Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 54 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 54/ मन्त्र 14
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    यू॒यं र॒यिं म॑रुतः स्पा॒र्हवी॑रं यू॒यमृषि॑मवथ॒ साम॑विप्रम्। यू॒यमर्व॑न्तं भर॒ताय॒ वाजं॑ यू॒यं ध॑त्थ॒ राजा॑नं श्रुष्टि॒मन्त॑म् ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । र॒यिम् । म॒रु॒तः॒ । स्पा॒र्हऽवी॑रम् । यू॒यम् । ऋषि॑म् । अ॒व॒थ॒ । साम॑ऽविप्रम् । यू॒यम् । अर्व॑न्तम् । भ॒र॒ताय॑ । वाज॑म् । यू॒यम् । ध॒त्थ॒ । राजा॑नम् । श्रु॒ष्टि॒ऽमन्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं रयिं मरुतः स्पार्हवीरं यूयमृषिमवथ सामविप्रम्। यूयमर्वन्तं भरताय वाजं यूयं धत्थ राजानं श्रुष्टिमन्तम् ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम्। रयिम्। मरुतः। स्पार्हऽवीरम्। यूयम्। ऋषिम्। अवथ। सामऽविप्रम्। यूयम्। अर्वन्तम्। भरताय। वाजम्। यूयम्। धत्थ। राजानम्। श्रुष्टिऽमन्तम् ॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 54; मन्त्र » 14
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    राजादिभिः के के रक्षणीया इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मरुतो ! यूयं स्पार्हवीरं रयिमवथ यूयं सामविप्रमृषिमवथ यूयं भरतायार्वन्तं वाजं धत्थ यूयं श्रुष्टिमन्तं राजानं धत्थ ॥१४॥

    पदार्थः

    (यूयम्) (रयिम्) श्रियम् (मरुतः) पुरुषार्थिनो मनुष्याः (स्पार्हवीरम्) स्पार्हा अभिकाङ्क्षिता वीरा यस्मिन् (यूयम्) (ऋषिम्) वेदार्थविदम् (अवथ) रक्षथ (सामविप्रम्) सामसु मेधाविनम् (यूयम्) (अर्वन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (भरताय) धारणपोषणाय (वाजम्) वेगान्नविज्ञानादिकम् (यूयम्) (धत्थ) (राजानम्) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमानम् (श्रुष्टिमन्तम्) श्रुष्टी प्रशस्तं क्षिप्रकरं यस्मिँस्तम् ॥१४॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सुसहायेन श्रीर्विद्वांसः सेना राजा च धर्त्तव्याः ॥१४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजादिकों से कौन-कौन रक्षा पाने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मरुतः) पुरुषार्थी मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग (स्पार्हवीरम्) अभिकाङ्क्षित वीर जिसमें उस (रयिम्) लक्ष्मी की (अवथ) रक्षा कीजिये और (यूयम्) आप लोग (सामविप्रम्) सामों में बुद्धिमान् (ऋषिम्) वेदार्थ के जाननेवाले की रक्षा कीजिये और (यूयम्) आप लोग (भरताय) धारण और पोषण के लिये (अर्वन्तम्) प्राप्त होते हुए (वाजम्) वेग, अन्न और विज्ञान आदि को (धत्थ) धारण करो और (यूयम्) आप लोग (श्रुष्टिमन्तम्) अच्छा क्षिप्रकरण जिसमें उस (राजानम्) न्याय और विनय से प्रकाशमान को धारण कीजिये ॥१४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि उत्तम सहाय से लक्ष्मी, विद्वान्, सेना और राजा को धारण करें ॥१४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सामउपाय का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( मरुतः ) पुरुषार्थी, व्यवहारज्ञ एवं वीर पुरुषो ! आप लोग (स्पार्ह-वीरं ) वीर पुरुषों से अभिलाषा करने योग्य ( रयिम् ) ऐश्वर्यं को और ( साम-विप्रम् ) सामों को जानने वाले विद्वान् एवं 'साम' उपाय द्वारा राष्ट्र को विविध ऐश्वर्यों से पूर्ण करने में समर्थ, (ऋषिम् ) मन्त्रार्थं वेत्ता, द्रष्टा पुरुष को ( अवथ ) सुरक्षित रक्खो, उसको प्राप्त एवं सुप्रसन्न करो। और ( भरताय ) राष्ट्र के प्रजा जनों को भरण पोषण करने के लिये ( अर्वन्तं ) शत्रु का नाश करने वाले पुरुष एवं ( वाजं ) ज्ञान, बल, अन्न ऐश्वर्य को भी ( यूयं धत्थ) आप लोग धारण करो । और (श्रुष्टिमन्तम् ) शीघ्रता से कार्य सम्पादन करने वाले अन्न सम्पत्ति के स्वामी ( राजानं ) राजा, तेजस्वी पुरुष को भी ( धत्थ ) पुष्ट करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्दः- १, ३, ७, १२ जगती । २ विराड् जगती । ६ भुरिग्जगती । ११, १५. निचृज्जगती । ४, ८, १० भुरिक् त्रिष्टुप । ५, ९, १३, १४ त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सामविप्र-ऋषि

