ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
अच्छा॒ गिरो॑ म॒तयो॑ देव॒यन्ती॑र॒ग्निं य॑न्ति॒ द्रवि॑णं॒ भिक्ष॑माणाः। सु॒सं॒दृशं॑ सु॒प्रती॑कं॒ स्वञ्चं॑ हव्य॒वाह॑मर॒तिं मानु॑षाणाम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । गिरः॑ । म॒तयः॑ । दे॒व॒ऽयन्तीः॑ । अ॒ग्निम् । य॒न्ति॒ । द्रवि॑णम् । भिक्ष॑माणाः । सु॒ऽस॒न्दृश॑म् । सु॒ऽप्रती॑कम् । सु॒ऽअञ्च॑म् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । अ॒र॒तिम् । मानु॑षाणाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा गिरो मतयो देवयन्तीरग्निं यन्ति द्रविणं भिक्षमाणाः। सुसंदृशं सुप्रतीकं स्वञ्चं हव्यवाहमरतिं मानुषाणाम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ। गिरः। मतयः। देवऽयन्तीः। अग्निम्। यन्ति। द्रविणम्। भिक्षमाणाः। सुऽसन्दृशम्। सुऽप्रतीकम्। सुऽअञ्चम्। हव्यऽवाहम्। अरतिम्। मानुषाणाम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषाः किंवद्भूत्वा कथं स्वीकुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! याः कन्या मतय इव गिरोऽच्छ देवयन्तीः सुसन्दृशं सुप्रतीकं स्वञ्चं मानुषाणां हव्यवाहमरतिं द्रविणं भिक्षमाणा अग्निं यन्ति ता एव वरणीया भवन्ति ॥३॥
पदार्थः
(अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गिरः) विद्यायुक्ता वाचः (मतयः) प्रज्ञा इव वर्त्तमानाः कन्याः (देवयन्तीः) देवान्विदुषः पतीन् कामयमानाः (अग्निम्) विद्युद्विद्याम् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (द्रविणम्) धनं यशो वा (भिक्षमाणाः) याचमानाः (सुसन्दृशम्) सुष्ठु संद्रष्टव्यम् (सुप्रतीकम्) सुष्ठु प्रत्येति येन तम् (स्वञ्चम्) यः, सुष्ठ्वञ्चति तम् (हव्यवाहम्) यो हव्यानि वहति तम् (अरतिम्) सर्वत्र प्राप्तम् (मानुषाणाम्) मनुष्याणां सकाशात् ॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कन्या दीर्घब्रह्मचर्येण विदुष्यः सत्योऽग्न्यादिविद्यां प्राप्य पुरुषाणां मध्यादुत्तममुत्तमं पतिं याचमानाः स्वाभीष्टं स्वाभीष्टं स्वामिनं प्राप्नुवन्ति तथैव पुरुषैरपि स्वेष्टा भार्याः प्राप्तव्याः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्रीपुरुष किसके तुल्य होकर कैसे स्वीकार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो कन्या (मतयः) बुद्धि के तुल्य वर्त्तमान (गिरः) विद्यायुक्त वाणियों और (अच्छा) अच्छे प्रकार (देवयन्तीः) पतियों की कामना करती हुई (सुसन्दृशम्) अच्छे प्रकार देखने योग्य (सुप्रतीकम्) सुन्दर प्रतीति के साधन (स्वञ्चम्) सुन्दर प्रकार पूजने योग्य (मानुषाणाम्) मनुष्यों के सम्बन्ध से (हव्यवाहम्) होमने योग्य पदार्थों को देशान्तर पहुँचानेवाले (अरतिम्) सर्वत्र प्राप्त होनेवाले (द्रविणम्) धन वा यश को (भिक्षमाणाः) चाहती हुई (अग्निम्) विद्युत् की विद्या को (यन्ति) प्राप्त होती हैं, वे ही विवाहने योग्य होती हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कन्या दीर्घ ब्रह्मचर्य के साथ विदुषी हो और अग्नि आदि की विद्या को प्राप्त हो के पुरुषों में से उत्तम-उत्तम पतियों को चाहती हुई अपने-अपने अभीष्ट स्वामी को प्राप्त होती हैं, वैसे पुरुषों को भी अपने अनुकूल स्त्रियों को प्राप्त होना चाहिये ॥३॥
