ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 75/ मन्त्र 3
ऋषिः - पायुर्भारद्वाजः
देवता - ज्या
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒क्ष्यन्ती॒वेदा ग॑नीगन्ति॒ कर्णं॑ प्रि॒यं सखा॑यं परिषस्वजा॒ना। योषे॑व शिङ्क्ते॒ वित॒ताधि॒ धन्व॒ञ्ज्या इ॒यं सम॑ने पा॒रय॑न्ती ॥३॥
स्वर सहित पद पाठव॒क्ष्यन्ती॑ऽइव । इत् । आ । ग॒नी॒ग॒न्ति॒ । कर्ण॑म् । प्रि॒यम् । सखा॑यम् । प॒रि॒ऽस॒स्व॒जा॒ना । योषा॑ऽइव । शि॒ङ्क्ते॒ । विऽत॑ता । अधि॑ । धन्व॑न् । ज्या । इ॒यम् । सम॑ने । पा॒रय॑न्ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना। योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती ॥३॥
स्वर रहित पद पाठवक्ष्यन्तीऽइव। इत्। आ। गनीगन्ति। कर्णम्। प्रियम्। सखायम्। परिऽसस्वजाना। योषाऽइव। शिङ्क्ते। विऽतता। अधि। धन्वन्। ज्या। इयम्। समने। पारयन्ती ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 75; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरेते कया कां क्रियां कुर्वन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे शूरवीर ! येयं ज्या वक्ष्यन्तीव प्रियं सखायं परिषस्वजाना योषेव कर्णमागनीगन्ति, अधि धन्वन् वितता समने पारयन्ती सती शिङ्क्ते तामिद् यूयं यथावद्विज्ञाय सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥३॥
पदार्थः
(वक्ष्यन्तीव) यथा कथयिष्यन्ती विदुषी स्त्री (इत्) एव (आ) समन्तात् (गनीगन्ति) भृशं गच्छति (कर्णम्) श्रोत्रम् (प्रियम्) (सखायम्) मित्रमिव वर्त्तमानं पतिम् (परिषस्वजाना) परितः कृतसङ्गा (योषेव) पत्नीव (शिङ्क्ते) अव्यक्तं शब्दं करोति (वितता) विस्तृता (अधि) उपरि (धन्वन्) धनुषि (ज्या) प्रत्यञ्चा (इयम्) (समने) सङ्ग्रामे (पारयन्ती) पारं प्रापयन्ती ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे वीरमनुष्या ! यथा प्रियेण मित्रेण पत्या सह स्त्री प्रिया सम्बद्धा यथा च विद्यार्थिनीभिः सहाऽध्यापिका विदुषी स्त्री सम्बद्धा वर्त्तते दुःखादविद्यायाश्च पारं गमयति तथैवेयं धनुर्ज्या युद्धात् पारं गमयित्वा सदैव सुखयति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर ये किससे कौन क्रिया को करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे शूरवीर ! जो (इयम्) यह (ज्या) प्रत्यञ्चा अर्थात् धनुष् की तांति (वक्ष्यन्तीव) जैसे विदुषी कहनेवाली होती, वैसे (प्रियम्) अपने प्यारे (सखायम्) मित्र के समान वर्त्तमान पति को (परिषस्वजाना) सब ओर से संग किये हुए (योषेव) पत्नी स्त्री (कर्णम्) कान को (आ, गनीगन्ति) निरन्तर प्राप्त होती है, वैसे (अधि) (धन्वन्) धनुष् के ऊपर (वितता) विस्तारी हुई तांति (समने) सङ्ग्राम में (पारयन्ती) पार को पहुँचाती हुई (शिङ्क्ते) गूँजती है उस (इत्) ही को तुम यथावत् जानकर उसका प्रयोग करो ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे वीरपुरुषो ! जैसे प्रिय मित्र पति के साथ स्त्री प्यारी सम्बद्ध अर्थात् प्रेम की डोरी से बंधी हुई है और जैसे विद्यार्थिनों कन्याओं के साथ पढ़ानेवाली विदुषी स्त्री बंधी हुई दुःख से और अविद्या से पार पहुँचती है, वैसे ही यह धनुष् की प्रत्यञ्चा युद्ध से पार पहुँचा कर सदैव सुखी करती है ॥३॥
विषय
प्रिय स्त्रीवत् धनुष डोरी का वर्णन । संग्राम पार करने की सहायक डोरी
भावार्थ