    पदार्थ

    [१] हे (मरुतः) = प्राणो! (यूयम्) = तुम (स्पार्हवीरम्) = स्पृहणीय वीर पुत्रोंवाले (रयिम्) = धन को (अवथ) = हमारे में सुरक्षित करते हो। प्राणसाधना द्वारा वह धन प्राप्त होता है जो वीर पुत्रों से युक्त करनेवाले होता है। (यूयम्) = तुम (सामविप्रम्) = उपासना द्वारा व शान्तिपूर्वक विशेषरूप से अपना पूरण (ऋषि) = तत्त्वद्रष्टा को (अवथ) = रक्षित करते हो । अर्थात् प्राणसाधक पुरुष 'सामविप्र ऋषि' बनता है । [२] हे प्राणो ! (यूयम्) = तुम (भरताय) = इस अपना ठीक से भरण करनेवाले के लिये (अर्वन्तम्) = शत्रुओं का संहार करनेवाली (वाजम्) = शक्ति को (धत्थ) = धारण करते हो, उस शक्ति को (यूयम्) = तुम देते हो जो (राजानम्) = उस साधक के जीवन को दीप्त बनाती है तथा (श्रुष्टिमन्तम्) = सुखवाली है। यह शक्ति उसके जीवन को नीरोगता आदि प्राप्त कराके सुखी बनाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से हम स्पृहणीय वीर सन्तानोंवाले धन को, ज्ञान को व शक्ति को प्राप्त करते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी उत्तम साह्याद्वारे लक्ष्मी, विद्वान, सेना व राजा यांचा स्वीकार करावा. ॥ १४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, leading lights of humanity, you protect and promote the heroic wealth, honour and excellence of the nation with her heroes. You revere, protect and promote the sage who chants the hymns of Samaveda in celebration of humanity and Divinity. You bear and bring the food, energy and the speed of progress for the maintenance of life on the globe, and you hold and maintain the harmonious, dynamic and glorious social order on earth.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The area and objects of protection by the king and other officers of the State are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O industrious mortals ! you protect our wealth of excellent men, and the seer who is knower of the meaning of the Vedas and is well-versed in Sama songs. You uphold sustenance development, and speed for a man who attains food and knowledge. You support a king who shines with justice and humility and who is prompt and active.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The administration should uphold wealth, highly learned persons, army and the ruler.

    Foot Notes

    (मरुतः ) पुरुषाथिनो मनुष्याः । मरुतः-मरुद् द्रवन्तीति (NKT 11, 2, 14 ) एवंविधा: पुरुषार्थिनः एव मनुष्याः सम्भवन्ति नेतरे | = Industrious persons. (अर्वन्तम् ) प्राप्नुवन्तम् । अवं is from ऋ गतिप्रापणयोः । अत्न प्राप्त्यर्थकः । = - One who attains. (वाजम् ) वेगान्न विज्ञानादिकम् । वाज इति वलनाम (NG 2, 9) वाजइति अन्नाम (NG 2, 7) वज गतौ (भ्वा० ) गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थग्रहणात् ज्ञानमित्यर्थः । = Speed good food and knowledge etc. ( श्रृष्टिमन्तम्) । श्रुष्टि प्रशस्तं क्षिप्रकरं यस्मिंस्तम् | = Admirable. Prompt, active.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top