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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 13
    ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    यदि॑न्द्र॒ सर्गे॒ अर्व॑तश्चो॒दया॑से महाध॒ने। अ॒स॒म॒ने अध्व॑नि वृजि॒ने प॒थि श्ये॒नाँइ॑व श्रवस्य॒तः ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । सर्गे॑ । अर्व॑तः । चो॒दया॑से । म॒हा॒ऽध॒ने । अ॒स॒म॒ने । अध्व॑नि । वृ॒जि॒ने । प॒थि । श्ये॒नान्ऽइ॑व । श्र॒व॒स्य॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र सर्गे अर्वतश्चोदयासे महाधने। असमने अध्वनि वृजिने पथि श्येनाँइव श्रवस्यतः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। इन्द्र। सर्गे। अर्वतः। चोदयासे। महाऽधने। असमने। अध्वनि। वृजिने। पथि। श्येनान्ऽइव। श्रवस्यतः ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कथं गमनादिकं कार्य्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यद्यत्र सर्गे महाधनेऽसमने वृजिनेऽध्वनि पथि श्येनानिव श्रवस्यतोऽर्वतश्व चोदयासे तत्र ते दूरस्थमपि स्थानं निकटमिव स्यात् ॥१३॥

    पदार्थः

    (यत्) यस्मिन् (इन्द्र) वीरशत्रुविदारक (सर्गे) संस्रष्टुमर्हे (अर्वतः) अश्वादीन् (चोदयासे) चोदय (महाधने) महान्ति धनानि यस्मात् तस्मिन् (असमने) अविद्यमानं समनं सङ्ग्रामो यस्मिँस्तस्मिन् (अध्वनि) मार्गे (वृजिने) बले (पथि) (श्येनानिव) (श्रवस्यतः) आत्मनः श्रव इच्छतः ॥१३॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! युद्धमन्तरापि यदा यदा कार्यार्थं गमनं भवान् कुर्य्यात्तदा तदा सद्य एव गन्तव्यं, शैथिल्यं पद्भ्यां यानेन वा गमने नैव कार्यम् ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसे गमनादिक करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) वीर शत्रुओं के नाश करनेवाले (यत्) जहाँ (सर्गे) मिलने योग्य (महाधने) बड़े धन जिससे उस और (असमने) नहीं विद्यमान सङ्ग्राम जिसमें ऐसे (वृजिने) बलकारक (अध्वनि) मार्ग में और (पथि) आकाशमार्ग में (श्येनाविव) बाजों को जैसे वैसे (श्रवस्यतः) सुख की इच्छा करते हुए (अर्वतः) घोड़े आदि को (चोदयासे) प्रेरणा करिये, वहाँ आपका दूर भी स्थित स्थान निकट सा होवे ॥१३॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! युद्ध के विना भी जब जब कार्य्य के लिये गमन आप करें तब तब शीघ्र ही जाना चाहिये और शिथिलता पैरों से वा वाहन से जाने में नहीं करनी चाहिये ॥१३॥

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    विषय

    श्येनों के समान वीरों का पलायन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुनाशक ! ( यत् ) जब ( सर्गे ) करने योग्य वा प्रयाण करने योग्य ( महाधने ) संग्राम में और ( असमने ) विषम, वा संग्राम से भिन्न अवसर में भी (वृजिने) बलयुक्त सैन्य और (पथि अध्वनि ) गमन करने योग्य मार्ग में ( श्येनान् इव ) वाजों के समान अति वेगवान् ( श्रवस्यतः ) यश के अभिलाषी ( अर्वतः ) अवसरों को ( चोदयासे ) अपनी आज्ञा पर चलाता है, वह तू हमें सदा शरण दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंयुर्बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रः प्रगाथं वा देवता । छन्दः - १ निचृदनुष्टुप् । ५,७ स्वराडनुष्टुप् । २ स्वराड् बृहती । ३,४ भुरिग् बृहती । ८, ९ विराड् बृहती । ११ निचृद् बृहती । १३ बृहती । ६ ब्राह्मी गायत्री । १० पंक्ति: । १२,१४ विराट् पंक्ति: ।। चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    श्येन- श्रवस्यन्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जब (असमने) = [Unequal] विषम (अध्वनि) = मार्ग में, (वृजिने) = कुटिल (पथि) = पथ में भटकते हुए इन (अर्वतः) = इन्द्रियाश्वों को (सर्गे) = [onset, advance of troop] सैन्यों के आक्रमणवाले (महाधने) = संग्राम में (चोदयासे) = प्रेरित करते हैं । बजाय इसके कि ये इन्द्रियाश्व कुटिल मार्गों में भटकते रहें, प्रभु कृपा से ये अध्यात्म संग्राम में प्रवृत्त हों। [२] हे प्रभो ! इस प्रकार हमारी इन इन्द्रियों को आप (श्येनान् इव) = शीघ्र शंसनीय गतिवाली बनाइये और इसी प्रकार (श्रवस्यतः) = ज्ञान की कामनावाली करिये। कर्मेन्द्रियाँ कर्मों में शीघ्रता से व्याप्त हों, तो ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियाँ कुटिल पथ में न भटककर अध्यात्म संग्राम में प्रवृत्त होकर काम आदि शत्रुओं के आक्रमण से अपने को बचाएँ। शुभ कर्मों व ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त हो।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! युद्धाशिवायही जेव्हा कार्य करण्यासाठी तू जाशील तेव्हा ताबडतोब जा. पायी किंवा वाहनाने जा, त्यात शिथिलता करू नकोस. ॥ १३ ।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And when, in the effort for creation and in the struggle for extension of honour and achievement of new wealth, you inspire the stormy pioneers and ambitious warriors thirsting for fame, and urge them on to fly like eagles on unequal paths and winding ways of progress and possibility, then also, O lord, be with us all through.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men go and do other works-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O (king) Indra ! you the destroyer of your brave enemies, when ever you harness your horses (like falcons) desirous of obtaining glory and food on a highway, which is to be united (one road with the other), where no war is going on and by which (through business etc.) much wealth can be acquired and which is powerfully constructed, even the distant place appears to be close.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! even apart from battle, whenever you have to go any where, you should go quickly. There should be no looseness or laxity either in walking or by any vehicle which should be swift and not slow-going.

    Foot Notes

    (असमने) अविद्यमानं समनं संग्रामो यस्मिंस्तस्मिन् । समानम् इति संग्रामनाम (NG 2, 17) = Where a battle is not going on. (बुजिने) वले । वृजनम् इति बलनाम (NG 2, 9) प्रन्नवृजिनशब्दोऽपि तत्पर्यायत्वेन गृहीतौ:। = Power or powerful.

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