ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कृ॒ष्णं त॒ एम॒ रुश॑तः पु॒रो भाश्च॑रि॒ष्ण्व१॒॑र्चिर्वपु॑षा॒मिदेक॑म्। यदप्र॑वीता॒ दध॑ते ह॒ गर्भं॑ स॒द्यश्चि॑ज्जा॒तो भव॒सीदु॑ दू॒तः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णम् । ते॒ । एम॑ । रुश॑तः । पु॒रः । भाः । च॒रि॒ष्णु । अ॒र्चिः । वपु॑षाम् । इत् । एक॑म् । यत् । अप्र॑ऽवीता । दध॑ते । ह॒ । गर्भ॑म् । स॒द्यः । चि॒त् । जा॒तः । भव॑सि । इत् । ऊँ॒ इति॑ । दू॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णं त एम रुशतः पुरो भाश्चरिष्ण्व१र्चिर्वपुषामिदेकम्। यदप्रवीता दधते ह गर्भं सद्यश्चिज्जातो भवसीदु दूतः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णम्। ते। एम। रुशतः। पुरः। भाः। चरिष्णु। अर्चिः। वपुषाम्। इत्। एकम्। यत्। अप्रऽवीता। दधते। ह। गर्भम्। सद्यः। चित्। जातः। भवसि। इत्। ऊम् इति। दूतः॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्य रुशतस्ते यत्कृष्णं पुरो भाश्चरिष्णु वपुषामेकमर्चिरिदस्ति तद्वयमेम। हे विद्वन् ! यथाऽप्रवीता गर्भं दधते तथा ह सद्यश्चिज्जातो दूत इवेदु भवसि तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥९॥
पदार्थः
(कृष्णम्) कर्षकम् (ते) तव (एम) प्राप्नुयाम (रुशतः) सुरूपस्य रुचिकरस्य (पुरः) पूर्वम् (भाः) प्रकाशमानः (चरिष्णु) यच्चरति गच्छति (अर्चिः) तेजः (वपुषाम्) रूपवतां शरीराणाम् (इत्) एव (एकम्) असहायम् (यत्) (अप्रवीता) अगच्छन्ती (दधते) धरति (ह) खलु (गर्भम्) अन्तःस्वरूपम् (सद्यः) शीघ्रम् (चित्) अपि (जातः) प्रकटः (भवसि) (इत्) (उ) (दूतः) दूत इव वर्त्तमानः ॥९॥
भावार्थः
हे अध्यापक कृपालो ! त्वं विद्युत्तेजसो विद्यामस्मान् बोधय येन तेजसा दूतवत्कर्म्माणि वयं कारयेम ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जिस (रुशतः) उत्तम रूपयुक्त प्रीतिकारक (ते) आपका (यत्) जो (कृष्णम्) खींचनेवाला (पुरः) प्रथम (भाः) प्रकाशमान (चरिष्णु) चलनेवाला (वपुषाम्) रूपवाले शरीरों के (एकम्) सहायरहित (अर्चिः) तेज (इत्) ही है, उसको हम लोग (एम) प्राप्त होवें और हे विद्वन् ! जैसे (अप्रवीता) नहीं जाती हुई स्त्री (गर्भम्) अन्तः स्वरूप को (दधते) धारण करती है, वैसे (ह) निश्चय से (सद्यः) शीघ्र (चित्) भी (जातः) प्रकट (दूतः) दूत के (इत्) सदृश वर्त्तमान (उ) ही (भवसि) होते हो, उससे सत्कार करने योग्य हो ॥९॥
भावार्थ
हे अध्यापक कृपालो ! आप बिजुली के तेज की विद्या का हम लोगों के लिये बोध कराइये कि जिस तेज से दूत के सदृश कार्य्यों को हम लोग करावें ॥९॥
विषय
यत्तदग्रे विषमिव
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (रुशत:) = देदीप्यमान (ते) = आपका (एम) = गमनमार्ग (कृष्णम्) = प्रारम्भ में कृष्ण है, शुरू में इस पर चलना बड़ा नीरस व कठिन प्रतीत होता है। परन्तु (पुरः भाः) = आगे प्रकाश है 'यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्' (वपुषाम्) = शरीर धारियों के लिये (चरिष्णु अर्चि:) = यह गतिमय ज्ञानदीप्ति (इत्) = निश्चय से (एकम्) = मुख्य है। आपसे दी जानेवाली ज्ञान-ज्योति कर्मों में प्रेरित करती है, यह अर्चि [ज्ञानदीप्ति] चरिष्णु है । [२] (यत्) = जिन आपको (अप्रवीता:) = [seeds of knowledge not sown]'जिनमें ज्ञान बीज का वपन नहीं हुआ' वे लोग ह निश्चय से (गर्भं दधते) = अन्दर ही अन्दर धारण करते हैं, वे आप (सद्यः चित्) = शीघ्र ही (जातः) = प्रादुर्भूत हुए हुए (इत् उ) = निश्चय से (दूत:) = ज्ञान के सन्देशवाहक भवसि होते हैं। सर्वव्यापकता के नाते प्रभु सर्वत्र हैं। परन्तु जब प्रभु का हमारे में प्रादुर्भाव होता है तभी वे हमारे लिये ज्ञान-सन्देश को देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुप्राप्ति का मार्ग प्रथम नीरस, पर पीछे अनुपम रसवाला है। प्रादुर्भूत हुए हुए प्रभु हमारे लिये ज्ञान सन्देश को देते हैं।
