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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ वे॒धसं॒ नील॑पृष्ठं बृ॒हन्तं॒ बृह॒स्पतिं॒ सद॑ने सादयध्वम्। सा॒दद्यो॑निं॒ दम॒ आ दी॑दि॒वांसं॒ हिर॑ण्यवर्णमरु॒षं स॑पेम ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वे॒धस॑म् । नील॑ऽपृष्ठम् । बृ॒हन्त॑म् । बृह॒स्पति॑म् । सद॑ने । सा॒द॒य॒ध्व॒म् । सा॒दत्ऽयो॑निम् । दमे॑ । आ । दी॒दि॒ऽवांसम् । हिर॑ण्यऽवर्णम् । अ॒रु॒षम् । स॒पे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वेधसं नीलपृष्ठं बृहन्तं बृहस्पतिं सदने सादयध्वम्। सादद्योनिं दम आ दीदिवांसं हिरण्यवर्णमरुषं सपेम ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वेधसम्। नीलऽपृष्ठम्। बृहन्तम्। बृहस्पतिम्। सदने। सादयध्वम्। सादत्ऽयोनिम्। दमे। आ। दीदिऽवांसम्। हिरण्यऽवर्णम्। अरुषम्। सपेम ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे धीमन्तो जना ! यूयं नीलपृष्ठं बृहन्तं बृहस्पतिं वेधसं सदन आ सादयध्वम्। वयं सादद्योनिं तं दीदिवांसं हिरण्यवर्णमरुषं दमे सभास्थान आ सपेम ॥१२॥

    पदार्थः

    (आ) (वेधसम्) मेधाविनम् (नीलपृष्ठम्) नीलसंवृत्तं पृष्ठं यस्य तम् (बृहन्तम्) महान्तम् (बृहस्पतिम्) महतां पतिम् (सदने) सभास्थाने (सादयध्वम्) स्थापयत (सादद्योनिम्) सीदन्तं धर्म्ये कारणे (दमे) गृहे (आ) (दीदिवांसम्) देदीप्यमानं दातारम् (हिरण्यवर्णम्) तेजस्विनम् (अरुषम्) मर्मविद्यायां सीदन्तम् (सपेम) सपथैर्नियमयेम ॥१२॥

    भावार्थः

    त एव मनुष्या राज्यं कर्त्तुं वर्धयितुं च शक्नुयुर्ये धर्मिष्ठान् कृतज्ञान् कुलीनान् विदुषः सभायां स्थापयेयुस्तत्र स्थापनसमये सपथैर्यूयमन्यायं कदाचिन्मा करिष्यथेति प्रलम्भयेयुः ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे बुद्धिमान् जनो ! आप लोग (नीलपृष्ठम्) नीलगुण से युक्त पृष्ठ जिसका उस (बृहन्तम्) बड़े (बृहस्पतिम्) बड़ों के स्वामी (वेधसम्) बुद्धिमान् को (सदने) सभा के स्थान में (आ, सादयध्वम्) उत्तम प्रकार स्थित कीजिये। और हम लोग (सादद्योनिम्) धर्मसम्बन्धी कारण में स्थित होते और (दीदिवांसम्) निरन्तर प्रकाशमान देनेवाले (हिरण्यवर्णम्) तेजस्वी (अरुषम्) मर्मविद्या में स्थित होते हुए को (दमे) गृह में अर्थात् सभास्थान में (आ, सपेम) अच्छे प्रकार सपथों से नियत करावें ॥१२॥

    भावार्थ

    वे ही मनुष्य राज्य करने और बढ़ाने को समर्थ होवें, जो धर्मिष्ठ और किये हुए उपकारों को जाननेवाले, कुलीन विद्वानों को सभा में स्थित करें तथा वहाँ स्थापनसमय में सपथों से आप लोग अन्याय को कभी मत करो, ऐसा प्रलम्भन करावें ॥१२॥

