा) आशुगामिनौ (ते) (रायः) धनादेः (पोषम्) पुष्टिम् (द्रविणानि) द्रव्याणि यशांसि वा (अस्मे) अस्मासु (धत्त) धरत (ऋभवः) मेधाविनः (क्षेमयन्तः) क्षेमं रक्षणं कुर्वन्तः (न) इव (मित्रम्) सुहृदम् ॥१०॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! भवन्तो सृष्टिक्रमेण पदार्थविद्याः प्राप्याऽन्यान् बोधयित्वा स्वसदृशान् कृत्वा धनाढ्यान् कुर्वन्तु ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋभवः) बुद्धिमानो ! (ये) जो (मेधया) बुद्धि (उक्था) और प्रशंसाओं से (मदन्तः) आनन्द करते हुए (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के लिये (हरी) घोड़ों के सदृश अग्नि और जल को (अश्वा) शीघ्र चलनेवाले और (सुयुजा) उत्तम प्रकार जुड़े हुए (चक्रुः) करते हैं और (ये) जो इस विद्या को जानें (ते) वे आप लोग (मित्रम्) मित्र की (क्षेमयन्तः) रक्षा करते हुए के (न) सदृश (अस्मे) हम लोगों के निमित्त (रायः, पोषम्) धन आदि की पुष्टि को (द्रविणानि) तथा द्रव्यों वा यशों को (धत्त) धारण करो ॥१०॥
भावार्थ
हे विद्वानो ! आप लोग सृष्टि के क्रम से पदार्थविद्याओं को प्राप्त होकर अन्य जनों को बोध कराय के अपने सदृश करके धनाढ्य करो ॥१०॥
विषय
सुयुज अश्व
पदार्थ
[१] ऋभु वे हैं, (ये) = जो (हरी) = इन ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (मेधया) = बुद्धि से तथा उक्था स्तोत्रों से (मदन्तः) = [हर्षयन्तः] हर्षित होता हुआ (चक्रुः) = करते हैं। जिनकी इन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति व स्तुतिरूप कर्म में ही आनन्द का अनुभव होता है । [२] ऋभु वे हैं, ये जो कि इन्द्राय उस प्रभु की प्राप्ति के लिए अश्वा ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्वों को सुयुजा (चक्रुः) = उत्तम रूप से शरीर-रथ में जुता हुआ करते हैं। उत्तम रूप से जुतने का भाव यही है कि अपने-अपने कार्य को उत्तमता से करना । ज्ञानेन्द्रियाँ 'ज्ञान प्राप्ति में लगी रहें, कर्मेन्द्रियाँ स्तुतिरूप कर्मों में प्रवृत्त रहें' यही इनका शरीर-रथ में सुयोग है । [३] प्रभु कहते हैं कि (ते ऋभवः) = वे ऋभु (अस्मे) = हमारे रायस्पोषम् धन के पोषण को तथा द्रविणानि जीवनयात्रा के संचालक [द्रु गतौ] वसुओं को धत्त धारण करें। उसी प्रकार धारण करें, (न) = जैसे कि (क्षेमयन्त:) = कल्याण की कामनावाले (मित्रम्) = मित्र को प्राप्त करते हैं। मित्र को प्राप्त करके वे 'पापान्निवारयति योजयते हिताय' पापों से बचते हैं और हितकर कार्यों में प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें बुद्धि व स्तोत्र प्रिय हों। हमारे इन्द्रियाश्वों का शरीर-रथ में उत्तम योग हो । हम धन व द्रविणों को धारण करके सचमुच 'ऋभु' बनें ।
विषय
उत्तम शिष्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(ये) जो विद्वान् पुरुष (मेधया) अपनी बुद्धि से और (उक्था) उत्तम वचनों से (मदन्तः) स्वयं हर्षित होते हुए (इन्द्राय) ऐश्वर्य वृद्धि के लिये (हरी) स्थादि ले चलाने में समर्थ अग्नि जलों को भी (अश्वा) अश्वों के समान (सुयुजा) रथादि में लगने योग्य (चकुः) बना लेते हैं, और जो (हरी अश्वा सुयुजा चक्रुः) ऐश्वर्य वृद्धि के लिये स्त्री पुरुष दोनों को रथ के अश्वों के समान उत्तम रीति से सहयोगी साथी बनाते हैं । (ते) वे (ऋभवः) सत्यज्ञानी विद्वान् लोग (मित्रं न) मित्र के तुल्य (क्षेमयन्तः) कल्याण, क्षेम की कामना करते हुए (अस्मे) हमारे लिये, हमें (रायस्पोषं) ऐश्वर्य की पुष्टि और (द्रविणानि) नाना धन (धत्त) प्रदान करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, ४, ५, ११ त्रिष्टुप् । ३, ६, १० निचृत्त्रिष्टुप। ७, ८ भुरिक् पंक्तिः । ९ स्वराट् पंक्तिः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो! तुम्ही सृष्टिक्रमाने पदार्थ विद्या प्राप्त करून इतरांना बोध करवून आपल्याप्रमाणे बनवून धनवान करा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Rbhus, holy thinkers, creators and makers, who, using their intellect and imagination and rejoicing with the revelations of the chants of sacred verses, create the circuit of energies, produce the motive powers, and construct the chariot for Indra, ruler and the nation, may, we pray, bring us health and nourishment and wealth and build permanent assets for us as protective and promotive friends doing good to friends.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of learned persons is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O intelligent persons ! in order to acquire prosperity and provide delight to the people, you invent quick-moving transport with the multitudes of horse-powers with your admired genius. By acquiring this knowledge and protecting your friends you bring plenty of richness, fame and stuffs.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O intelligent persons ! let you make rich others, the same way you acquired the richness for yourself. This is possible only when you study the order of the creation and the physical sciences.
Foot Notes
(हरी) तुरङ्गाविवाग्निजले । = Energy and water which act as two horses. (उक्था ) प्रशंसनै: = By admired genius. (मदन्त:) आनन्दन्तः = Giving delight. (सुयुजा ) यो सुष्ठु युङक्तस्तौ । = Well applied (2). (अश्वा) आशुगामिनो । = Fast moving (2) (रायः ) धनादे:। = Richness. (क्षेमयन्तः ) क्षेमं रक्षणं कुर्वन्तः । = Providing protection.
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