ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - सविता
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
दे॒वस्य॑ व॒यं स॑वि॒तुः सवी॑मनि॒ श्रेष्ठे॑ स्याम॒ वसु॑नश्च दा॒वने॑। यो विश्व॑स्य द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पदो नि॒वेश॑ने प्रस॒वे चासि॒ भूम॑नः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑ । व॒यम् । स॒वि॒तुः । सवी॑मनि । श्रेष्ठे॑ । स्या॒म॒ । वसु॑नः । च॒ । दा॒वने॑ । यः । विश्व॑स्य । द्वि॒ऽपदः॑ । यः । चतुः॑ऽपदः । नि॒ऽवेश॑ने । प्र॒ऽस॒वे । च॒ । असि॑ । भूम॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य वयं सवितुः सवीमनि श्रेष्ठे स्याम वसुनश्च दावने। यो विश्वस्य द्विपदो यश्चतुष्पदो निवेशने प्रसवे चासि भूमनः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठदेवस्य। वयम्। सवितुः। सवीमनि। श्रेष्ठे। स्याम। वसुनः। च। दावने। यः। विश्वस्य। द्विऽपदः। यः। चतुःऽपदः। निऽवेशने। प्रऽसवे। च। असि। भूमनः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् राजन् ! यो द्विपदो यश्चतुष्पदो भूमनो विश्वस्य प्रसवे निवेशनेऽभिव्याप्य विराजते तस्य सवितुर्देवस्य श्रेष्ठे सवीमनि वसुनश्च दावने यथा वयमुद्युक्ताः स्याम तथा त्वं यतश्चासि तस्मादत्र राजा भव ॥२॥
पदार्थः
(देवस्य) स्वप्रकाशस्य परमेश्वरस्य (वयम्) (सवितुः) सकलजगदुत्पादकस्य (सवीमनि) उत्पादिते जगति (श्रेष्ठे) व्यवहारे (स्याम) भवेम (वसुनः) धनस्य (च) (दावने) दाने (यः) (विश्वस्य) समग्रस्य (द्विपदः) मनुष्यादेः (यः) (चतुष्पदः) गवादेः (निवेशने) सर्वे निविशन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (प्रसवे) प्रसूते (च) (असि) (भूमनः) बहुरूपस्य ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वानो ! यथाऽत्र जगति जगदीश्वरोऽभिव्याप्य सर्वं रक्षति तथैवात्र व्याप्तो भूत्वा विद्याविनयाभ्यां सर्वं राष्ट्रं पुत्रवद्रक्षत ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् राजा ! (यः) जो (द्विपदः) मनुष्यादि दो पगवाले जीव और (यः) जो (चतुष्पदः) गो आदि चार पगवाले पशु आदि जीवों के (भूमनः) बहुरूपी (विश्वस्य) समग्र संसार के (प्रसवे) उस उत्पन्न हुए स्थान में (निवेशने) जिसमें सब निवेश करते हैं अभिव्याप्त होकर विराजमान हैं, उस (सवितुः) सकल जगत् के उत्पन्न करनेवाले (देवस्य) अपने आप प्रकाशमान परमेश्वर के (श्रेष्ठे) प्रशंसित व्यवहार में (सवीमनि) उत्पन्न हुए जगत् में (वसुनः, च) धन के भी (दावने) देने में जैसे (वयम्) हम लोग उद्यत (स्याम) हों, वैसे तुम (च) भी जिस कारण (असि) हो, इससे यहाँ राजा होओ ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे इस जगत् में जगदीश्वर अभिव्याप्त होकर सब की रक्षा करता है, वैसे ही इस जगत् में व्याप्त होकर विद्या और विनय से समस्त राज्य को पुत्र के समान पालो ॥२॥
विषय
सविता । सूर्यवत् उत्तम निपुण राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे प्रभो ! ( यः ) जो तू ( विश्वस्य ) समस्त ( द्विपदः ) दोपाये मनुष्यों और ( यः चतुष्पदः ) जो चौपायों तथा ( भूमनः ) बहुत प्रकार के जगत् के भी ( निवेशने ) बसने और ( प्रसवे ) पैदा होने, समृद्ध होने और शासन में ( च ) भी समर्थ है उस तुझ ( सवितुः ) सर्वोत्पादक, सर्वशासक ( देवस्य ) सर्वप्रद, तेजस्वी प्रभु के ( बलिष्ठे ) अति प्रशंसनीय, (सवीमनि ) शासन और ( वसुनः दावने) ऐश्वर्य के दान पर हम ( स्याम ) सुखपूर्वक रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ सविता देवता ॥ छन्दः – १ जगती । २, ३ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ।।
विषय
सविता देव की प्रेरणा में 'दानशीलता'
पदार्थ
[१] (वयम्) = हम (सवितुः) = उस सर्वोत्पादक व सर्वप्रेरक (देवस्य) = प्रकाशमय सर्वदाता प्रभु की (सवीमनि) = प्रेरणा में (वसुन:) = धन के (श्रेष्ठे दावने) = उत्तम दान में स्याम हों। प्रभु की प्रेरणा को प्राप्त करके हम सदा धनों का दान करनेवाले हों। [२] उस प्रभु की प्रेरणा में हम दान दें (यः) = जो (विश्वस्य) - सब (द्विपदः) = दो पाँववाले मनुष्यों और (भूमन:) = बहुत प्रकार के (चतुष्पदः) = इन पशुओं के (निवेशने) = स्थापन व धारण में (च) = तथा (प्रसवे) = उत्पादन में (असि) = स्थित हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही सब दो पाँववालों व चार पाँववालों को उत्पन्न करते हैं व धारण करते हैं। इस प्रभु की उत्तम प्रेरणा में हम सदा दान देनेवाले हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा या जगात जगदीश्वर अभिव्याप्त होऊन सर्वांचे रक्षण करतो तसेच या जगात विद्या व विनयाने संपूर्ण राज्याचे पुत्राप्रमाणे पालन करा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let us be established with dedication in the highest generosity, prosperity and abundance of the refulgent and gracious lord Savita’s dynamic creation. You, O lord, are absolute and omnipresent in the creation, generation, evolution and sustained development of the multitude of humans and animals of the wide world of peace and settlement for all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a king be-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned king ! you be our ruler as you are devoted to that Savita-creator of the whole world, who pervades the act of creation and dissolution of all bipeds and quadrupeds, of this multiformed universe. As we are engaged in discharging our duties, in this good world created by God and in good dealings and giving wealth for the welfare of others, so you also act.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O enlightened persons! as the Lord of the world pervades and protects all in this universe, so you should protect this whole kingdom with knowledge and humility, being present wherever necessary.
Foot Notes
(देवस्य) स्वप्रकाशस्य परमेश्वरस्य । दिवु-क्रीड़ा- विजिगीषा व्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमस्वप्नकान्तिगतिषु (दिवा) अत्रद्युत्यर्थः द्युतिप्रकाश: = Of Self-effulgent God. (सवितुः) सकल जगदुत्पादकस्य। = Of God who is the creator of the whole world. (सवीमनि) उत्पादिते जगति। = In the world created by God. (भूमनः) बहुरूपस्य। = Multiformed.
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