ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रतिप्रभ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तन्नो॑ अन॒र्वा स॑वि॒ता वरू॑थं॒ तत्सिन्ध॑व इ॒षय॑न्तो॒ अनु॑ ग्मन्। उप॒ यद्वोचे॑ अध्व॒रस्य॒ होता॑ रा॒यः स्या॑म॒ पत॑यो॒ वाज॑रत्नाः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठतत् । नः॒ । अ॒न॒र्वा । स॒वि॒ता । वरू॑थम् । तत् । सिन्ध॑वः । इ॒षय॑न्तः । अनु॑ । ग्म॒न् । उप॑ । यत् । वोचे॑ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । होता॑ । रा॒यः । स्या॒म॒ । पत॑यः । वाज॑ऽरत्नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तन्नो अनर्वा सविता वरूथं तत्सिन्धव इषयन्तो अनु ग्मन्। उप यद्वोचे अध्वरस्य होता रायः स्याम पतयो वाजरत्नाः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठतत्। नः। अनर्वा। सविता। वरूथम्। तत्। सिन्धवः। इषयन्तः। अनु। ग्मन्। उप। यत्। वोचे। अध्वरस्य। होता। रायः। स्याम। पतयः। वाजऽरत्नाः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं वर्त्तित्वा किं प्राप्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
अध्वरस्य होताऽहं सर्वान् प्रति यदुप वोचे तन्नो वरूथमनर्वा सविता तदिषयन्तः सिन्धवोऽनु ग्मन्। येन वाजरत्ना वयं रायः पतयः स्यामः ॥४॥
पदार्थः
(तत्) (नः) अस्मान् (अनर्वा) अविद्यमानाश्वः (सविता) सूर्य्यः (वरूथम्) गृहम् (तत्) (सिन्धवः) नद्यः समुद्रा वा (इषयन्तः) प्राप्नुवन्तः प्रापयन्तो वा (अनु) (ग्मन्) अनुगच्छन्ति (उप) (यत्) (वोचे) उपदिशेयम् (अध्वरस्य) अहिंसामयस्य यज्ञस्य (होता) आदाता (रायः) धनस्य (स्याम) भवेम (पतयः) स्वामिनः (वाजरत्नाः) विज्ञानधनवन्तः ॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यदि यूयं सूर्य्यादिवत् सततं पुरुषार्थिनः स्यात् तर्हि श्रीमन्तो भवेत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या वर्त्ताव करके क्या प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(अध्वरस्य) अहिंसारूप यज्ञ का (होता) ग्रहण करनेवाला मैं सब के प्रति (यत्) जिसका (उप, वोचे) उपदेश करूँ (तत्) उसके और (नः) हम लोगों के (वरूथम्) गृह (अनर्वा) घोड़े जिसके नहीं वह और (सविता) सूर्य्य तथा (तत्) उसको (इषयन्तः) प्राप्त होते वा प्राप्त कराते हुए। (सिन्धवः) नदियाँ वा समुद्र (अनु, ग्मन्) पीछे चलते हैं, जिससे (वाजरत्नाः) विज्ञान धन है जिनके, ऐसे हम लोग (रायः) धन के (पतयः) स्वामी (स्याम) होवें ॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो तुम सूर्य्य आदि के सदृश निरन्तर पुरुषार्थी होओ तो लक्ष्मीवान् होओ ॥४॥
विषय
अहिंसक दयाशील राजा के प्रति प्रजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( सविता ) सूर्य ( अनर्वा) अहिंसक रूप होकर ( नः वरूथं ) हमारे गृह को प्राप्त हो, इसी प्रकार अहिंसक, तेजस्वी पुरुष हमारे राष्ट्र को प्राप्त हो, (सिन्धवः ) नदियें, बहती जल-धाराएं ( इषयन्तः ) वेग से बहती हुई (तत् अनुग्मन् ) उसके पीछे आवें । उसी प्रकार तेजस्वी सेनापति के पीछे २ वाणादि साधते हुए (सिन्धवः ) सैन्य प्रवाह चलें । (यत्) जैसा कि (अध्वरस्य ) अहिंसनीय, राष्ट्र या राज्य कार्य का (होता) धारक राजा (उपवोचे) आज्ञा करे उसी प्रकार हम प्रजा गण (वाज-रत्नाः ) अन्न और उत्तम रत्नों के स्वामी, और ( रायः पतयः ) धन के मालिक ( स्याम ) हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रतिप्रभ आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:- १, २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् पंक्तिः ॥
विषय
रायः पतयः-वाजरत्नाः
पदार्थ
[१] (अनर्वा) = किसी से भी हिंसित न होनेवाला (सविता) = सबका प्रेरक प्रभु (नः) = हमारे लिये (तत्) = उस (वरूथम्) = कष्टों के निवारक धन [wealth] को दे । (इषयन्तः) = हमारे लिये उत्तम प्रेरणा को देती हुई (सिन्धवः) = ज्ञान की नदियाँ (तत्) = उस धन को (अनुग्मन्) = अनुकूलता से प्राप्त करायें। [२] (यत्) = जब मैं (अध्वरस्य होता) = इस जीवन यज्ञ का होता बनता हूँ, तो (उप वोचे) = यही प्रार्थना करता हूँ कि हम सब (रायः पतय स्याम) = धनों की स्वामी हों। धनों के दास न बन जाएँ। धन के दास बनते ही सब यज्ञ समाप्त हो जायेंगे और हमारा जीवन पापमय हो जाएगा। (वाजरत्ना:) = हम शक्तिरूप रमणीय धनवाले हों। धन के स्वामी बनकर विषयों में न फँसेंगे तो यह शक्तिरूप धन भी हमारे जीवन को रमणीय बनायेगा ही। हमें प्रभु
भावार्थ
भावार्थ- आवश्यक धन प्राप्त करायें। कर्मों में प्रेरक ज्ञान भी हमें धन दे, अर्थात् ज्ञानपूर्वक कर्मों को करते हुए हम धनार्जन करें। इस जीवन यज्ञ हम धनों के दास न बन जाएँ और शक्तिरूप रमणीय धनवाले हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जर तुम्ही सूर्यासारखे सतत पुरुषार्थी व्हाल तर श्रीमंत बनाल. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May lord Savita, creator, with his radiating energy, grant us that treasure of cherished values of hearth and home which I celebrate as organiser and achiever of yajnic production, and which the flowing rivers and swelling seas promote with love and desire in obedience to the lord. O lord, we pray, may we, blest with energy and felicity of existence, be protectors and promoters of the wealth of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do and what should they attain is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I am the accepter of the non-violent Yajna and tell all the people about the Yajna. Let the members of my family at home follow it. Let a man who is benevolent like the horseless sun follow it and let good women who are like the rivers or who are oceans of virtues follow it. It leads us towards happiness, so that we may become the lords of riches and endowed with the wealth of true knowledge;
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if you become ever industrious like the sun, then you will surely become wealthy.
Foot Notes
(वरूपम्) गृहम् । वरूथमिति गृहनाम (N G 3, 4 ) = Home. (अध्वरस्य ) अहिंसामयस्य यज्ञस्य । अध्वर इति यज्ञनाम । ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेधः (NKT 2, 8 ) = Of the non-violent Yajna. (वाजरत्नाः ) विज्ञान-धनवन्तः । वाजः (वज) गतौ ( भ्वा० ) गतेस्त्रिष्वर्थेष्वत्र ज्ञानार्थग्रहणम् = Endowed with the wealth of true knowledge.
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