( योषा-इव ) जिस प्रकार स्त्री ( प्रियं सखायं परि-सस्वजाना) प्रिय मित्र को आलिङ्गन करती हुई और ( वक्ष्यन्ती इव ) कुछ कहना सा चाहती हुई मानो ( कर्णम् आ गनीगन्ति ) कान के समीप आती है उसी प्रकार (अधि धन्वन् ) धनुष पर ( वितता ) लगी, तनी ( ज्या ) यह डोरी भी प्रिय मित्रवत् सदा सहायक धनुर्दण्ड के साथ लगकर मानो वीर पुरुष के कान में कुछ कहना सा चाहती हुई खिंचकर कान तक पहुंचती है और ( समने पारयन्ती ) संग्राम में शत्रुसंकट से पार करती हुई ( शिङ्क्ते ) मधुर रत्र करती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्भारद्वाज ऋषिः । देवताः - १ वर्म । १ धनुः । ३ ज्या । ४ आत्नीं । ५ इषुधिः । ६ सारथिः । ६ रश्मयः । ७ अश्वाः । ८ रथः । रथगोपाः । १० लिङ्गोक्ताः । ११, १२, १५, १६ इषवः । १३ प्रतोद । १४ हस्तघ्न: । १७-१९ लिङ्गोक्ता सङ्ग्रामाशिषः ( १७ युद्धभूमिर्ब्रह्मणस्पतिरादितिश्च । १८ कवचसोमवरुणाः । १९ देवाः । ब्रह्म च ) ॥ छन्दः–१, ३, निचृत्त्रिष्टुप् ॥ २, ४, ५, ७, ८, ९, ११, १४, १८ त्रिष्टुप् । ६ जगती । १० विराड् जगती । १२, १९ विराडनुष्टुप् । १५ निचृदनुष्टुप् । १६ अनुष्टुप् । १३ स्वराडुष्णिक् । १७ पंक्तिः ।। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ।।
विषय
ज्या [डोरी]
पदार्थ
[१] (प्रियं सखायम्) = अपने मित्र सखा [पति] को (परिषस्वजाना) = आलिंगन करती हुई (योषा इव) = नारी की तरह, इषु का आलिंगन करती हुई (इयं ज्या) = यह डोरी (वक्ष्यन्ती इव) = कुछ कहना-सा चाहती हुई (कर्णं आगनीगन्ति) = कान के समीप आती है। [२] (अधि धन्वन्) = धनुष पर (वितता) = फैली हुई समने (पारयन्ती) = युद्ध में पार को प्राप्त करती हुई यह (ज्या शिक्ते) = अव्यक्त ध्वनि करती है।
भावार्थ
भावार्थ- धनुष से तीर चलाते समय धनुष की डोरी इस प्रकार धानुष्क के कान के समीप आती है, जैसे कि प्रिय पति को आलिंगन करती हुई नारी प्रिय कथन के लिये पति के कान के समीप आती हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे वीर पुरुषांनो ! जसे प्रिय सखा असणाऱ्या पतीबरोबर प्रिय स्त्री प्रेमरज्जूंनी बांधलेली असून सर्वांना दुःखातून व अविद्येतून दूर करते तशीच ही धनुष्याची प्रत्यञ्चा युद्धातून पार पाडते व सदैव सुखी करते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Like a maiden embracing her dear lover and whispering into his ear as if saying something sweet, this string of the bow, its ends like loving hands clasping the ends of the bow, is stretched to the archer’s ear, rings and seems to say: Shoot, advance and make way through the opposite ranks.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How the heroes work and with what-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O heroes ! you should know well and properly use the bow-string which drawn tight upon the bow and making way in battle. repeatedly approaches the ear of the warrior, making and indistinct sound, as if proposing to say something agreeable like a wife, embracing her husband, who is her best friend and sweetly whispering something in his ears.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the mantra. O brave warriors! as a wife is intimately connected with her husband, who is to her-the best friend, as a female teacher is intimately connected with her girl students, and they take them away from misery and ignorance, so this bow-string takes the warrior across the battle (by making him victorious and thus gladdens him.)
Foot Notes
(गनिगन्ति) भूशं गच्छति । गनीगन्ति -आगच्छतीत्यस्या मंत्रस्य भाष्येवास्काचार्यो ( NKT 9, 2, 18 ) = Going repeatedly (सखायम्) मित्रमिव वर्तमानं पतिम्। = Her husband who is wife's beloved friend. (शिङ्क्ते) अभ्यक्तं शब्दं करोति । शिङ्क्त े शब्दं करोति । समने सङ्ग्रामे । = Makes an indistinct sound.
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