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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तस्य॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिय॒स्यापि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म। स सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ इन्द्रो॑ अ॒स्मे आ॒राच्चि॒द्द्वेषः॑ सनु॒तर्यु॑योतु ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिय॑स्य । अपि॑ । भ॒द्रे । सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ । सः । सु॒ऽत्रामा॑ । स्वऽवा॑न् । इन्द्रः॑ । अ॒स्मे इति॑ । आ॒रात् । चि॒त् । द्वेषः॑ । स॒नु॒तः । यु॒यो॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम। स सुत्रामा स्ववाँ इन्द्रो अस्मे आराच्चिद्द्वेषः सनुतर्युयोतु ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य। वयम्। सुऽमतौ। यज्ञियस्य। अपि। भद्रे। सौमनसे। स्याम। सः। सुऽत्रामा। स्वऽवान्। इन्द्रः। अस्मे इति। आरात्। चित्। द्वेषः। सनुतः। युयोतु ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! वयं तस्य यज्ञियस्य सुमतौ सौमनसे भद्रेऽपि निश्चयेन वर्त्तमानाः स्याम। यः स्ववानिन्द्रोऽस्मे सुत्रामा सन्नस्माकमाराद्दूराच्चिद्द्वेषः सनुतर्युयोतु सोऽस्माभिः सदैव सत्कर्त्तव्यः ॥१३॥

    पदार्थः

    (तस्य) प्रतिपादितपूर्वस्य विद्याविनययुक्तस्य राज्ञः (वयम्) (सुमतौ) शोभनायां प्रज्ञायाम् (यज्ञियस्य) विद्वत्सेवासङ्गविद्यादानानि कर्तुमर्हस्य (अपि) (भद्रे) कल्याणकरे (सौमनसे) सुष्ठु धर्मयुक्ते मानसे व्यवहारे (स्याम) (सः) (सुत्रामा) सर्वेषां सम्यक्पालकः (स्ववान्) स्वकीयसामर्थ्ययुक्तः (इन्द्रः) विद्याप्रदः (अस्मे) अस्माकम् (आरात्) समीपाद् दूराद्वा (चित्) अपि (द्वेषः) धर्मद्वेष्टॄन् (सनुतः) सदैव (युयोतु) पृथक्करोतु ॥१३॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजाजन यस्मिञ्छुद्धे न्याये शुभेषु गुणेषु च राजा वर्त्तेत तथैवात्र वयमपि वर्त्तेमहि, सर्वे मिलित्वा मनुष्येभ्यो दोषान् दूरीकृत्य गुणान् संयोज्य सर्वदा न्यायधर्मपालका भवेम ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजाजन कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (वयम्) हमलोग (तस्य) उस पहिले प्रतिपादन किये विद्या और विनय से युक्त राजा के और (यज्ञियस्य) विद्वानों की सेवा, सङ्ग और विद्याके दान करने के योग्य की (सुमतौ) सुन्दर बुद्धि में (सौमनसे) उत्तम धर्म से युक्त मानस व्यवहार में (भद्रे) कल्याण करनेवाले में (अपि) भी निश्चय से वर्त्तमान (स्याम) होवें और जो (स्ववान्) अपने सामर्थ्य से युक्त (इन्द्रः) विद्या देनेवाला (अस्मे) हम लोगों की (सुत्रामा) उत्तम प्रकार पालना करनेवाला होता हुआ हम लोगों के (आरात्) समीप वा दूर से (चित्) भी (द्वेषः) धर्म से द्वेष करनेवालों को (सनुतः) सदा ही (युयोतु) पृथक् करे (सः) वह हम लोगों से सदा सत्कार करने योग्य है ॥१३॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजाजनो ! जिस शुद्ध, न्याय और श्रेष्ठ गुणों में राजा वर्त्ताव करे, वैसे इस विषय में हम लोग भी वर्त्ताव करें और सब मिलकर मनुष्यों से दोषों को दूर करके गुणों को संयुक्त करके सब काल में न्याय और धर्म्म के पालन करनेवाले होवें ॥१३॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( वयम् ) हम लोग ( तस्य ) उस ( यज्ञियस्य ) दान सत्कार, मान पूजा आदि के योग्य, पुरुष के ( सु-मतौ ) शुभ बुद्धि और ( भद्रे ) कल्याणकारी ( सौमनसे) उत्तम मनन और ज्ञानयुक्त व्यवहार के (अपि स्याम ) अधीन रहें। उसकी उत्तम सलाह और सद्विचार के अधीन रहें । ( सः ) वह ( सु-त्रामा ) सुखपूर्वक प्रजा के रक्षक ( स्ववान् ) धन, भृत्य आदि वाला ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( अस्मे द्वेषः ) हमारे से द्वेष करने वालों को ( आरात् चित् ) दूर से ही ( सनुतः ) सदा, (युयोतु ) हमसे दूर कर दिया करे ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सुमति-सौमनस

    पदार्थ

    [१] (वयम्) = हम (यज्ञियस्य तस्य) = पूज्य उस प्रभु की (सुमतौ) = कल्याणीमति में तथा (भद्रे सौमनसे) = कल्याणकर शुभ मानस स्थिति में स्याम हों प्रभु के अनुग्रह से हमें शुभ बुद्धि व निर्मल मन प्राप्त हो । [२] (सः) = वह (सुत्रामा) = हमारा उत्तम त्राण करनेवाला, (स्ववान्) = प्रशस्त धनोंवाला (इन्द्रः) = शत्रु विद्रावक प्रभु (अस्मे) = हमारे से (द्वेष:) = द्वेष को (आरात् चित्) = सुदूर ही (सनुतः) = अन्तर्हित प्रदेश में (युयोतु) = पृथक् करे । प्रभु द्वेष को हमारे से इतना दूर करें कि यह द्वेष हमें दिखे ही नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से 'सुमति व सौमनस' को प्राप्त करके हम द्वेष से सदा दूर रहें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनांनो ! ज्या खऱ्या न्याय व श्रेष्ठ गुणांनी युक्त राजा वागतो त्याप्रमाणे आम्हीही वागावे व सर्वांनी मिळून माणसांचे दोष दूर करून गुणांना संयुक्त करून सर्वकाळी न्याय व धर्माचे पालन करणारे बनावे. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May we enjoy the favour, kindness and love of that lord adorable, all protective Indra, sole master of his own essential powers and forces, who may always ward off from us all hate and enmity far or near.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should kings and their subjects deal with one another-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let us be in the good intellect and in the auspicious righteous mental dealing of that king, who is endowed with knowledge and humility and is doer of the service to the enlightened person, association with them and gift of knowledge, let that king, who is well protector of all, endowed with his own power, keep away from us-whether near us or far, all haters of Dharma (righteousness and duty). He is therefore, to be respected by us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O officers of the State and the people I let us always deal with one another in the same way, in which a king dwells in pure justice and good virtues. Let us be the preservers of justice and righteousness, always removing all vices unitedly.

    Foot Notes

    (आरात्) समीपाद् दूराद्वा । आरे इति दूरनाम (NG 3,26) आरात् दूरसमीपयो: (अव्ययार्थः) । = From far and near. (युयोतु) पृथक्करोतु । यु-मिश्रणे अमिश्रणे च (अदा०) अत्र अमिश्रणार्थ:। = Separate, keep far away.

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