ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
शुन॑श्चि॒च्छेपं॒ निदि॑तं स॒हस्रा॒द्यूपा॑दमुञ्चो॒ अश॑मिष्ट॒ हि षः। ए॒वास्मद॑ग्ने॒ वि मु॑मुग्धि॒ पाशा॒न्होत॑श्चिकित्व इ॒ह तू नि॒षद्य॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठशुनः॒ऽशेप॑म् । चि॒त् । निऽदि॑तम् । स॒हस्रा॑त् । यूपा॑त् । अ॒मु॒ञ्चः॒ । अश॑मिष्ट । हि । सः । ए॒व । अ॒स्मत् । अ॒ग्ने॒ । वि । मु॒मु॒ग्धि॒ । पासा॑न् । होत॒रिति॑ । चि॒कि॒त्वः॒ । इ॒ह । तु । नि॒ऽसद्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुनश्चिच्छेपं निदितं सहस्राद्यूपादमुञ्चो अशमिष्ट हि षः। एवास्मदग्ने वि मुमुग्धि पाशान्होतश्चिकित्व इह तू निषद्य ॥७॥
स्वर रहित पद पाठशुनः। चित्। शेपम्। निऽदितम्। सहस्रात्। यूपात्। अमुञ्चः। अशमिष्ट। हि। सः। एव। अस्मत्। अग्ने। वि। मुमुग्धि। पाशान्। होतरिति। चिकित्वः। इह। तु। निऽसद्य ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने विद्वँस्त्वं सहस्राद् यूपान्निदितं शुनःशेपं चिदमुञ्चो हि यतः सोऽशमिष्टैव। हे होतश्चिकित्व ! इह निषद्याऽस्मत् पाशाँस्तू वि मुमुग्धि ॥७॥
पदार्थः
(शुनःशेपम्) सुखस्य प्रापकमिन्द्रियारामम् (चित्) अपि (निदितम्) निन्दितम् (सहस्रात्) असङ्ख्यात् (यूपात्) मिश्रितादमिश्रिताद् बन्धनात् (अमुञ्चः) मुच्याः (अशमिष्ट) शाम्यति (हि) यतः (सः) (एव) (अस्मत्) (अग्ने) विद्वन् (वि) (मुमुग्धि) विमोचय (पाशान्) बन्धनानि (होतः) (चिकित्वः) बुद्धिमन् (इह) युक्ते धर्म्ये व्यवहारे (तू) पुनः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (निषद्य) निषण्णो भूत्वा ॥७॥
भावार्थः
विदुषामिदमेवावश्यकं कृत्यमस्ति यत्सर्वान् मनुष्यानविद्याऽधर्म्माचरणात् पृथक्कृत्य विदुषो धार्मिकान् सम्पाद्य तेषां दुःखबन्धनान्मोचनं सततं कर्त्तव्यमिति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् ! आप (सहस्रात्) असंख्य (यूपात्) मिले वा न मिले हुए बन्धन से (निदितम्) निन्दित (शुनःशेपम्) सुख के प्राप्त कराने और इन्द्रियाराम अर्थात् इन्द्रियों में रमण रखनेवाले को (चित्) भी (अमुञ्चः) त्याग करो (हि) जिससे (सः) वह (अशमिष्ट) शान्त होता (एव) ही है। हे (होतः) हवन करनेवाले (चिकित्व) बुद्धिमान् ! (इह) यहाँ युक्तधर्म्म सम्बन्धी व्यवहार में (निषद्य) प्रवृत्त होकर (अस्मत्) हम लोगों से (पाशान्) संसाररूप बन्धनों को (तू) फिर (वि, मुमुग्धि) काटिये ॥७॥
भावार्थ
विद्वानों का यही आवश्यक कर्म्म है, जो सब मनुष्यों को अविद्या और अधर्म्माचरण से अलग कर विद्वान् धार्मिक बना उनका दुःखबन्धन छुड़ाना निरन्तर करना चाहिये ॥७॥
विषय
माता पुत्र के दृष्टान्त से आचार्य शिष्य और राजा और पृथिवी का वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा० - राजा का कर्त्तव्य । जिस प्रकार हे राजन् ! हे परमात्मन् ! तू ( शुनःशेपं चित् ) सुख के प्राप्त करने वाले ( नि-दितम् ) खूब कर्म-बंधनों से बंधे या निन्दित जीव को भी ( सहस्रात् ) सहस्रों वा अति दृढ़, मोहजनक बन्धन से ( अमुञ्चः) मुक्त कर देते हो (हि) क्योंकि वह ( अशमिष्ट हि ) स्तुति करता वा प्राकृतिक भोगों और पापाचारों से शान्त, उपरत हो जाता है । ( एव ) इसी प्रकार हे (अग्ने) ज्ञान प्रकाशक वा प्रकाशस्वरूप प्रभो ! और अग्नि के तुल्य तेजस्वी राजन् ! हे ( होतः ) ज्ञान और ऐश्वर्य-पदाधिकार देने वाले ! हे ( चिकित्वः ) ज्ञानवन्, औरों के चेताने वा अन्यों के भवरोग और राष्ट्र के शत्रु वा दुष्ट पुरुषों को रोगों के तुल्य ही दूर करनेहारे ! तू ( इह तु ) यहां इस न्यायासन पर ( निःसद्य ) सर्वोपरि विराज कर ( अस्मत् ) हम से ( पाशान् ) बन्धनों को ( वि मुमुग्धि ) विशेष रूप से दूर कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, ३, ७, ८ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
