ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न यं जर॑न्ति श॒रदो॒ न मासा॒ न द्याव॒ इन्द्र॑मवक॒र्शय॑न्ति। वृ॒द्धस्य॑ चिद्वर्धतामस्य त॒नूः स्तोमेभि॑रु॒क्थैश्च॑ श॒स्यमा॑ना ॥७॥
स्वर सहित पद पाठन । यम् । जर॑न्ति । श॒रदः॑ । न । मासाः॑ । न । द्यावः॑ । इन्द्र॑म् । अ॒व॒ऽक॒र्शय॑न्ति । वृ॒द्धस्य॑ । चि॒त् । व॒र्ध॒ता॒म् । अ॒स्य॒ । त॒नूः । स्तोमे॑भिः । उ॒क्थैः । च॒ । श॒स्यमा॑ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
न यं जरन्ति शरदो न मासा न द्याव इन्द्रमवकर्शयन्ति। वृद्धस्य चिद्वर्धतामस्य तनूः स्तोमेभिरुक्थैश्च शस्यमाना ॥७॥
स्वर रहित पद पाठन। यम्। जरन्ति। शरदः। न। मासाः। न। द्यावः। इन्द्रम्। अवऽकर्शयन्ति। वृद्धस्य। चित्। वर्धताम्। अस्य। तनूः। स्तोमेभिः। उक्थैः। च। शस्यमाना ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यस्यास्य वृद्धस्य तनूः स्तोमेभिरुक्थैश्च शस्यमाना चिद्वर्धतां यमिन्द्रं परमात्मानं शरदो न जरन्ति मासा न जरन्ति द्यावो नाऽवकर्शयन्ति तं विद्वांसं परमात्मानं च यूयं सेवध्वम् ॥७॥
पदार्थः
(न) निषेधे (यम्) (जरन्ति) जीर्णं कुर्वन्ति (शरदः) शरदाद्या ऋतवः (न) (मासाः) चैत्राद्याः (न) (द्यावः) सूर्यादयः (इन्द्रम्) परमात्मानम् (अवकर्शयन्ति) कृशं कर्तुं शक्नुवन्ति (वृद्धस्य) (चित्) अपि (वर्धताम्) (अस्य) जीवस्य (तनूः) शरीरम् (स्तोमेभिः) स्तुत्यैः (उक्थैः) वक्तुमर्हैः (च) (शस्यमाना) स्तवनीया ॥७॥
भावार्थः
स एव विद्वान् वृद्धो भूत्वा वर्धते यः सर्वान्त्सुप्रज्ञान् सुशीलान् धर्माचारान् करोति ये निर्विकारं जन्ममरणजरादिदोषरहितं परमात्मानमुपासते ते प्रशंसनीया जायन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! जिस (अस्य) इस जीव (वृद्धस्य) वृद्ध विद्वान् का (तनूः) शरीर (स्तोमेभिः) स्तुति करने के योग्यों और इन (उक्थैः) कहने के योग्य पदार्थों से (च) भी (शस्यमाना) प्रशंसा करने योग्य (चित्) भी (वर्धताम्) बढ़े और (यम्) जिस (इन्द्रम्) परमात्मा को (शरदः) शरद् आदि ऋतुयें (न) नहीं (जरन्ति) जीर्ण करती हैं और (मासाः) चैत्र आदि महीने (न) नहीं जीर्ण करते हैं तथा (द्यावः) सूर्य आदि (न) नहीं (अवकर्शयन्ति) दुर्बल कर सकते हैं, उस विद्वान् और परमात्मा का आप लोग सेवन करिये ॥७॥
भावार्थ
वही विद्वान् वृद्ध होकर वृद्धि को प्राप्त होता है जो सब को अच्छे, बुद्धिमान्, सुशील तथा धर्म्माचरण करनेवाला करता है और जो निर्विकार और जन्म, मरण, बुढ़ापा आदि दोषों से रहित परमात्मा की उपासना करते हैं, वे प्रशंसा करने योग्य होते हैं ॥७॥
विषय
उस प्रभु की महती शक्ति।
भावार्थ
( यं इन्द्रम् ) जिस महान् शक्तिशाली, ऐश्वर्यवान् महान् आत्मा को ( न शरदः ) न वर्षगण, ( न मासाः ) न वर्ष के मास और ( न द्यावः ) न दिन ही ( अव कर्शयन्ति ) कृश कर सकते हैं, ( अस्य ) इस ( वृद्धस्य ) महान् की ( तनूः ) व्यापक शक्ति, ( स्तोमेभिः ) स्तुतिवचनों से और (उक्थैः च ) उत्तम वचनों द्वारा ( शस्यमाना चित् ) वर्णन की जाकर भी ( वर्धताम् ) अन्नों से देह के समान बराबर बढ़ती ही है । उसी प्रकार जिस राजा को वर्ष, मास, दिन आदि वा हिंसक सेनाएं, ज्ञानवान् पुरुष और तेजस्वी लोग कृश न करें, न घटावें उसकी व्यापक राष्ट्ररूप तनु भी उत्तम ( स्तोमैः ) उपदेष्टा पुरुषों द्वारा (शस्यमाना) उपदेश की जाकर शिष्य की बुद्धि के समान बराबर बढ़े।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १, २ भुरिक् पंक्तिः । ३,५,९ पंक्ति: । ४, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ६ ब्राह्मी बृहती ॥ दशर्चं सूकम् ॥
