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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - त्रसदस्युः पौरुकुत्स्यः देवता - आत्मा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒हमिन्द्रो॒ वरु॑ण॒स्ते म॑हि॒त्वोर्वी ग॑भी॒रे रज॑सी सु॒मेके॑। त्वष्टे॑व॒ विश्वा॒ भुव॑नानि वि॒द्वान्त्समै॑रयं॒ रोद॑सी धा॒रयं॑ च ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अहम् । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । ते इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । उ॒र्वी इति॑ । ग॒भी॒रे । रज॑सी॒ इति॑ । सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑ । त्वष्टा॑ऽइव । विश्वा॑ । भुव॑नानि । वि॒द्वान् । सम् । ऐ॒र॒य॒म् । रोद॑सी॒ इति॑ । धा॒रय॑म् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमिन्द्रो वरुणस्ते महित्वोर्वी गभीरे रजसी सुमेके। त्वष्टेव विश्वा भुवनानि विद्वान्त्समैरयं रोदसी धारयं च ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम्। इन्द्रः। वरुणः। ते इति। महिऽत्वा। उर्वी इति। गभीरे इति। रजसी इति। सुमेके इति सुऽमेके। त्वष्टाऽइव। विश्वा। भुवनानि। विद्वान्। सम्। ऐरयम्। रोदसी इति। धारयम्। च ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! इन्द्रो वरुणोऽहं विद्वांस्त्वष्टेव गभीरे सुमेके रजसी महित्वा ते उर्वी रोदसी रचयित्वाऽत्र विश्वा भुवनानि समैरयन्धारयञ्चेति विजानीत ॥३॥

    पदार्थः

    (अहम्) महान् व्याप्तः (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् (वरुणः) सर्वत उत्कृष्टः (ते) (महित्वा) पूजयित्वा (ऊर्वी) बहुपदार्थधरे (गभीरे) विस्तीर्णे (रजसी) द्यावापृथिव्यौ (सुमेके) शोभने मया सृष्टे सुष्ठु क्षिप्ते (त्वष्टेव) उत्तमः शिल्पीव (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) लोकान् (विद्वान्) सकलविद्यावित् (सम्) एकीभावे (ऐरयम्) प्रेरयेयम् (रोदसी) सूर्य्यभूलोकौ (धारयम्) धरेयं धारयेयं वा (च) ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यथा दक्षा विचक्षणाः पूर्णविद्याः शिल्पिन उत्तमानि वस्तूनि निर्मिमते तथैव मया विचित्रमुत्तमं जगन्निर्मितं ध्रियते यथा मया रचितं तथाऽन्यस्य जीवस्य सामर्थ्यं रचयितुं नास्ति किन्तु मत्कृतात् कार्य्यात् किञ्चिद् गृहीत्वा यथामति रचयन्तीति वेद्यम् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवान् (वरुणः) सब से उत्तम (अहम्) अतीव व्याप्त मैं (विद्वान्) सकलविद्यावेत्ता (त्वष्टेव) उत्तम शिल्पी के सदृश (गभीरे) विस्तारयुक्त (सुमेके) सुन्दर मुझ से रचे और उत्तम प्रकार फैलाये गये (रजसी) सूर्य्य और पृथिवी को (महित्वा) पूजित कर (ते) उन (उर्वी) बहुत पदार्थों को धारण करनेवाले (रोदसी) सूर्य्य और पृथिवी लोकों को रच के यहाँ (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (सम्) एक होने में (ऐरयम्) प्रेरणा करूँ (धारयम् च,) और धारण करूँ वा धारण कराऊँ, यह जानो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे चतुर पण्डित, पूर्ण विद्यावान्, शिल्पी जन उत्तम वस्तुओं को रचते हैं, वैसे ही मुझ से विचित्र उत्तम उत्तम जगत् रचा गया धारण किया जाता है और जैसे मैंने रचा वैसे अन्य जीव का सामर्थ्य रचने का नहीं है, किन्तु मेरे किये हुए कार्य्य से कुछ ग्रहण करके अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार रचते हैं, यह जानना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    जितेन्द्रिय व निष्पाप

