ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 53/ मन्त्र 8
आ या॑त मरुतो दि॒व आन्तरि॑क्षाद॒मादु॒त। माव॑ स्थात परा॒वतः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒त॒ । म॒रु॒तः॒ । दि॒वः । आ । अ॒न्तरि॑क्षात् । अ॒मात् । उ॒त । मा । अव॑ । स्था॒त॒ । प॒रा॒ऽवतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यात मरुतो दिव आन्तरिक्षादमादुत। माव स्थात परावतः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठआ। यात। मरुतः। दिवः। आ। अन्तरिक्षात्। अमात्। उत। मा। अव। स्थात। पराऽवतः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 53; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं प्राप्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मरुतो ! यूयमन्तरिक्षादुतामाद्दिव आ यात परावतो मावाऽऽस्थात ॥८॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (यात) प्राप्नुत (मरुतः) मनुष्याः (दिवः) कामनाः (आ) (अन्तरिक्षात्) (अमात्) गृहात् (उत) अपि (मा) (अव) (स्थात) तिष्ठत (परावतः) दूरदेशात् ॥८॥
भावार्थः
त एव मनुष्याः कामसिद्धिमाप्नुवन्ति ये विरोधं त्यक्त्वा विद्यावन्तो भवन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या प्राप्त करना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मरुतः) मनुष्यो ! आप लोग (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष (उत) और (अमात्) गृह से (दिवः) कामनाओं को (आ) सब प्रकार से (यात) प्राप्त हूजिये और (परावतः) दूर देश से (मा) नहीं (अव, आ, स्थात) अच्छे प्रकार से स्थित हूजिये ॥८॥
भावार्थ
वे ही मनुष्य कामना की सिद्धि को प्राप्त होते हैं, जो विरोध का त्याग करके विद्वान् होते हैं ॥८॥
विषय
जलप्रवाह, अश्व, नदी, वायु आदि दृष्टान्त से वैश्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे ( मरुत: ) प्रजाजनों ! हे व्यापारी वर्ग के प्रजाजनो ! हे वीर पुरुषो ! आप लोग वायुवत् (दिवः ) भूमि और ( अन्तरिक्षात् ) आकाश से ( उत) और ( अमात् ) गृह और ( परावतः ) दूर २ के देश से भी (आयात) आया जाया करो । ( मा अवस्थात ) किसी स्थान पर रुककर मत पड़े रहा करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१ भुरिग्गायत्री । ८, १२ गायत्री । २ निचृद् बृहती । ९ स्वराड्बृहती । १४ बृहती । ३ अनुष्टुप् । ४, ५ उष्णिक् । १०, १५ विराडुष्णिक् । ११ निचृदुष्णिक् । ६, १६ पंक्तिः ७, १३ निचृत्पंक्तिः ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'द्युलोक-अन्तरिक्षलोक व पृथिवीलोक'
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो! (दिवः) = द्युलोक के हेतु से, मस्तिष्करूप द्युलोक को ठीक रखने के लिये (आयात) = प्राप्त होवो । प्राणसाधना से मस्तिष्क में ज्ञानदीप्ति होती ही है 'योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्ति:' । (अन्तरिक्षाद् आ) [यात] = इस हृदयान्तरिक्ष के हेतु से तुम प्राप्त होवो । प्राणसाधना ही दोषों का उपक्षय करता है। (उत) = और (अमात्) = इस हमारे गृहभूत पार्थिव शरीर के हेतु से तुम हमें प्राप्त होवो। इस शरीर में होनेवाले सब रोग-कृमियों को प्राणों ने ही तो नष्ट करना है। [२] हे प्राणो ! (परावतः) = दूरदेश में (मा अवस्थात) = हमारे से परे मत ठहरो । अर्थात् हम सदा प्राणसाधना करनेवाले बनें। प्राणसाधना से हम दूर न हों।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना हमारे मस्तिष्क हृदय व शरीर तीनों को स्वस्थ बनायेगी ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विरोध दूर सारून विद्वान होतात त्याच माणसांच्या कामना पूर्ण होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, leading lights and stormy forces of nature and humanity, creators and givers, come, come from the lights of heaven, come from the skies, come from near and afar, be on the move, never stay still, do not stagnate.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men attain is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O thoughtful men ! come from the firmament and from your homes to attain your desire.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons only get their desires fulfilled who give up all malice or animosity and are endowed with good knowledge.
Foot Notes
(अमात्) गृहात् । अमा इति गृहनाम (NG 3, 4)। अत्र पुंसि प्रयोगश्छान्दसः । = From home. (दिवः) कामनाः । दिवु-धातोरने- कार्थेष्वत कान्त्यर्थग्रहणम् । कान्ति कामना । = Desires.
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