विषय
काल से अनवच्छिन्न प्रभु
पदार्थ
[१] (यम्) = जिस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (न द्यावः) = न दिन, (न मासाः) = न महीने और (न शरदः) = न ही संवत्सर [वर्ष] (जरन्ति) = जीर्ण करते हैं। ये दिन, महीने व वर्ष उसे (न अवकर्शयन्ति) = उसे क्षीण नहीं कर पाते । प्रभु काल से अनवच्छिन्न है । [२] (वृद्धस्य अस्य तनूः) = बढ़े हुए इस प्रभु की व्यापक शक्ति [तन् विस्तारे] (चित्) = निश्चय से (वर्धताम्) = बढ़ी रहे । यह इस प्रभु का (तनू स्तोमेभिः) = स्तोमों से (च) = और (उक्थैः) = ऊँचे-ऊँचे गाये गये गुण-कीर्तनों से (शस्यमाना) = सदा प्रशंसित हो। इसका शंसन ही हमारे अन्दर प्रभु के स्वरूप का वर्धन करता है । प्रभु के गुणों का शंसन करते हुए हम भी उन गुणों को अपनाने का यत्न करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- उस काल से असीमित अजरामर प्रभु का शंसन करते हुए हम प्रभु जैसा बनने का यत्न करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो सर्वांना चांगले, बुद्धिमान व सुशील बनवितो तोच विद्वान बनून वाढू शकतो व जे निर्विकार, जन्म, मृत्यू, वृद्धत्व इत्यादी दोषरहित परमात्म्याची उपासना करतात ते प्रशंसा करण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Winters and years wither him not, nor months weaken him, nor the sun and days wear out Indra celebrated by hymns of divine praise and songs of adoration. May the existential manifestation of the lord supreme, eternal Indra grow on and on in majesty. May the body and mind of this eternal jiva, individual soul, grow by the chant of sacred songs and hymns of divine praise.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ enlightened persons! serve that great scholar whom neither months nor autumn seasons wither with age, nor fleeting days enfeeble, still may his body work by taking admirable and praiseworthy articles and good words of advice (imparted) by experts. It is God whom neither months, nor sun and other objects nor autumn and other seasons wither away, nor fleeting days enfeeble. You must serve that God sincerely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That scholar only can work in his old age, who makes all wise, of good character and of righteous conduct. Those persons who adore God, who is Immortable and free from the defects of birth, death and old age etc. become praiseworthy.
Foot Notes
(जरन्ति) जीर्णां कुर्वन्ति । जुष्-वयोहानौ (दिवा) = Wither with age. (अवकर्शयन्ति) कृशं कंर्त्तुं शक्नुवन्ति । कृश-तनूकरणे (दिवा०) = Enfeeble.
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