ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णस्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स अश्वमेधश्च भारतोऽविर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इन्द्रा॑ग्नी शत॒दाव्न्यश्व॑मेधे सु॒वीर्य॑म्। क्ष॒त्रं धा॑रयतं बृ॒हद्दि॒वि सूर्य॑मिवा॒जर॑म् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । श॒त॒ऽदाव्नि॑ । अश्व॑ऽमेधे । सु॒ऽवीर्य॑म् । क्ष॒त्रम् । धा॒र॒य॒त॒म् । बृ॒हत् । दि॒वि । सूर्य॑म्ऽइव । अ॒जर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी शतदाव्न्यश्वमेधे सुवीर्यम्। क्षत्रं धारयतं बृहद्दिवि सूर्यमिवाजरम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राग्नी इति। शतऽदाव्नि। अश्वऽमेधे। सुऽवीर्यम्। क्षत्रम्। धारयतम्। बृहत्। दिवि। सूर्यम्ऽइव। अजरम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथोपदेशविषये राज्योपदेशविषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्राग्नी इव वर्त्तमानावध्यापकौपदेशकौ ! शतदाव्न्यश्वमेधे दिवि सूर्य्यमिव सुवीर्य्यमजरं बृहत् क्षत्रं धारयतं यथावदुपदिशेतम् ॥६॥
पदार्थः
(इन्द्राग्नी) वायुविद्युताविवाध्यापकोपदेशकौ (शतदाव्नि) असङ्ख्यदाने (अश्वमेधे) राज्यपालनाख्ये व्यवहारे (सुवीर्य्यम्) सुष्ठु वीर्य्यं पराक्रमो बलं च यस्मिंस्तत् (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलं राष्ट्रं वा (धारयतम्) (बृहत्) महत् (दिवि) प्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्षे (सूर्य्यमिव) (अजरम्) नाशरहितम् ॥६॥
भावार्थः
हे राजादयो जनाः ! प्रयत्नेन भवन्त आप्तानध्यापकोपदेशकान् बहून् स्वपरराज्ये प्रचारयन्तु यतो युष्माकं राज्यमक्षयं भवेदिति ॥६॥ अत्राग्निविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उपदेशविषय में राज्योपदेशविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) वायु और बिजुली के सदृश अध्यापक और उपदेशक जनो ! (शतदाव्नि) असङ्ख्य पदार्थों को देनेवाले (अश्वमेधे) राज्यपालन व्यवहार और (दिवि) प्रकाशयुक्त अन्तरिक्ष में (सूर्य्यमिव) सूर्य्य के सदृश (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम तथा बलयुक्त और (अजरम्) नाश से रहित (बृहत्) बड़े (क्षत्रम्) क्षत्रियों के कुल वा राज्यदेश को (धारयतम्) धारण करो अर्थात् यथायोग्य उपदेश दीजिये ॥६॥
भावार्थ
हे राजा आदि जनो ! प्रयत्न से आप लोग यथार्थवक्ता, बहुत अध्यापक और उपदेशकों को अपने और दूसरे के राज्य में प्रचार कराइये जिससे आप लोगों का राज्य नाशरहित होवे ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि विद्वान् और राजा के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
शिष्य गुरु के कर्त्तव्य । अश्वमेध की व्याख्या ।
भावार्थ
भा०- ( इन्द्राग्नी) विद्युत् वायु और अग्नि दोनों तत्व जिस प्रकार (दिवि बृहत् सूर्यम् इव ) आकाश में बड़े भारी सूर्य को धारण करते हैं उसी प्रकार है ( इन्द्राग्नी ) ऐश्वर्यवान् और तेजस्वी पुरुषो ! आप दोनों, ( शतदान्वि ) सैकड़ों ऐश्वर्य देने वाले ( अश्वमेधे ) अश्वमेध अर्थात् राष्ट्र में ( सुवीर्यम् ) बल युक्त, ( बृहत् ) बड़ा भारी ( सूर्यम् अजरम् ) तेज से युक्त अविनाशी, ( क्षत्रं ) सैन्य बल ( धारयतम् ) धारण करो । इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
व्यरुणस्त्रैवृष्ण्स्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स्य अश्वमेधश्च भारतोऽत्रिवी ऋषयः ॥ १-५ अग्निः । ६ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्द:- १, ३ निचृत्त्रिष्टुप । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप । ५, ६ भुरिगुष्णिक् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
'अश्वमेध' में 'क्षत्र व सूर्य' का स्थापन
पदार्थ
