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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 63/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    आ वां॒ वयोऽश्वा॑सो॒ वहि॑ष्ठा अ॒भि प्रयो॑ नासत्या वहन्तु। प्र वां॒ रथो॒ मनो॑जवा असर्जी॒षः पृ॒क्ष इ॒षिधो॒ अनु॑ पू॒र्वीः ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । वयः॑ । अश्वा॑सः । वहि॑ष्ठाः । अ॒भि । प्रयः॑ । ना॒स॒त्या॒ । व॒ह॒न्तु॒ । प्र । वा॒म् । रथः॑ । मनः॑ऽजवाः । अ॒स॒र्जि॒ । इ॒षः । पृ॒क्षः । इ॒षिधः॑ । अनु॑ । पू॒र्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां वयोऽश्वासो वहिष्ठा अभि प्रयो नासत्या वहन्तु। प्र वां रथो मनोजवा असर्जीषः पृक्ष इषिधो अनु पूर्वीः ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। वयः। अश्वासः। वहिष्ठाः। अभि। प्रयः। नासत्या। वहन्तु। प्र। वाम्। रथः। मनःऽजवाः। असर्जि। इषः। पृक्षः। इषिधः। अनु। पूर्वीः ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 63; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः केन किं कुर्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे नासत्या ! ये वां वहिष्ठा मनोजवा अश्वासो वयो न प्रय आऽभि वहन्तु येन पृक्ष इषिधः पूर्वीरिषोऽन्वसर्जि स रथो वां प्रवहतु ॥७॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (वयः) पक्षिण इव (अश्वासः) आशुगामिनोऽग्न्यादयः (वहिष्ठाः) अतिशयेन यानानां वोढारः (अभि) आभिमुख्ये (प्रयः) अन्नादिकम् (नासत्या) अविद्यमानासत्याचरणौ (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (प्र) (वाम्) (रथः) (मनोजवाः) मनोवद्गतयः (असर्जि) सृज्येत (इषः) अन्नाद्याः (पृक्षः) सम्प्राप्तव्याः (इषिधः) इच्छाप्रकाशिकाः (अनु) (पूर्वीः) प्राचीनाः ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यदि भवन्तोऽग्न्यादिप्रयोगाञ्जानीयुस्तर्हि विमानादियानैः पक्षिण इवान्तरिक्षे गन्तुं शक्नुयुर्येनाऽभीष्टानि प्राप्य सर्वदाऽऽनन्दिता भवेयुः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किससे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नासत्या) सत्य आचरण करनेवालो ! जो (वाम्) तुम दोनों के (वहिष्ठाः) अतीव यानों के ले जानेवाले (मनोजवाः) मन के समान जिनकी गति वे (अश्वासः) शीघ्रगामी अग्नि आदि (वयः) पक्षियों के समान (प्रयः) अन्नादि पदार्थ को (आ, अभि, वहन्तु) सन्मुख पहुँचावें जिससे (पृक्षः) अच्छे प्रकार प्राप्त होने योग्य (इषिधः) इच्छा प्रकाश करनेवाली (पूर्वीः) प्राचीन (इषः) अन्नादि वस्तुओं में से प्रत्येक (अनु, असर्जि) रची जाती वह (रथः) रथ (वाम्) तुम दोनों को (प्र) पहुँचावे ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो आप लोग अग्न्यादि पदार्थों के प्रयोगों को जानो तो विमानादि यानों से पक्षियों के समान अन्तरिक्ष में जा सको, जिससे चाहे हुए पदार्थों को प्राप्त होकर सर्वदा आनन्दित होओ ॥७॥

