ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
प्र वाता॒ वान्ति॑ प॒तय॑न्ति वि॒द्युत॒ उदोष॑धी॒र्जिह॑ते॒ पिन्व॑ते॒ स्वः॑। इरा॒ विश्व॑स्मै॒ भुव॑नाय जायते॒ यत्प॒र्जन्यः॑ पृथि॒वीं रेत॒साव॑ति ॥४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वाताः॑ । वान्ति॑ । प॒तय॑न्ति । वि॒ऽद्युतः॑ । उत् । ओष॑धीः । जिह॑ते । पिन्व॑ते । स्वः॑ । इरा॑ । विश्व॑स्मै । भुव॑नाय । जा॒य॒ते॒ । यत् । प॒र्जन्यः॑ । पृ॒थि॒वीम् । रेत॑सा । अव॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वाता वान्ति पतयन्ति विद्युत उदोषधीर्जिहते पिन्वते स्वः। इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते यत्पर्जन्यः पृथिवीं रेतसावति ॥४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वाताः। वान्ति। पतयन्ति। विऽद्युतः। उत्। ओषधीः। जिहते। पिन्वते। स्व१रिति स्वः। इरा। विश्वस्मै। भुवनाय। जायते। यत्। पर्जन्यः। पृथिवीम्। रेतसा। अवति ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं वेदितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यत्पर्जन्यो रेतसा पृथिवीमवति येन विश्वस्मै भुवनायेरा जायते घनाः स्वः पिन्वते येनौषधीरुज्जिहते यस्माद् विद्युतः पतयन्ति यत्र वाताः प्र वान्ति तं मेघं यथावद्यूयं विजानीत ॥४॥
पदार्थः
(प्र) प्रकर्षेण (वाताः) वायवः (वान्ति) गच्छन्ति (पतयन्ति) (विद्युतः) (उत्) (ओषधीः) (जिहते) प्राप्नुवन्ति (पिन्वते) सेवन्ते (स्वः) अन्तरिक्षम् (इरा) अन्नादिकम्। इरेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं० १।७) (विश्वस्मै) सर्वस्मै (भुवनाय) (जायते) (यत्) यः (पर्जन्यः) पालनजनकः (पृथिवीम्) (रेतसा) जलेन (अवति) रक्षति ॥४॥
भावार्थः
मनुष्यैर्येन मेघेन सर्वस्य पालनं जायते तस्योन्नतिर्वृक्षप्रवापणेन वनरक्षणेन होमेन च संसाधनीया यतः सर्वस्य पालनं सुखेन जायेत ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या जानना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (पर्जन्यः) पालनों को उत्पन्न करनेवाला मेघ (रेतसा) जल से (पृथिवीम्) भूमि की (अवति) रक्षा करता है जिससे (विश्वस्मै) सम्पूर्ण (भुवनाय) भुवन के लिये (इरा) अन्न आदिक (जायते) उत्पन्न होता है और बादल (स्वः) अन्तरिक्ष का (पिन्वते) सेवन करते हैं और जिससे (ओषधीः) ओषधियों को (उत्, जिहते) उत्तमता से प्राप्त होते हैं जिससे (विद्युतः) बिजुलियाँ (पतयन्ति) पतन होती है, जहाँ (वाताः) पवन (प्र) अत्यन्त (वान्ति) चलते हैं, उस मेघ को यथावत् तुम विशेष जानो ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य लोगों को चाहिये कि जिस मेघ से सबका पालन होता है, उसकी वृद्धि वृक्षों के लगने, वनों की रक्षा करने और होम करने से सिद्ध करें, जिससे सब का पालन सुख से होवे ॥४॥
विषय
बरसते मेघ के साथ युद्ध का विशिष्ट वर्णन । और उसके सफल ।
भावार्थ
भा०- (यत्) जब ( पर्जन्यः ) समस्त विश्व को जल और अन्न से तृप्त और समस्त जन्तुओं का हित करने वाला मेघ ( रेतसा पृथिवीं अवति ) जल से भूमि को खूब तृप्त कर देता है, उस समय, ( वाताः प्र वान्ति ) वायुगण खूब बहते हैं, ( विद्युतः पतयन्ति ) बिजुलियें गिरती हैं, ( ओषधीः उत् जिहते ) ओषधि-वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं । ( स्वः पिन्वते ) अन्तरिक्ष से जल झरता है ( विश्वस्मै भुवनाय ) समस्त संसार के लिये ( इरा जायते ) जल और अन्न उत्पन्न होता है । इसी प्रकार ( पर्जन्यः ) शत्रुविजयी राजा जब ( रेतसा ) अपने बल वीर्य, पराक्रम से तथा जल की नहरों से ( पृथिवीम् अवति ) राष्ट्र भूमि की रक्षा करता और सींचता है, तब ( वाताः प्र वान्ति ) वायु के समान बलवान् सेनापतिगण वेग से जाते हैं, ( विद्युतः ) विशेष दीप्ति युक्त अस्त्रादि ( पतयन्ति ) चलते हैं, और ( वाताः प्र वान्ति ) वायु वेग से जाने वाले रथ, व्योमयान आदि एवं व्यापारी जन वेग से जाते आते हैं और (विद्युतः) विशेष दीप्तियुक्त समृद्धियें (पतयन्ति ) राष्ट्र ऐश्वर्य को बढ़ाती हैं, (विद्युतः पतयन्ति ) विशेष द्युतियुक्त स्त्रियें पति की कामना करती हैं, विवाहित हो गृहस्थ बसाती हैं । ( ओषधीः उत् जिहते ) तेज धारण करने वाली सेनाएं ओषधिवत् ही उठ खड़ी होती हैं । और प्रजाएं उन्नति के मार्ग पर गमन करती हैं । ( स्वः पिन्वते ) राष्ट्र समस्त सुखों को उत्पन्न करता है, और आकाश जल यथासमय वर्षाता है ( विश्वस्मै भुवनाय ) समस्त प्रजाजन के लिये ( इरा जायते ) अन्न भी पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः। पर्जन्यो देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्त्रिष्टुप् । २ स्वराट् त्रिष्टुप, । ३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० भुरिक् पंक्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'वृष्टि द्वारा उत्पन्न अन्न का सेवन'
पदार्थ
[१] (पर्जन्यः) = परा तृप्ति के जनक प्रभु (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (रेतसा अवति) = उदक के द्वारा प्रीणित करते हैं, तो उस समय (वाताः प्रवान्ति) = खूब वायुवें चलती हैं। (विद्युतः) = विद्युतें (पतयन्ति) = आकाश में उद्गत होती हैं । (ओषधीः) = ओषधियाँ (उज्जिहते) = उद्गत होती हैं। और स्(वः पिन्वते) = सर्वत्र सुख क्षरित होता है। [२] इस प्रकार मेघों की वर्षा होने पर (विश्वस्मै भुवनाय) = सब प्राणियों के लिये (इरा) = अन्न [food] (जायते) = उत्पन्न होता है । वस्तुतः यही वृष्टिजन्य अन्न सबका कल्याण करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- वायुवें चलती हैं, बिजलियाँ चमकती है। उस समय ओषधियाँ उत्पन्न होकर सर्वत्र सुख क्षरित होता है। इस बादल के बरसने पर सबके लिये अन्न उत्पन्न होता है।
मन्त्रार्थ
(यत् पर्जन्यः पृथिवीं रेतसा-अवति) जब मेघ अपने जल से "रेतः-उदकनाम" [निघ० १|१२] पृथिवी को तृप्त करता है "अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्ति" [स्वादि०] तब (वाता: प्रवान्ति) हवाएं चलती हैं (विद्यतः पतयन्ति) बिजलियां गिरती हैं चमकती हैं (स्वः पिन्वते) अन्तरिक्ष जल भिराता है (औषधी:-उज्जिहते) ओषधियां (उभरती हैं—उगती हैं (इरा विश्वस्मै भुवनाय जायते) अन्न “इरा-अन्ननाम" [निघ० २|७] सब होने वाले प्राणि-समूह के लिए उत्पन्न होता है ॥४॥
विशेष
ऋषि- भौमोऽत्रिः(पृथिवी के बाहिरी स्तरों का वेत्ता विद्वान्)देवता—पर्जन्यः।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या मेघाने सर्वांचे पालन होते त्याची वृद्धी, वृक्षारोपण, वनांचे संरक्षण करण्यासाठी माणसांनी होम करावा. ज्यामुळे सर्वांचे पालन सुखाने व्हावे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Fast and fresh blow the winds, lightnings flash, herbs spring up, the sky swells and overflows, food grows, spirits arise and songs resound over the world when the cloud fertilises the earth with the showers of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men know is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The winds blow strong, the lightnings flash, the plants spring up, the firmament pours food for the whole world. It is made, when the cloud fertilizes the soil with showers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should develop the cloud ( science of irrigation. Ed.) which nourishes all by growing trees, with preserving forests and performing HOMA, so that preservation of all is thus accomplished.
Foot Notes
(इरा ) अन्नादिकम् । इरा इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = Food. (स्व:) अन्तरिक्षम् । स्वः इति स्वधारणनाम (NG 1, 3) अन्तरिक्षाकाम्यं साधारणनामेति तात्पर्यम्। = Firmament. ( रेतसा ) जलेन । रेत इत्युदकनाम (NG 1, 12)। = With water.
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