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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ न॑पातः शवसो यात॒नोपे॒मं य॒ज्ञं नम॑सा हू॒यमा॑नाः। स॒जोष॑सः सूरयो॒ यस्य॑ च॒ स्थ मध्वः॑ पात रत्न॒धा इन्द्र॑वन्तः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । न॒पा॒तः॒ । श॒व॒सः॒ । या॒त॒न॒ । उप॑ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । नम॑सा । हू॒यमा॑नाः । स॒ऽजोष॑सः । सू॒र॒यः॒ । यस्य॑ । च॒ । स्थ । मध्वः॑ । पा॒त॒ । र॒त्न॒ऽधाः । इन्द्र॑ऽवन्तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नपातः शवसो यातनोपेमं यज्ञं नमसा हूयमानाः। सजोषसः सूरयो यस्य च स्थ मध्वः पात रत्नधा इन्द्रवन्तः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नपातः। शवसः। यातन। उप। इमम्। यज्ञम्। नमसा। हूयमानाः। सऽजोषसः। सूरयः। यस्य। च। स्थ। मध्वः। पात। रत्नऽधाः। इन्द्रऽवन्तः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे हूयमानाः शवसो नपातः सजोषसो रत्नधा इन्द्रवन्तः सूरयो ! यूयन्नमसेमं यज्ञमुपायातन यस्य च मध्वः प्राप्ताः स्थ तन्नित्यं पात ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) (नपातः) न विद्यते पात् पतनं येषान्ते (शवसः) बलवन्तः (यातन) प्राप्नुत (उप) (इमम्) (यज्ञम्) विद्यावृद्धिकरं व्यवहारम् (नमसा) सत्कारेण (हूयमानाः) स्पर्द्धमानाः (सजोषसः) समानप्रीतिसेवनाः (सूरयः) विद्वांसः (यस्य) (च) (स्थ) सन्तु (मध्वः) मधुरगुणयुक्तस्य (पात) रक्षत (रत्नधाः) ये रत्नानि धनानि दधति ते (इन्द्रवन्तः) ऐश्वर्य्यवन्तः ॥६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः परस्परम्मित्रतां विधाय शरीरात्मबलं वर्द्धयित्वा विद्याधनैश्वर्य्यं प्राप्य संरक्ष्य वर्द्धयित्वाऽनेन सर्वे सुखिनः कर्त्तव्याः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हूयमानाः) ईर्ष्या करते हुए (शवसः) बलयुक्त (नपातः) नहीं गिरना जिनके विद्यमान (सजोषसः) तुल्य प्रीति के सेवनकर्त्ता (रत्नधाः) धनों को धारण करनेवाले (इन्द्रवन्तः) ऐश्वर्य्य से युक्त (सूरयः) विद्वान् जनो ! आप लोग (नमसा) सत्कार से (इमम्) इस (यज्ञम्) विद्यावृद्धि करनेवाले यज्ञ को (उप, आ, यातन) प्राप्त हूजिये (च) और (यस्य) जिसके (मध्वः) मधुरगुणयुक्त पदार्थ को प्राप्त (स्थ) होओ उसकी नित्य (पात) रक्षा कीजिये ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर मित्रता कर शरीर और आत्मा का बल बढ़ाय, विद्याधनरूप ऐश्वर्य्य को प्राप्त हों, उसकी उत्तम प्रकार रक्षा कर और बढ़ाय के इससे सब को सुखी करें ॥६॥

