ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठवो॒चेम॑ । इत् । इन्द्र॑म् । म॒घऽवा॑नम् । ए॒न॒म् । म॒हः । र॒यः । राध॑सः । यत् । दद॑त् । नः॒ । यः । अर्च॑तः । ब्रह्म॑ऽकृतिम् । अवि॑ष्ठः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वोचेमेदिन्द्रं मघवानमेनं महो रायो राधसो यद्ददन्नः। यो अर्चतो ब्रह्मकृतिमविष्ठो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठवोचेम। इत्। इन्द्रम्। मघऽवानम्। एनम्। महः। रायः। राधसः। यत्। ददत्। नः। यः। अर्चतः। ब्रह्मऽकृतिम्। अविष्ठः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः केऽत्र सर्वेषां रक्षकाः सन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात हे परीक्षक ! योऽविष्ठो ब्रह्मकृतिं नो ददद्यद्यमर्चतो महो राधसो रायः प्रदातारमेनं मघवानमिन्द्रम् [इत्] वयं वोचेम तं यूयमपि प्रशंसत ॥५॥
पदार्थः
(वोचेम) वदेम (इत्) इव (इन्द्रम्) अविद्यान्धकारविदारकमध्यापकम् (मघवानम्) प्रशस्तविद्याधनवन्तम् (एनम्) (महः) महतः (रायः) विद्याधनस्य (राधसः) शरीरात्मबलवर्धकस्य (यत्) यम् (ददत्) दद्यात् (नः) अस्मभ्यम् (यः) (अर्चतः) सत्कृतस्य (ब्रह्मकृतिम्) वेदोक्तां सत्यक्रियाम् (अविष्ठः) अतिशयेन रक्षकः (यूयम्) विद्यावृद्धाः (पात) (स्वस्तिभिः) सुशिक्षाभिः (सदा) (नः) (अस्मान्) ॥५॥
भावार्थः
येऽक्षयस्य सर्वत्र सत्कारहेतोर्विद्याधनस्य दातारः सन्ति त एव सर्वेषां यथावत्पालका वर्त्तन्त इति ॥५॥ अत्रेन्द्रसोमपानाध्यापकाऽध्येतृपरीक्षकविद्यादातृगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर कौन यहाँ संसार में सब की रक्षा करनेवाले होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (यूयम्) विद्यावृद्ध तुम (स्वस्तिभिः) उत्तम शिक्षाओं से (नः) हम लोगों की (सदा) सदा (पात) रक्षा करो। हे परीक्षा करनेवाले ! (यः) जो (अविष्ठः) अतीव रक्षा करनेवाला (ब्रह्मकृतिम्) वेदोक्त सत्य क्रिया को (नः) हम लोगों के लिये (ददत्) देवे वा (यत्) जिसको (अर्चतः) सत्कार किये हुए जन का (महः) महान् (राधसः) शरीर और आत्मा के बल का बढ़ानेवाला (रायः) विद्यारूपी धन का उत्तम प्रकार से देनेवाले (एनम्) इस (मघवानम्) प्रशस्त विद्या धनयुक्त (इन्द्रम्, इत्) अविद्यान्धकार विदीर्ण करनेवाले अध्यापक की हम लोग (वोचेम) प्रशंसा कहें, उसकी तुम भी प्रशंसा करो ॥५॥
भावार्थ
जो जन नाश न होने वाले सर्वत्र सत्कार के हेतु विद्याधन के देनेवाले हैं, वे ही सबके यथावत् पालनेवाले हैं ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सोमपान, अध्यापक, अध्येता, परीक्षक और विद्या देनेवालों के गुण और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनतीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वही गुरु 'इन्द्र' पद योग्य है ।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० २८ । मं० ५ ॥ इति त्रयोदशो वर्गः ॥ 5
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषि: ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १ स्वरापंक्तिः । ३ पंक्तिः । २ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ।। पञ्चर्चं सूकम् ॥
विषय
विद्वान् भी ऐश्वर्यशाली हो
पदार्थ
पदार्थ - (यत्) = जो (महः राय:) = बड़े-बड़े ऐश्वर्य (नः ददत्) = हमें देता है। (एनं मघवानम्) = उस ऐश्वर्य के स्वामी को हम (इन्द्रम् इत् वोचेम) = 'इन्द्र' ही पुकारें और (यः) = जो (अर्चत:) = अपने सत्कारकों को (ब्रह्म-कृतिम्) = धनैश्वर्य के उत्पन्न करने के साधन देता है, वही (अविष्ठः) = उत्तम रक्षक है। हे विद्वान् पुरुषो ! (यूयं) = आप लोग (नः सदा स्वतिभिः पात) = हमारा सदा उत्तम साधनों से पालन करो।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वानों को योग्य है कि वे राष्ट्र में विभिन्न प्रकार के शोध कार्यों द्वारा ज्ञानको बढ़ावें तथा ऐश्वर्यशाली होवें। इससे राष्ट्र भी ऐश्वर्यसम्पन्न होकर उन्नति को प्राप्त करेगाकी प्रजा भी ऐसे विद्वानों से प्रेरणा पाकर उन्नति की ओर अग्रसर होगी। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ और देवता इन्द्र ही है।
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक सर्वत्र सत्कार करण्याचा हेतू असलेले अक्षय विद्या धन देतात तेच सर्वांचे पालन करतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Such is Indra, glorious lord of knowledge and power whom we celebrate in song. He gives us the grandeur and abundance of wealth, honour and excellence and the competence for higher and higher success. And he loves and accepts the homage and adorations of the celebrant supplicant of divinity. O lord, O visionaries, poets and teachers, protect and promote us with all modes of honour and well being for all time.
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