ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निमच्छा॑ देवय॒तां मनां॑सि॒ चक्षूं॑षीव॒ सूर्ये॒ सं च॑रन्ति। यदीं॒ सुवा॑ते उ॒षसा॒ विरू॑पे श्वे॒तो वा॒जी जा॑यते॒ अग्रे॒ अह्ना॑म् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । अच्छ॑ । दे॒व॒ऽय॒ताम् । मनां॑सि । चक्षूं॑षीऽइव । सूर्ये॑ । सम् । च॒र॒न्ति॒ । यत् । ई॒म् । सुवा॑ते । उ॒षसा॑ । विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे । श्वे॒तः । वा॒जी । जा॒य॒ते॒ । अग्रे॑ । अह्ना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमच्छा देवयतां मनांसि चक्षूंषीव सूर्ये सं चरन्ति। यदीं सुवाते उषसा विरूपे श्वेतो वाजी जायते अग्रे अह्नाम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। अच्छ। देवऽयताम्। मनांसि। चक्षूंषिऽइव। सूर्ये। सम्। चरन्ति। यत्। ईम्। सुवाते इति। उषसा। विरूपे इति विऽरूपे। श्वेतः। वाजी। जायते। अग्रे। अह्नाम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यद्यथाऽह्नामग्रे विरूपे उषसेम् सुवाते तयोः श्वेतो वाजी जायते तथाग्निं देवयतां सूर्ये चक्षूंषीव परमात्मनि मनांस्यच्छा सञ्चरन्ति ॥४॥
पदार्थः
(अग्निम्) पावकम् (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देवयताम्) कामयमानानाम् (मनांसि) अन्तःकरणानि (चक्षूंषीव) (सूर्ये) सवितरीव सूर्ये (सम्) (चरन्ति) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (यत्) यथा (ईम्) (सुवाते) उत्पादयतः (उषसा) रात्रिदिने (विरूपे) विरुद्धस्वरूपे (श्वेतः) (वाजी) विज्ञापको दिवसः (जायते) उत्पद्यते (अग्रे) (अह्नाम्) दिनानाम् ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! यथा दिनं तथा विद्वांसो यथा रात्रिस्तथाऽविद्वांसः सन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यत्) जैसे (अह्नाम्) दिनों के (अग्रे) अग्रभाग में (विरूपे) विरुद्धस्वरूप (उषसा) रात्रि और दिन (ईम्) प्राप्त हुई क्रिया को (सुवाते) उत्पन्न कराते हैं और उन में (श्वेतः) श्वेतवर्ण (वाजी) जनानेवाला अर्थात् कार्य्यों की सूचना दिलानेवाला दिवस (जायते) उत्पन्न होता है, वैसे (अग्निम्) अग्नि की (देवयताम्) कामना करते हुए जनों के बीच (सूर्ये) सूर्य्य में (चक्षूंषीव) नेत्रों के सदृश परमात्मा में (मनांसि) अन्तःकरण (अच्छा) उत्तम प्रकार (सम्, चरन्ति) प्राप्त होते हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जैसे दिन वैसे विद्वान् जन और जैसे रात्रि वैसे अविद्वान् हैं ॥४॥
विषय
शिष्यों का भुमिवत् और अग्निवत् ज्ञानाहुतियों का ग्रहण
भावार्थ
भा०- ( उपसा विरूपे ) भिन्न भिन्न रूप के दिन और रात्रि जिस प्रकार ( सुवाते ) उत्पन्न करते हैं और ( अह्नाम् अग्रे ) दिनों के पूर्व भाग में (श्वेतः) श्वेत सूर्य ( जायते ) उत्पन्न होता है, उसी प्रकार ( यत् ) जब ( उपसा ) एक दूसरे को भलीभांति चाहने वाले ( विरूपे) भिन्न भिन्न रूप के या विशेष कान्तियुक्त, सुरूप माता पिता ( ई सुवाते ) इस पुत्र को उत्पन्न करते हैं तब ( अह्नाम् अग्रे ) जीवन के दिनों के पूर्व भाग मैं (वाजी जायते ) बलयुक्त पुत्र उत्पन्न होता है। और इसी प्रकार जब ( उपसा विरूपे) विविध रूपों से युक्त पाप अज्ञान के दाहक, आचार्य और सावित्री (ई सुवाते) इस शिष्य को उत्पन्न करते हैं तब भी (अह्नां अग्रे) दिनों के पूर्व भाग में सूर्य के तुल्य, जीवन के प्रथम भाग में (श्वेतः वाजी जायते ) शुद्ध, आचारवान्, ज्ञानयुक्त, बलवान् शिष्य उत्पन्न होता है । उसी प्रकार