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    विषय

    शवसः नपातः

    पदार्थ

    [१] हे (शवसः नपातः) = शक्ति को न गिरने देनेवाले लोगो ! शक्ति का रक्षण करनेवाले पुरुषो! (इमं यज्ञं उप आयातन) = इस उपासनीय, संगतिकरण योग्य व समर्पणीय प्रभु के समीप प्राप्त होओ। तुम जो कि (नमसा हूयमानाः) = नम्रता से पुकार रहे हो-नम्रता से प्रभु प्रार्थना में प्रवृत्त हो, (सजोषसः) = परस्पर मिलकर प्रीतिपूर्वक अपने कर्त्तव्यों का सेवन करनेवाले हो । (सूरयः) = जो तुम ज्ञानी हो। [२] तुम उस प्रभु के समीप प्राप्त होओ (यस्य च स्थ) = निश्चय से जिसके तुम हो । वस्तुतः तुम प्रभु के ही मित्र हो । (मध्वः पात:) = जीवन को मधुर बनानेवाले सोम का तुम पान करो। परिणामतः (रत्नधा:) = रत्नों का धारण करनेवाले बनो। (इन्द्रवन्त:) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभुवाले बनो । प्रभु के तुम होओ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम का रक्षण करते हुए हम प्रभु को प्राप्त हों।

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    विषय

    विद्वानों और शिल्पज्ञों के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    जिस प्रकार (नमसा हूयमानाः) अन्न द्वारा आहुति प्राप्त करके देह में प्राण गण (शवसः नपातः यज्ञं यान्ति) देह के बल को न गिरने देने वाले होकर जीवन यज्ञ को या आत्मा को प्राप्त हैं वे (इन्द्रवन्तः मध्वः पिबन्ति) इन्द्र आत्मा से युक्त होकर मधुर अन्न का उपभोग करते हैं, उसी प्रकार हे (सूरयः) सूर्य के तुल्य तेजस्वी विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (नमसा) आदर सत्कार पूर्वक (हूयमानाः) बुलाये जाकर, आदर सत्कार पूर्वक दान दिये जाकर और परस्पर सत्कारपूर्वक प्रतिस्पर्द्धा—एक दूसरे से गुणों में अधिक बढ़ने की इच्छा करते हुए और (शवसः नपातः) अपने बल वीर्य को न गिरने देते हुए, स्खलित न करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए (इमं यज्ञम्) इस श्रेष्ठ कर्म, यज्ञ, परस्पर संगति, दान प्रतिदान, अध्ययन, अध्यापन मैत्री, सौहार्द आदि को (उपयातन) प्राप्त करो । (सजोषसः) परस्पर समान प्रीतियुक्त होकर (इन्द्रवन्तः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता, अज्ञाननाशक विद्वान् से युक्त होकर वा स्वयं ‘इन्द्रवान्’ अर्थात् आत्मवान् और ऐश्वर्यवान् होकर (यस्य च) जिसके पास से आप लोग (मध्वः) मधुर ज्ञान रस का (पात) पान करें (तस्य) उसको (रत्नधाः स्थ) उत्तम २ ऐश्वर्य देने वाले होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप् । ३,११ स्वराट् पंक्तिः । ५ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी परस्पर मैत्री करून शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवून विद्याधनरूपी ऐश्वर्य प्राप्त करावे. त्याचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून सर्वांना सुखी करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Rbhus, strong, imperishable heroes and leaders of science and knowledge, invoked and invited with reverence, come and join this yajnic programme of development and production. Loved and loving, eminent scholars, commanding wealth, honour and power, come and accept the delicious treat of the host and protect and promote the good fortune of the community.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of learned persons further moves on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The learned persons vie with each other to secure infallible strength and share their happiness with similar persons. Holders of jewelers and riches in full of prosperity, you learned persons come respectfully to this Yajna-the activities of intensification of learning. You should protect those who offer you sweet and useful articles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of persons to behave in a friendly manner and intensify their prosperity, strength and learning. By doing in this way, you protect well and make people the happy.

    Foot Notes

    (नपातः ) न विद्यते पातः पतनं येषान्ते | = Infallible. (शवस:) बलवन्त: । = Full of strength. (हूयमानाः) स्पर्द्धमानाः । = Vying with each other. (सजोषसः) समान प्रीति सेवना: । = Sharing pleasures in equal measures. (इन्द्रवन्तः ) ऐश्वय्यर्वन्तः । = Prosperous.

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