१. (शतदाव्नि) = [दाप् लवने] =शतवर्षपर्यन्त दोषों का लवन [छेदन] करनेवाले (अश्वमेधे) = इन्द्रियाश्वों से अपना मेल रखनेवाले- इन्हें न भटकने देनेवाले - उपासक में (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के देव [सर्वाणि बल कर्माणि इन्द्रस्य, अग्नि प्रकाश की देवता] (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट वीर्य को धारयते धारण करें। वस्तुतः वीर्यरक्षण का उपाय ही यही है कि हम बल व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले कार्यों में लगे रहें । २. ये इन्द्राग्नी (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (क्षत्रम्) = बल को (धारयतम्) = धारण करें तथा (दिवि) = मस्तिष्क रूप द्युलोक में (सूर्यम् इव) = सूर्य के समान (अजरम्) = न जीर्ण होनेवाले ज्ञान को धारण करें। यह वेदज्ञान प्रभु का अजरामर काव्य है, इसे हमारे लिए धारण करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम बुराइयों का संहार करनेवाले विश्वविजयी - अश्वमेध बनें | सर्वशक्तिसम्पन्न 'इन्द्र' हमारे लिए बृहत् क्षत्र [बल] को धारण कराएँ और अग्निवत् प्रकाशमान प्रभु ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त कराएँ । सब बुराइयों को दूर करके सब अच्छाइयों का ही वरण करनेवाली वृत्ति हमें 'विश्ववारा' बनाती है 'विश्वं भद्रम् एव वृणोति' अथवा 'विश्वं वारयति' अन्दर घुस जानेवाली काम, क्रोध, लोभ की वृत्तियों को निवारित करती हैं, इसीलिए यह 'आत्रेयी' है—'काम-क्रोध-लोभ' तीनों से दूर । यह आराधना करती है —
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा इत्यादी लोकांनो! तुम्ही प्रयत्नपूर्वक आप्त, अध्यापक व उपदेशक यांना आपल्या व इतरांच्या राज्यात प्रचार करावयास लावा. ज्यामुळे तुमचे राज्य निष्कंटक होईल. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May Indra and Agni, knowledge and power, force of law and enlightenment, generous and giving in a hundred ways, in this ashvamedha yajna, i.e., non violent holy plan and programme of national development and governance, enact, uphold and sustain the social order as they hold the sun in the vast heaven. Unaging, ever young harbingers of honour and valour to the system, ever fresh they are.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A sermon related with rulers is signified.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers! you are like the wind and electricity. In this Ashvamedha-dealing consisting of the proper administration of the State, there are hundred and one ways of giving in charity. Uphold the Kshatriyas or the State in which there is much strength, like the undecaying sun in the radiant heaven.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king and others! you should have many absolutely truthful enlightened teachers and preachers in your own as well as other countries. With that, your kingdom may be undecaying.
Foot Notes
(इन्द्राग्नी) वायुविदयुताविवाध्यापकपदेशकौ । = Teachers and preachers like the wind and electricity. (अश्वमेधे) राज्यपालनाख्ये व्यवहारे । = In dealings of the proper administration of the kingdom.
हिंगलिश (1)
Subject
वृषभ उत्तम राष्त्र बनाते हैं ।Bulls make excellent Nation
Word Meaning
उत्साह और ऊर्जा से पूर्ण सदैव अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मे विजयी, योग्य मनन युक्त आत्मज्ञान को धारण करने वाली परम बुद्धि से युक्त समाज, असङ्ख्य पदार्थों से सूर्य के सदृश उत्तम पराक्रम तथा बलयुक्त नाश से रहित महान राष्ट्र का निर्माण होता है.
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