    पदार्थ

    [१] (अहम्) = मैं (इन्द्रः) = इन्द्र बनता हूँ जितेन्द्रिय बनता हूँ । (वरुण:) = वरुण बनता हूँ निष्पाप होता हूँ। जितेन्द्रिय व निष्पाप बनकर (महित्वा) = प्रभु की उपासना द्वारा (ते रजसी) = द्यावापृथिवी को मस्तिष्क व शरीर को (उर्वी) = विशाल बनाता हूँ, (गभीरे) = गम्भीर बनाता हूँ, (सुमेके) = उत्तम निर्माणवाला करता हूँ। [२] (त्वष्टा इव) = एक निर्माता के समान (विश्वा भुवनानि) = सब भुवनों को लोकों को शरीर के अंग-प्रत्यंग को (विद्वान्) = जानता हुआ (समैरयम्) = सम्यक् गतिवाला करता हूँ। सब अंगों को ठीक से कार्य में व्याप्त करता हूँ । (च) = और (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (धारयम्) = धारण करता हूँ- शरीर व मस्तिष्क दोनों को ही ठीक रखने के लिए यत्नशील होता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम जितेन्द्रिय व निष्पाप बनकर शरीर व मस्तिष्क का ठीक प्रकार से धारण करें।

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    विषय

    राजा वरुण, परमेश्वर का वर्णन, उसका वैभव ।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ वरण करने योग्य सर्वसंकट निवारक होकर (ते) उन दोनों (ऊर्वी) विशाल, (गभीरे) गम्भीर, (सुमेके) उत्तम रीति से एक दूसरे का सेचन, अभिषेक वा वृद्धि करने वाले (रजसी) दोनों लोकों को (त्वष्टा इव रोदसी) आकाश और भूमि को सूर्य के तुल्य (महित्वा) महान् सामर्थ्य से (ऐरयम्) सञ्चालित करूं और (विश्वा भुवनानि) समस्त कार्यों को जानता हुआ (धारयं च) धारण करूं । (२) परमेश्वर ही इन्द्र, वरुग है वही महान् सुरक्षित, भूमि आकाश दोनों को महान् सामर्थ्य से चलाता और धारण करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रसदस्युः पौरुकुत्स्य ऋषिः॥ १-६ आत्मा। ७–१० इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्द:– १, २, ३, ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप। ७ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्। ५ निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चतुर, पंडित पूर्ण विद्वान कारागीर लोक उत्तम उत्तम वस्तू तयार करतात, तसेच माझ्याकडून (परमात्म्याकडून) हे विचित्र उत्तम जग निर्माण केले गेलेले आहे, धारण केलेले आहे व जसे मी निर्माण केले तसे इतर जीवाचे निर्माण करण्याचे सामर्थ्य नाही; परंतु मी केलेल्या कार्याचे थोडेसे ग्रहण करून आपापल्या बुद्धीनुसार निर्माण करतात हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I am Indra, the highest, omnipotent, and transcendent. I am Varuna, highest and best immanent and omniscient. Happy and exalted, having created the vast and deep and firm heaven and earth as Tvashta, cosmic maker, I hold and move in unison the sun and earth and all other regions of the universe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of attributes of God is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should know that I (God) am the Most Exalted Lord of the Universe and have created it like a great artisan. These two vast, deep, well-knit worlds heaven and earth, upholding various objects, by My Greatness. Being Omniscient, I animate and uphold all these worlds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As expert, dexterous, highly learned artisans manufacture many good articles, in the same manner, all this wonderful good world is made and upheld by Me. No soul on earth has ever got the power of creating such a world, though they manufacture various articles to a certain extent by taking something out of My creation.

    Foot Notes

    (रजसी) द्यावापृथिव्यौ । रजसीति यावपृथिवीनाम (NG 3, 30)। = Heaven and earth. (सुमेके) शोभने मया सृष्टे सुष्ठु शिप्ते । = Well made and established properly by me. (वष्टेन ) उत्तमः शिल्पीव त्वष्टा रूपाणां विकर्ता (काष्कसंहिता 5, 4 ) त्वष्टा व रूपाणामीशे ( Stph 5, 4, 5, 8) त्वष्टा तूर्णमश्नुत इति नैरुक्ताः । त्विषेर्वा स्याद् दीप्तिकर्माण स्वत्वक्षतेर्वा स्यात् करोति कर्मणः । (NKT 8, 2, 14 ) = Like a good artisan.

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