विषय
'होता- चिकित्वात्' आचार्य
पदार्थ
[१] आचार्य को ज्ञानी तो होना ही है 'चिकित्वान्', उसे लोकहित के कार्य में आहुति देनेवाला 'होता' भी बनना है। ऐसा ही आचार्य विद्यार्थियों का कल्याण कर सकता है। हे आचार्य ! तूने (सहस्त्राद् यूपात्) = हजारों विषय वासनाओं के खम्भों से (निदितम्) = बँधे हुए (शुनः शेपम्) = सुख आराम का ही निर्माण करनेवाले सुख भोगों में मस्त (चित्) = भी इस पुरुष को (अमुञ्चः) = उन विषय स्तम्भों से मुक्त किया है। इससे अब (सः) = वह (हि) = निश्चय से (अशमिष्ट) = शान्त जीवनवाला बना है। [२] (एवा) = इसी प्रकार (होत:) = प्राजापत्य यज्ञ में अपनी आहुति देनेवाले अथवा ज्ञान को देनेवाले, (चिकित्व:) = ज्ञानी आचार्य ! (इह) = यहाँ (तु) = निश्चय से (निषद्य) = हम लोगों में (आसीन) = होकर, (अग्ने) = हे अग्नि के समान ज्ञानाग्नि से दीप्त आचार्य ! (अस्मत्) = हमारे से (पाशान्) = जालों को (विमुमुग्धि) = छुड़ाइये। आपसे ज्ञान को प्राप्त करके हम विषय जालों से छूट जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञानी त्यागी आचार्यों के सम्पर्क से ज्ञान को प्राप्त करके हम विषय जाल से मुक्त हो जाएँ।
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांना अविद्या व अधर्माचरणापासून पृथक करून विद्वान धार्मिक बनवून त्यांना निरन्तर दुःखबंधनातून मुक्त करावे. हेच विद्वानांचे कर्तव्य आहे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, O lord of light and ruler of the world, you save even shunah-shepa, the connoisseur lost in senses, reviled and condemned; you save him from a thousand snares of the world so that the man settles back in peace of mind. Same way, O lord and light of the world, come, O highpriest of the yajna of life, grace our yajna here and snap the snares of suffering and slavery off our body, mind and soul.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! you loosen from thousand-fold bondage even of a man who is engrossed in sensual pleasures, because he attains peace (by your association and teachings). In the same manner, o wise leader ! seated in this righteous dealings, free us from all bondages.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The duty of the enlightened persons is to separate people from all ignorance, and unrighteous conduct and thus make them highly learned and righteous. Thus they should constantly make them free from the bondage of all miseries.
Foot Notes
(शुनःशेपम् ) सुखस्य प्रापकम् इन्द्रियाण्मम् । = A man engrossed in sensual pleasures, but trying to confer happiness on others. (यूपात्) मिश्रितादमिश्रिताद् बन्धनात् । = From bondage of all kinds whether mixed or otherwise. (चिकित्वः ) बुद्धिमन् । : O wise man !
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