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    विषय

    शस्त्र-सज्जित राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( वेधसं) विद्वान्, उत्तम कर्म करने में कुशल, ( नील-पृष्ठं ) श्याम रूप मेघ के समान प्रचुर द्रव्य दान करने वाले, वा ( नील-पृष्ठं ) अपनी पीठ पर अन्यों को आश्रय देने वाले (बृहन्तं ) बड़े ( बृहस्पतिम् ) वेदवाणी और बड़े राष्ट्र के पालक पुरुष को ( सदने ) उत्तम गृह वा उत्तम पद पर ( सादयध्वम् ) स्थापित करो। इसी प्रकार (दमे ) दण्डाधिकार के पद पर भी ( सादद्-योनिम् ) सभाभवन में न्यायासन पर विराजने वाले ( दीदिवांसं ) तेजस्वी और सत्य न्याय निर्णय देने वाले, ( हिरण्य-वर्णम् ) सुवर्णवत् शुद्ध, निष्कपट हित और रुचिकर वर्णों वा अक्षरों, पदों का प्रयोग करने वाले वा तेजस्वी, ( अरुषम् ) रोष, क्रोध से रहित शान्त स्वभाव, पुरुष को हम ( सपेम ) प्राप्त कर अपने को संगठित कर एकत्र होकर रहें । न्यायशील राजा को पाकर प्रजा संगठित होकर रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    बृहस्पति की पूजा

    पदार्थ

    [१] उस प्रभु को सदने इस शरीर गृह में, हृदयरूप आसन पर (आसादयध्वम्) = बिठाओ । जो प्रभु (वेधसम्) = सारे ब्रह्माण्ड के निर्माता हैं। (नीलपृष्ठम्) = [नीडपृष्ठं] जिनकी पीठ सारे प्राणियों को आधार देनेवाली है, सारे प्राणी इस प्रभु रूप 'नीड' में ही आश्रय पाते हैं। (बृहन्तम्) = जो अत्यन्त बढ़े हुए है। (बृहस्पतिम्) = सब ज्ञानों के स्वामी हैं। [२] हम (अरुषम्) = उस आरोचमान प्रभु का (सपेम) = पूजन करें, जो (सादद् योनिम्) = इस शरीर गृह में निवास करते हैं 'प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः' । (दमे) = इस शरीर गृह में (आदीदिवांसम्) = (सर्वतः) = दीप्ति को करनेवाले हैं और (हिरण्यवर्णम्) = ज्योतिर्मय वर्णवाले हैं [आदित्यवर्णम्] सूर्य की तरह दीप्त रूपवाले हैं, वस्तुतः प्रकाश ही प्रकाश हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का हमें सदा इस रूप में उपासन करना चाहिये कि वे ही निर्माता हैं, धारण करनेवाले हैं, महान् हैं, ज्ञान के स्वामी हैं। शरीरों में स्थित हुए हुए हमें दीप्ति को प्राप्त करानेवाले हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी धार्मिक व उपकार जाणणाऱ्या कुलीन विद्वानांना (राज्य) सभेत स्थित करतात. तेथे चांगल्या मार्गाचा अवलंब करा व अन्याय करू नका, अशी शिकवण देतात. तीच माणसे राज्य करण्यास व वाढविण्यास समर्थ बनू शकतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Enshrine the eminent sage and scholar specialised in the round blue skies, great and rising pursuant of space, in your seat of yajnic learning, in the home and in the assembly : the scholar concentrating on the ultimate natural causes, bright and illuminative, golden in performance, the very dawn of light and knowledge, we honour and serve.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and attributes of a learned person are narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you should come for doing good to the world like the sun, which is upholder or sustainer of universe, giver of great delight, taker of the sap with its protective rays, covering (preserving) the powers of speech, not destroying the herbs and plants, upholder of the desirable life, having the white, red and black colors like its horns, causer of the rain and is beneficent.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those learned persons become venerable in the world who tell others about the matter endowed with three qualities of सत्व, रज, तम denoting light, movement and inertia and noble speech, non-violent, destroyers (curer) of diseases with good medicines and increasers of life by teaching about Brahmacharya.

    Foot Notes

    (नीलपृष्ठम् ) नीलसंवृत्त पृष्ठं यस्य तम् । = Whose back is equipped with blue (sober) quality. (सादद्योनिम् ) सीदन्तं धर्म्ये कारणे । = Ingrained in the spiritual cause. (दीदिवांसम् ) देदीप्यमानं दातारम् । = Constantly shining. (अरुषम् ) मर्म विद्यायां सीदन्तम् । = To the one who was acquired the depth of knowledge.

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