विषय
अग्निवत्वरणीय वर का वर्णन । तद्वत् आचार्य का वरण ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( द्रविणं भिक्षमाणाः मानुषाणाम् अरतिं यन्ति ) द्रविण, धन के याचक लोग मनुष्यों के स्वामी को प्राप्त होते हैं। और जिस प्रकार ( गिरः ) उत्तम वाणियां, ( मतयः ) उत्तम बुद्धियां ( देव-यन्तीः ) प्रभु की कामना करती हुईं ( भिक्षमाणः ) धन, यज्ञादि की प्रार्थना करती हुईं प्रभु को लक्ष्य कर जाती हैं उसी प्रकार (गिरः ) उत्तम स्तुतिशील ( मतयः ) मननशील कन्याएं भी ( देवयन्तीः ) देव, दानशील, कामना योग्य पति की कामना करती हुई ( द्रविणं भिक्षमाणः ) धन, यश, एवं पुत्रादि की याचना करती हुईं ( सुसन्दृशं ) उत्तम, समान रूप से सुन्दर दीखने वाले, (सुप्रतीकम् ) सुमुख, ( स्वञ्चम् ) उत्तम रीति से पूजा करने योग्य ( हव्य-वाहम् ) ग्राह्य और देय, ऐश्वर्य, अन्न वस्त्रादि प्राप्त कराने वाले ( अरतिम् ) स्वामी को (मानुषाणाम् ) मनुष्यों के बीच में (अग्निम् ) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को एवं ( अग्निम् ) यज्ञाग्नि को भी ( यन्ति ) प्राप्त करती हैं। उसी प्रकार ( गिरः मतयः देवयन्त ) उत्तम वक्ता, मतिमान्, विद्वान् की कामना युक्त शिष्यादि, वा प्रजाएं ( सुसंदृशम् ) उत्तम ज्ञान, न्याय आदि के द्रष्टा, पूज्य ( अग्निं ) अग्र नेता, पुरुष को आचार्य, वा राजा रूप से प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २, ३ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ५ त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'गिरः मतयः' अग्निम् अच्छ
पदार्थ
[१] (देवयन्तीः) = दिव्यगुणों की कामना करती हुई (गिरः) = ज्ञान की वाणियाँ तथा (मतयः) = मननपूर्वक की गई स्तुतियाँ (अग्निं अच्छा) = उस अंग्रेणी प्रभु की ओर (यन्ति) = प्राप्त होती हैं। उस प्रभु से ही (द्रविणं भिक्षमाणाः) = धन का भिक्षण करती हैं। [२] उस प्रभु की ओर हमारी स्तुति - वाणियाँ जाती हैं जो (सुसन्दृशम्) = कल्याण संदर्शनवाले हैं। (सुप्रतीकम्) = उत्तम तेजस्वी रूपवाले हैं। (स्वञ्चम्) = उत्तम गतिवाले (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। (मानुषाणाम्) = मनुष्यों के (अरतिम्) = स्वामी हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करें, प्रभु का स्तवन करें। प्रभु ही सब धनों को प्राप्त कराते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा कन्या दीर्घ ब्रह्मचर्याने विदुषी बनून अग्नी इत्यादी विद्या प्राप्त करून उत्तमोत्तम पतींची इच्छा बाळगतात व आपापल्या अभीष्ट पतीला प्राप्त करतात तसेच पुरुषांनीही आपल्या अनुकूल स्त्रिया प्राप्त कराव्यात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
All holy voices of prayer, all acts of thought and will of the people dedicated to the bounties of divinity, seeking their share of the world’s wealth and honour move and converge on Agni, blissful of sight, noble in manifestation, easy of access and attainment and the fastest carrier of oblations and relentless harbinger of the cherished fruits of the yajnic actions of mankind.
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