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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ओ॒कि॒वांसा॑ सु॒ते सचाँ॒ अश्वा॒ सप्ती॑इ॒वाद॑ने। इन्द्रा॒ न्व१॒॑ग्नी अव॑से॒ह व॒ज्रिणा॑ व॒यं दे॒वा ह॑वामहे ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओ॒कि॒ऽवांसा॑ । सु॒ते । सचा॑ । अश्वा॑ । सप्ती॑इ॒वेति॒ सप्ती॑ऽइव । आद॑ने । इन्द्रा॑ । नु । अ॒ग्नी इति॑ । अव॑सा । इ॒ह । व॒ज्रिणा॑ । व॒यम् । दे॒वा । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओकिवांसा सुते सचाँ अश्वा सप्तीइवादने। इन्द्रा न्व१ग्नी अवसेह वज्रिणा वयं देवा हवामहे ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओकिऽवांसा। सुते। सचा। अश्वा। सप्तीइवेति सप्तीऽइव। आदने। इन्द्रा। नु। अग्नी इति। अवसा। इह। वज्रिणा। वयम्। देवा। हवामहे ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 59; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वांसः किं विज्ञाय कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा देवा वयमवसेह सुते सचाऽश्वा वज्रिणौकिवांसा सप्तीइवादने वर्त्तमानाविन्द्राग्नी नु हवामहे तथेमौ यूयमपि प्रशंसत ॥३॥

    पदार्थः

    (ओकिवांसा) सङ्गतौ सम्बद्धौ (सुते) निष्पन्ने (सचा) सचौ समवेतौ (अश्वा) व्याप्तौ (सप्तीइव) यथा युग्मावश्वौ (आदने) अत्तव्ये घासे (इन्द्रा) (नु) (अग्नी) वायुविद्युतौ (अवसा) (इह) अस्मिन् संसारे (वज्रिणा) प्रशस्ताऽस्त्रयुक्तौ (वयम्) (देवा) विद्वांसः (हवामहे) प्रशंसामः ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये विद्वांसः सदा मिलितौ वायुविद्युतौ पदार्थौ विजानन्ति तेऽस्मिन् संसारेऽद्भुताः क्रियाः कर्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् जन क्या जानकर कैसे हों, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (देवा) विद्वान् (वयम्) हम लोग (अवसा) रक्षा आदि से (इह) इस संसार में (सुते) निष्पन्न हुए व्यवहार में (सचा) अच्छे प्रकार युक्त (अश्वाः) और व्याप्त हुए (वज्रिणा) प्रशंसित शस्त्र-अस्त्रवाले (ओकिवांसा) सङ्ग और सम्बन्ध को प्राप्त हुए (सप्तीइव) जैसे दो घोड़े (आदने) भक्षण करने योग्य घास अदन के निमित्त वर्त्तमान, वैसे (इन्द्राग्नी) पवन और बिजुली की (नु) शीघ्र (हवामहे) प्रशंसा करते हैं, वैसे इनकी तुम भी प्रशंसा करो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वान् जन सदा मिले हुए वायु और बिजुली इन दोनों पदार्थों को जानते हैं, वे इस संसार में अद्भुत क्रियाओं को कर सकते हैं ॥३॥

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    विषय

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    भावार्थ

    (इन्द्रा) पूर्वोक्त दोनों वर वधू, पतिपत्नी, (इन्द्रा ) ऐश्वर्यवान्, मेघ विद्युत् के तुल्य परस्पर स्नेह धारण करने वाले, और ( अग्नी ) दोनों अग्नियों के तुल्य तेजस्वी, ( ओकिवांसा )परस्पर मिल कर रहने वाले समवेत, परस्पर मिल अर्थात् एक दूसरे में नित्य सम्बन्ध बना कर रहने वाले, ( सुते ) पुत्र के निमित्त ( सचा ) एक साथ संगत हुए, ( आदने ) ऐश्वर्य भोग वा भोजन के निमित्त (अश्वा सप्ती इव ) वेगवान् दो अश्वों के समान सदा एक साथ रहने वाले, (अवसा ) परस्पर की रक्षा, अन्न-तृप्ति, ऐश्वर्य आदि के द्वारा ( इह ) इस गृहाश्रम में विराजें, और (वयम् ) हम सब उन दोनों ( वज्रिणा ) बलवान् वीर्यवान्, ( देवा ) दानशील, तेजस्वी एवं एक दूसरे की कामना करते हुए दोनों को ( हवामहे ) इस गृहस्थाश्रम में आदरपूर्वक बुलाते हैं ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ।। छन्दः – १, ३, ४, ५ निचृद् बृहती । २ विराड्बृहती । ६, ७, ९ भुरिगनुष्टुप् । १० अनुष्टुप् । ८ उष्णिक् ।। दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सचा ओकिवांसा 'वज्रिणा देवा'

    पदार्थ

    [१] हे इन्द्राग्नी ! आप (सुते) = शरीर में सोम के उत्पन्न होने पर (सचा) = साथ-साथ [सह] (ओकिवांसा) = समवेत्य [मेल] वाले होवो। इस प्रकार मेलवाले होवो (इव) = जैसे (आदने) = खाने के स्थान पर (सप्ती) = सर्पणशील (अश्वा) = दो अश्व मेलवाले होते हैं। प्रकाश बल दोनों का यहाँ शरीर में यह 'सोम' ही तो भोजन है। सोम ही ज्ञान व बल की उत्पत्ति का साधन बनता है। [२] (नु) = अब (इह) = यहाँ जीवन में (वयम्) = हम (अवसा) = रक्षण के हेतु से (इन्द्रः अग्नी) = इन्द्र और अग्नि को, बल व प्रकाश के देवों को (हवामहे) = पुकारते हैं । ये इन्द्र और अग्नि (क्रमशः वज्रिणा) = वज्रवाले व (देवा) = प्रकाशमय हैं । इन्द्र वज्रहस्त हैं, अग्नि प्रकाश का देव हैं । वस्तुतः दोनों ऐसे मिले हुए हैं कि दोनों दोनों ही हैं । इन्द्र का वज्रहस्त होने का भाव यह है कि वह क्रियाशील है [वन् गतौ ] । यह क्रियाशीलता ही उसे सब असुरों का संहार करने में समर्थ करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम के उत्पन्न होने पर हमारे में ज्ञान व बल का साथ-साथ निवास हो । ये हमें क्रियाशील व प्रकाशमय जीवनवाला बनायें। इस प्रकार ये हमारे रक्षक हों ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे विद्वान सदैव मिश्रित असलेल्या वायू व विद्युतला जाणतात ते या जगात अद्भुत क्रिया करू शकतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, wielders of the thunderbolt, homogeneous powers in this business of life and nature, voracious consumers, like stormy war horses and creators, we, enlightened yajakas in developmental yajna, invoke, invite and develop you with all your protective and promotive powers right here.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the scholars be - knowing what-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as learned persons praise with knowledge, the air and electricity, which are pervasive, are endowed with the power, of manufacturing admirable weapons, which are in this world, like two fellow horses, united in the eating of the fodder, so you should, also admire their properties.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those learned men, who know the nature of ever united air and electricity, can accomplish many wonderful works in this world.

    Foot Notes

    (ओकिवासा) सङ्गतौ सम्बद्धौ । ओक इति निवासनोमोच्यते (NKT3, 1, 3)। = United. (सप्तीइव) यथा युग्मावश्वौ । सप्तिरियश्वनाम (NG 1, 14) । = Two fellow horses yoked in the chariot together.

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