विद्वान् और अविद्वानों के बीच ( श्वेतः वाजी ) सूर्यवत् तेजस्वी, संग्राम-विजयी बलवान् राजा उत्पन्न होता है | ( देवतां चक्षूंषि इव ) प्रकाश की किरणों की कामना करने वाले मनुष्यों की आंखें जिस प्रकार ( सूर्ये सं-चरन्ति ) सूर्य के आधार पर आगे बढ़ती हैं उसी प्रकार ( देवयतां ) ज्ञान प्रकाश की कामना करने वाले पुरुषों के ( मनांसि ) मन भी ( अग्निम् ) अग्रणी, ज्ञानी, विद्वान्, तेजस्वी पुरुष और परमेश्वर को (अच्छ संचरन्ति) भली प्रकार प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥ द्वादशचॅ सूक्तम् ॥
विषय
सतत प्रभुस्मरण
पदार्थ
[१] (देवयताम्) = सब दिव्यगुणों को प्राप्त करने की कामनावाले व महान् देव को प्राप्त करने की कामनावाले संन्यस्त पुरुषों के (मनांसि) = मन (अग्निं अच्छा) = उस आगे ले चलनेवाले प्रभु की ओर इस प्रकार (संचरन्ति) = जाते हैं, इव जैसे कि सामान्य लोगों की (चक्षूंषि) = आँखें (सूर्ये) = सूर्य में गतिवाली होती हैं। उदय होते हुए सूर्य की ओर जैसे हमारी आँखें जाती हैं, उसी प्रकार (देवयन्) = पुरुषों के मन प्रभु की ओर जाते हैं । [२] (यत्) = जब (ईम्) = निश्चय से (उषसा) = [उष दाहे] सब दोषों के दहन से विरूपे विशिष्टरूपवाले मस्तिष्क व शरीर (सुवाते) = अपने में ज्ञान व शक्ति को प्रादुर्भूत करते हैं [जनयत: सा०], तो (अह्नां अग्रे) = दिनों के अग्रभाग में, ब्राह्ममुहूर्त के समय,(श्वेतः) = वह शुद्ध (वाजी) = शक्तिशाली प्रभु (जायते) = हमारे लिये प्रकट होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-दोषों का दहन करके, मस्तिष्क व शरीर को ज्ञान व शक्ति से भर के, हम देवयन् मन से प्रभु का दर्शन करें। ऐसा करनेवाला ही आदर्श संन्यासी है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोक दिवसाप्रमाणे असतात व अविद्वान लोक रात्रीप्रमाणे असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The minds of holy celebrants of Divinity turn intently to Agni as their eyes wait for and turn to the rising sun. And when the heaven and earth, both different of form, one bright and the other dark and green, bring forth this Agni at the rise of the dawn, day light appears and the world grows bright.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of preachers vs audience goes on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! indeed, the day and night of diametrically opposed form generate the white one (day) which throws light on all. In the same manner, like the eyes of the persons seek Agni from the sun. Indeed, the minds of the Yogis ponder well over God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
o men! you should know that the enlightened persons are like the days and un-educated persons are like the nights.
Foot Notes
(उषसा ) रात्रिदिने । = Night and day. (वाजी) विज्ञापको दिवसः । वाजी is from वज गतो । गते स्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थमादाय विज्ञापक इति व्याख्या। = Day that shows all things. (देवमयताम् ) कामयमानानाम् । (देवयताम ) दिवु - क्रीडा विजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्रकान्तिगातिषु । कान्तिः-कामना, अत्र तदर्थं ग्रहणम् । = Of persons seeking the welfare of all.
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