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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स वह्नि॑भि॒र्ऋक्व॑भि॒र्गोषु॒ शश्व॑न्मि॒तज्ञु॑भिः पुरु॒कृत्वा॑ जिगाय। पुरः॑ पुरो॒हा सखि॑भिः सखी॒यन्दृ॒ळ्हा रु॑रोज क॒विभिः॑ क॒विः सन् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वह्नि॑ऽभिः । ऋक्व॑ऽभिः । गोषु॑ । शश्व॑त् । मि॒तज्ञु॑ऽभिः । पु॒रु॒ऽकृत्वा॑ । जि॒गा॒य॒ । पुरः॑ । पु॒रः॒ऽहा । सखि॑ऽभिः । स॒खि॒ऽयन् । दृ॒ळ्हा । रु॒रो॒ज॒ । क॒विऽभिः॑ । क॒विः । सन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वह्निभिर्ऋक्वभिर्गोषु शश्वन्मितज्ञुभिः पुरुकृत्वा जिगाय। पुरः पुरोहा सखिभिः सखीयन्दृळ्हा रुरोज कविभिः कविः सन् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। वह्निऽभिः। ऋक्वऽभिः। गोषु। शश्वत्। मितज्ञुऽभिः। पुरुऽकृत्वा। जिगाय। पुरः। पुरःऽहा। सखिऽभिः। सखिऽयन्। दृळ्हा। रुरोज। कविऽभिः। कविः। सन् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    राजा कीदृशैः सह मित्रतां कुर्य्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे सज्जना ! यो मितज्ञुभिर्ऋक्वभिर्वह्निभिः कविभिः कविः सन् सखिभिः सखीयन् सन् पुरोहा दृळ्हाः पुरो रुरोज गोषु शश्वत् पुरुकृत्वा शत्रून् जिगाय स एव युष्माभिर्मन्तव्यः ॥३॥

    पदार्थः

    (सः) (वह्निभिः) वोढृभिः (ऋक्वभिः) प्रशंसितैः (गोषु) सुशिक्षितासु वाक्षु (शश्वत्) निरन्तरम् (मितज्ञुभिः) सङ्कुचितजानुभिरासीनैर्विद्वद्भिः (पुरुकृत्वा) (जिगाय) जयति (पुरः) शत्रूणां नगराणि (पुरोहा) पुराणां हन्ता (सखिभिः) मित्रैः (सखीयन्) सखेवाचरन् (दृळ्हाः) निष्कम्पाः (रुरोज) रुजति भनक्ति (कविभिः) विपश्चिद्भिः (कविः) विद्वान् (सन्) ॥३॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः प्रशंसितैर्बलिष्ठैर्मितभाषिभिर्विद्वद्भिर्मित्रैस्सह मैत्रीं कृत्वा राज्यं प्राप्य दुष्टान् हत्वा धार्मिकान् रक्षन्ति ते कृतकृत्या भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा कैसे जनों के साथ मित्रता करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे सज्जनो ! जो (मितज्ञुभिः) सङ्कुचित जाँघवाले बैठे हुए विद्वानों और (ऋक्वभिः) प्रशंसित (वह्निभिः) धारण करनेवाले (कविभिः) विद्वानों से (कविः) विद्वान् (सन्) हुआ और (सखिभिः) मित्रों से (सखीयन्) मित्र के सदृश आचरण करता हुआ (पुरोहा) नगरों का नाश करनेवाला (दृळ्हाः) कम्पन क्रिया से रहित (पुरः) शत्रुओं के नगरों का (रुरोज) भङ्ग करता है और (गोषु) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियों में (शश्वत्) निरन्तर (पुरुकृत्वा) बहुत करके शत्रुओं को (जिगाय) जीतता है (सः) वही आप लोगों से मानने योग्य है ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रशंसित, बलिष्ठ, थोड़े बोलनेवाले, विद्वान् मित्रों के साथ मित्रता कर राज्य को प्राप्त होकर दुष्टों का नाश करके धार्मिकों की रक्षा करते हैं, वे कृतकृत्य होते हैं ॥३॥

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    विषय

    गुरु शिष्यों और वीरों आदि को सभ्यता, शिष्टा-चार का उपदेश । उनको एक साथ काम करने की शिक्षा । (

