ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 12
ऋषिः - ऋजिश्वाः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नू स॒द्मानं॑ दि॒व्यं नंशि॑ देवा॒ भार॑द्वाजः सुम॒तिं या॑ति॒ होता॑। आ॒सा॒नेभि॒र्यज॑मानो मि॒येधै॑र्दे॒वानां॒ जन्म॑ वसू॒युर्व॑वन्द ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठनु । स॒द्मान॑म् । दि॒व्यम् । नंशि॑ । दे॒वाः॒ । भार॑त्ऽवाजः । सु॒ऽम॒तिम् । या॒ति॒ । होता॑ । आ॒सा॒नेभिः॑ । यज॑मानः । मि॒येधैः॑ । दे॒वाना॑म् । जन्म॑ । व॒सु॒ऽयुः । व॒व॒न्द॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू सद्मानं दिव्यं नंशि देवा भारद्वाजः सुमतिं याति होता। आसानेभिर्यजमानो मियेधैर्देवानां जन्म वसूयुर्ववन्द ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठनु। सद्मानम्। दिव्यम्। नंशि। देवाः। भारत्ऽवाजः। सुऽमतिम्। याति। होता। आसानेभिः। यजमानः। मियेधैः। देवानाम्। जन्म। वसुऽयुः। ववन्द ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः के धन्यवादार्हाः सन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो ! यो भारद्वाजो होता सुमतिं याति स नू दिव्यं सद्मानं नंशि। यो वसूयुर्यजमानो मियेधैरासानेभिस्सह देवानां जन्म ववन्द तं यूयं सत्कुरुत ॥१२॥
पदार्थः
(नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (सद्मानाम्) यस्मिन् सीदति तम् (दिव्यम्) कमनीयम् (नंशि) व्याप्नोति (देवाः) विद्वांसः (भारद्वाजः) धृतविज्ञानः (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (याति) प्राप्नोति (होता) दाता (आसानेभिः) आसीनैर्ऋत्विग्भिस्सह (यजमानः) यज्ञकर्ता (मियेधैः) प्रेरकैः (देवानाम्) विदुषाम् (जन्म) प्रादुर्भावम् (वसूयुः) वसूनि द्रव्याणि कामयमानः (ववन्द) वन्दति प्रशंसति ॥१२॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये राज्ञो विद्याजन्मे प्रशंसन्ति ते शुद्धं सुखमाप्नुवन्ति यथा बहुभिर्विद्वद्भिस्सह यजमानो यज्ञमलङ्कृत्य सर्वं जगदुपकरोति तथैव विद्वांसोऽध्यापनोपदेशाभ्यां सर्वान् प्रज्ञान् कृत्वा प्रशंसां यान्ति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन धन्यवाद के योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देवा) विद्वानो ! जो (भारद्वाजः) विज्ञान को धारण किये (होता) देनेवाला (सुमतिम्) शोभन बुद्धि को (याति) प्राप्त होता है वह (नू) शीघ्र (दिव्यम्) मनोहर (सद्मानम्) जिसमें स्थिर होता उस घर को (नंशि) व्याप्त होता है। जो (वसूयुः) द्रव्यों की कामना करने और (यजमानः) यज्ञ करनेवाला (मियेधैः) प्रेरणा देनेवाले (आसानेभिः) बैठे हुए ऋत्विजों के साथ (देवानाम्) विद्वानों के (जन्म) उत्पन्न होने की (ववन्द) प्रशंसा करता है, उसका तुम सत्कार करो ॥१२॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो राजा के विद्या और जन्म की प्रशंसा करते, वे शुद्ध सुख को प्राप्त होते हैं, जैसे बहुत विद्वानों के साथ यज्ञ करनेवाला यज्ञ को सुभूषित कर समस्त जगत् का उपकार करता है, वैसे ही विद्वान् जन पढ़ाने और उपदेशों से सब को प्राज्ञ (उत्तम ज्ञाता) कर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं ॥१२॥
विषय
ज्ञानी, गुरु और रश्मियों के गुण ।
भावार्थ
हे ( देवाः ) विद्वान्, प्रकाश के देने और लेने की कामना वाले गुरु शिष्य जनो ! जो ( भारत्-वाजः ) ज्ञान को धारण करने हारा और ( होता ) ज्ञान को अन्यों को दान करने वाला विद्वान् ( सुमतिम् याति ) उत्तम मतिमान् शिष्य को प्राप्त करता है वह ( नु ) मानो शीघ्र ही ( दिव्यं सद्मानं ) उत्तम प्रकाश योग्य गृह के समान ( दिव्यं ) ज्ञान धारण करने योग्य विद्या के सत्पात्र, को ( नंशि ) प्राप्त कर लेता है । वह ( यजमानः ) ज्ञान का दान करने वाला, ( आसानेभिः ) समीप बैठे ( मियेधैः ) सत्संग करने वाले, विद्यार्थियों से सत्संग करता हुआ, ( वसूयुः ) अधीन बसने वाले वसु, ब्रह्मचारियों का प्रिय इच्छुक, स्वामी होकर ( देवानां ) विद्याभिलाषी जनों के ( जन्म ) विद्या जन्म का ( ववन्द ) उपदेश करता है । ( २ ) शिष्य पक्ष में - जो ( भारद्वाजः ) ज्ञान धारण करने वाला, तत्संग्रहीता, ( होता ) अपने को गुरु के अधीन सोंपने और विद्या को ग्रहण करने वाला, जिज्ञासु ( सुमतिं याति ) उत्तम मतिमान, सुज्ञानी गुरु को जाता और उससे विद्या की याचना करता है वह नु शीघ्र ही, मानो ( दिव्यं ) दिव्य, उत्तम, ( सद्मानं ) गृह या भवन के समान विशाल शरण को ( नंशि ) प्राप्त करता है। वह ( यजमानः ) उनका आदर सत्कार, पूजा आदि करता हुआ (आसानेभिः मियेधैः ) विराजने वाले सत्संगी, जनों द्वारा ( वसूयुः ) वसु होने की कामना युक्त होकर (देवानां जन्म) विद्वानों के बीच (जन्म ) उपनयन द्वारा नवीन जन्म ( नंशि ) प्राप्त करे और ( ववन्द ) गुरुओं को नमस्कार किया करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः – १, २, ३, ५, ७, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ४, ६, ९ स्वराट् पंक्ति: । १३, १४, १५ निचृदुष्णिक् । १६ निचृदनुष्टुप् ।। षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'दिव्य सद्म' तथा 'सुमति'
पदार्थ
[१] हे (देवा:) ='माता, पिता, आचार्य, अतिथि' रूप देवो! (भारद्वाजः) = अपने में शक्ति का भरण करनेवाला यह उपासक (नु) = निश्चय से शीघ्र ही (दिव्यं सद्मानम्) = दिव्य सद्म को नंशि प्राप्त हो। 'दिव्य सद्म', अर्थात् प्रकाशमय घर को यह प्राप्त करनेवाला हो । हे देवो! (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला यह भारद्वाज (सुमतिं याति) = कल्याणी मति को प्राप्त करता है। [२] (आसानेभिः) = समीप बैठे हुए (मियेधैः) = पवित्र लोगों के साथ (यजमानः) = यज्ञ करता हुआ यह (वसूयुः) = वस्तुओं की प्राप्ति की कामनावाला उपासक (देवानां जन्म) = दिव्यगुणों के जन्म व विकास को (ववन्द) = स्तुत करता है। दिव्यगुणों के विकास की ही प्रशंसा करता है। इस प्रकार इस दिव्यगुणों के विकास को प्रशंसित करता हुआ इन दिव्य गुणों के धारण के लिये ही यत्नशील होता है । भावार्थ- हम 'उत्तम माता, पिता, आचार्य व अतिथियों' की कृपा से अपने गृह को प्रकाशमय बना पायें। हम सुमति को प्राप्त होनेवाले हों। दिव्यगुणों का अपने मैं विकास कर पायें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे राजाच्या विद्याजन्माची (द्विज) प्रशंसा करतात ते शुद्ध सुख प्राप्त करतात. जसा अनेक विद्वानांबरोबर याज्ञिक यज्ञाला सुशोभित करून संपूर्ण जगावर उपकार करतो तसेच विद्वान लोक अध्यापन व उपदेश याद्वारे सर्वांना विद्वान करून प्रशंसायुक्त बनतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O divine powers, the bearer of knowledge who invokes the divinities and serves the nobilities in yajnic programmes is blest with divine peace and settlement and enjoys wisdom and divine guidance. The yajamana in pursuit of wealth and excellence, sitting with inspiring and adorable yajakas, obtains the vision of rising divinities in his life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who deserve thanks-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons ! that liberal donor, who is upholder of knowledge gets good intellect. He also gets good and desirable home to dwell in. Honor that performer of Yajnas (non-violent sacrifices) who desiring good articles, knows the origin or manifestation of the highly learned persons along with the urging priest, who are seated there at the altar.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! those, who praise the birth of the king from the knowledge enjoy pure happiness. As a performer of the Yajnas, having adorned the yajna with the help of many enlightened persons, does good to the whole world, so the scholar making all intelligent by teaching and preaching gets great honor.
Foot Notes
(नशि) व्याप्नोति । नशत्-ध्याप्ति कर्मा (NG 2, 18,)।= Pervades or attains. (मियेधैः ) प्र ेरकैः । डूमिञ् -प्रक्षेपणे (स्वा.) अत्र निर्देशप्रदानं प्र ेरणं वा। = Impellers.
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