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( नासत्या ) नासिकावत् प्रमुख स्थान पर स्थित वा कभी असत्य व्यवहार न करने वाले स्त्री पुरुषो ! (वां) आप दोनों के ( प्रयः ) उत्तम गमन करने के साधन रथ को ( वयः ) वेग से जाने वाले वा कान्तिमान् ( अश्वासः ) अश्ववत् आशु गति से जाने वाले अग्नि आदि तत्व ( वहिष्ठा: ) स्थान से स्थानान्तर पहुंचा देने में समर्थ होकर ( अभि वहन्तु ) आगे ले चलें । इसी प्रकार ( वयः ) तेजस्वी पुरुष ( वहिष्ठा: ) उत्तम कार्य वा ज्ञान के धारक होकर (वाम् प्रयः वहन्तु ) तुम दोनों को उत्तम ज्ञान, प्रीतिकारक वचन प्राप्त करावें । ( वां रथः ) आप लोगों का रथ ( मनः-जवाः ) मन के समान तीव्र वेग से वा मन के संकल्पानुसार, इच्छानुकूल मृदु, मध्य, तीव्र वेग से जाने वाला ( प्र असर्जि ) बहुत अच्छा बनाया जावे। और वह ( पूर्वी: ) पूर्ण (इष: ) चाहने योग्य (पृक्षः ) सम्पर्क करने योग्य ( इषिधः ) नाना इच्छाओं को प्रकट कराने वाला, रुचिकारक अन्न भी ( अनु असर्जि) अनुकूल ही तैयार हो ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १ स्वराड्बृहती । २, ४, ६, ७ पंक्ति:॥ ३, १० भुरिक पंक्ति ८ स्वराट् पंक्तिः। ११ आसुरी पंक्तिः॥ ५, ९ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'वहिष्ठ' इन्द्रियाश्व व 'मनोजवा' शरीर-रथ

    पदार्थ

    [१] हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपके ये (अश्वासः) = इन्द्रियाश्व (वयः) = गतिशील होते हैं, (वहिष्ठाः) = लक्ष्य की ओर उत्तमता से ले जानेवाले होते हैं। ये इन्द्रियाश्व (प्रयः अभि) = सोम लक्षण अन्न की ओर आवहन्तु प्राप्त कराते हैं । अर्थात् प्राणसाधना से इन्द्रियाश्व क्रियाशील लक्ष्य की ओर ले जानेवाले व शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले होते हैं । [२] (वाम्) = आपका (रथः) = यह शरीर-रथ (मनोजवाः) = मन के समान वेगवाला (प्र असर्जि) = निर्मित होता है। यह शरीर-रथ (इषिधः) = एषणीय [चाहने योग्य] (पृक्षः) = संपर्चनीय (पूर्वी:) = पूरण करनेवाले (इषः अनु) = अन्नों के अनुसार [असर्जि=] सृष्ट होता है। प्राणसाधना करनेवाला उत्तम ही अन्नों का सेवन करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना से [क] इन्द्रियाश्व उत्तम क्रियावाले व लक्ष्य की ओर गतिवाले होते हैं। [ख] यह साधना शरीर-रथ को मन के समान वेगवाला बनाती है। [ग] यह साधना उत्तम अन्नों की रुचि को जन्म देती है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जर तुम्ही अग्नी इत्यादी पदार्थांचे प्रयोग जाणाल तर विमान इत्यादी यानांनी पक्ष्यांप्रमाणे अंतरिक्षात जाऊ शकाल. ज्यामुळे इच्छित पदार्थ प्राप्त करून सदैव आनंदित व्हाल. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, twin divines ever real beyond destruction, may your strong carriers flying as birds, bring you to the food and fragrance of our yajna, and may your chariot of nature’s energy radiations faster than mind create food, energy and delicacies to our heart’s desire as of all time for our yajnic libations for further development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do and with what-is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful President of the Council of Ministers and Commander-in-Chief of the army! may the fire and other horse like rapid going elements like birds, carry you. towards the place of food, for which you have been invited. May your chariot, which is swift as wind, take you to the worth attaining and desired food and other things.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men if you know the proper application of the Agni (fire and electricity), then with the aircraft and other vehicles, you can go to the firmament like birds and enjoy happiness and bliss, by getting the desirable things.

    Foot Notes

    (प्रय:) अन्मादिकम् । प्रयः इत्यत्ननाम ( NNG 2, 7) = Food and other things. (अपवास:) आशुगामियोऽग्न्यादय: = Rapid going Agni (fire, electricity etc.) (पुक्षः) सम्प्राप्तव्या: । पुची-सम्पर्क | सम्पर्क:-सम्प्राप्तं वयस्तुना एव सहभवति। = Available.

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