    भावार्थ

    ( सः ) वह विद्वान् पुरुष (ऋक्वभिः ) पूजा करने योग्य प्रशंसनीय, ( वह्निभिः ) कार्य भार को अपने ऊपर लेने में समर्थ, ( मित-ज्ञुभिः) जानुओं को सिकोड़ कर बैठने वाले, सुसभ्य वा, परिमित, नपे हुए जानु या गोड़े बढ़ाने वाले, एक चाल से चलने वाले, (सखिभिः ) एक समान नाम वा ख्याति वाले वीरों वा विद्वान् जनों के साथ ( सखीयन् ) मित्रवत् आचरण करता हुआ, ( शश्वत् ) सदा ( गोषु ) भूमियों और वेद-वाणियों को प्राप्त करने के निमित्त, ( पुरु-कृत्वा ) बहुत से कर्म करने हारा विद्वान् पुरुष (जिगाय ) विजय करे और उनके सहाय से ही वह ( पुरोहा ) शत्रु के पुरों का नाश करने हारा वा आगे आने वाले शत्रु को मारने हारा, ( कविः ) दूरदर्शी पुरुष स्वयं ( कविः सन् ) क्रान्तदर्शी होकर (दृढाः पुरः रुरोज) शत्रु की दृढ़ नगरियों को तोड़े । इसी प्रकार विद्वान् पुरुष समवयस्क विद्वान् उपदेष्टाओं से मित्रभाव करके सदा विजय लाभ करे, और स्वयं क्रान्तदर्शी, तत्वज्ञानी होकर ( पुरः ) इन देहबन्धनों का नाश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ भुरिक पंक्ति: । २ स्वराट् पंक्ति:। ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'वह्नि, ऋक्व, मितजु'

    पदार्थ

    [१] (सः) = वे (पुरुकृत्वा) = सब पालक व पूरक कर्मों को करनेवाले प्रभु (वह्निभिः) = यज्ञ आदि कर्मों का वहन करनेवाले (ऋक्वभिः) = [ऋच स्तुतौ] स्तुति को करनेवाले (गोषु) = ज्ञान की वाणियों के निमित्त (मितजुभिः) = संकुचित जानु होकर आचार्यों के समीप बैठनेवाले इन पुरुषों से (शश्वत्) = सदा (जिगाय) = काम-क्रोध-लोभ आदि आसुर भावनाओं को जीतते हैं। विजय सब प्रभु ही करते हैं, इन 'वह्नि, ऋक्व व मितञ्जु' पुरुषों को वे अपना निमित्त बनाते हैं। [२] वे (पुरोहा) = आसुर पुरियों वे का विध्वंस करनेवाले प्रभु (दृढाः पुरः) = दृढ़ भी असुर नगरियों को (रुरोज) = भग्न कर देते हैं। इस प्रकार वे प्रभु (सखिभिः) = सखा भूत जीवों के साथ (सखीयन्) = सखित्व का आचरण करते हैं और (कविभिः कविः सन्) = इन तत्त्वद्रष्टा पुरुषों के साथ तत्त्वदर्शी होते हैं। वस्तुतः प्रभु ही इन सखाओं को तत्त्वद्रष्टा बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- अध्यात्म संग्राम में विजयी बनने के लिये हम 'यज्ञादि कर्मों का वहन करनेवाले, स्तोता व ज्ञान की वाणियों के निमित्त आचार्यों के समीप संकुचित जानु होकर बैठनेवाले' बनें। प्रभु हमारे सब आसुरभावों को विनष्ट करेंगे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे प्रशंसित, बलवान, मितभाषी, विद्वान मित्रांबरोबर मैत्री करून राज्य प्राप्त करून दुष्टांचा नाश करून धार्मिकांचे रक्षण करतात ती कृतकृत्य होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He is the ruler, himself a visionary, friend of friends, relentless hero of abundant action, breaker of the strongholds of darkness, and with the company and support of assisting partners, celebrants and poetic creators sitting in meditative posture, he breaks the adamantine rigidities of dead wood and wins the battles for the development of lands and cows and the advancement of knowledge, arts and enlightenment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    With whom should a king form friendship-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O good men ! you should regard him as a good ruler who being a destroyer of the cities of the enemies, breaks even the firm cities or forts of the foes being assisted by his friends by farsighted wise men who are seated on their contracted knees (thighs) bearers of great responsibilities or conveyors of happiness and admired by all, he himself being a highly learned person and a true friend. He conquers his enemies by his constant inspiring and spirited speeches among his warriors.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men are successful who having cultivated friendship with admired, mighty, highly learned persons who speak measured words, attaining kingdom destroy the wicked and protect the righteous.

    Foot Notes

    (वहुनिमि) वोढभि: । वह-प्रापणे (भ्वा०) वहिश्रश्रद्र ग्लाहात्यरिभ्यो नित् (उणादिकोष 4,51) । = Bearers (of responsibilities). (ऋक्वभिः) प्रशंसितैः । ऋच स्तुतौ (तुदा० )। = Admired by all. (मितज्ञुभिः) सङ्कुचित जानुभि: आसीनैद्विद्भिः । सुख प्रापकै: = Seated with contracted thigh.

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