विषय
अग्नि, विद्वान्, दूतवत् प्रभु ।
भावार्थ
जिस प्रकार (रुशतः) देदीप्यमान अग्नि या विद्युत् का (एम) मार्ग (कृष्णं) कोयले के रूप में काला वा आकर्षक होता है, (पुरः भाः) आगे दीप्त होता है (वपुषाम्) देहयुक्त रूपवान् पदार्थों में उसका (एकम् अर्चिः) एक विशेष तेज होता है । उसको (अप्रवीता) विना रगड़ी अरणि या दण्डी, गर्भ में गुप्त रूप से धारण करती है। (जातः) वह प्रकट होकर (दूतः) तापयुक्त हो जाता है उसी प्रकार हे राजन् ! (रुशतः) देदीप्यमान, तेजस्वी (ते) तेरा (कृष्णं) शत्रुओं को काटने वाला वा प्रजाओं के चित्तों को आकर्षण करने वाला, (एम) मार्ग या प्रयाण हो, (पुरः) आगे (भाः) कान्ति (वपुषाम्) देहधारी जवानों के बीच (इदम्) यह (एकम्) अद्वितीय (चरिष्णु) चलता फिरता (अर्चिः) पूज्य स्वरूप हो । (यत्) जिस तुझको (अप्रवीता) अन्यों से अभुक्त प्रजा (गर्भ ह) गर्भ को माता के समान (गर्भं) स्वीकारने योग्य वा प्रजा के ऐश्वर्यों को ग्रहण करने वाले तुझको (दधते) धारण करती है और तू (जातः) प्रकट होकर (सद्यः) शीघ्र ही (दूतः भवसि इत् उ) सद्योजात बालक के समान पीड़ा जनक, एवं शत्रुओं को संतापजनक होता है । (२) परमेश्वर (रुशत्) दीप्तिमय है उसका (एम) ज्ञानमय रूप (कृष्णं) पाप काटने और चित्त हरने वाला है वह सब रूपों में अद्वितीय, अर्चनीय ज्योति है । अभुक्ता प्रकृति उसके तेज को अपने में धरती है, वह प्रकट होकर सर्व बन्धनों का जलाने हारा होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे कृपाळू अध्यापका ! तू विद्युल्लतेच्या तेजाची विद्या आम्हाला शिकव. ज्या तेजाने आम्ही दूताप्रमाणे कार्य करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us know the motive force and paths of your brilliant light, both centripetal and centrifugal, the light and fire moving ahead, all round, blazing bright, unique among all forms of light. Just as an unpregnated female receives and carries the new embryo, so held in the unkindled vedi you light up immediately on ignition and rise to the heights as carrier of flames and fragrance.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a learned person (a scientist) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! let us attain that attractive splendor of the one who is beautiful and interesting among embodied persons and incomparable. As a chaste woman bears seed (in her womb ), in the same manner, you bear qualities within and manifest yourself as a great messenger of truth. Therefore, you are worthy of respect.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O kind teacher ! enlighten us about the science of energy, so that we may be able to utilize it like a messenger.
Foot Notes
(कृष्णम् ) कर्षकम् । = Attractive. (रुशतः ) सुरूपस्य रुचिकरस्य। = Of the handsome and interesting. (अप्रवीता ) अगच्छन्ती (अधर्ममार्गे) । = Chaste, not going as troy.
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