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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 12
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इन्द्रं॒ वाणी॒रनु॑त्तमन्युमे॒व स॒त्रा राजा॑नं दधिरे॒ सह॑ध्यै। हर्य॑श्वाय बर्हया॒ समा॒पीन् ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । वाणीः॑ । अनु॑त्तऽमन्युम् । ए॒व । स॒त्रा । राजा॑नम् । द॒धि॒रे॒ । सह॑ध्यै । हरि॑ऽअश्वाय । ब॒र्ह॒य॒ । सम् । आ॒पीन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं वाणीरनुत्तमन्युमेव सत्रा राजानं दधिरे सहध्यै। हर्यश्वाय बर्हया समापीन् ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। वाणीः। अनुत्तऽमन्युम्। एव। सत्रा। राजानम्। दधिरे। सहध्यै। हरिऽअश्वाय। बर्हय। सम्। आपीन् ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 12
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कीदृशं नरं सत्या वाक्सेवत इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! या वाणीः सत्राऽनुत्तमन्युं राजानमिन्द्रं सहध्यै दधिरे आपीन् सन् दधिरे तस्मा एव हर्यश्वाय सर्वा विद्या बर्हय ॥१२॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) अविद्याविदारकमाप्तविद्वांसम् (वाणीः) सकलविद्यायुक्ता वाचः (अनुत्तमन्युम्) न उत्तो न प्रेरितो मन्युः क्रोधो यस्य तम् (एव) (सत्रा) सत्येन (राजानम्) (दधिरे) दधति (सहध्यै) सोढुम् (हर्यश्वाय) प्रशंसितमनुष्याश्वादियुक्ताय (बर्हय) वर्धय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सम्) (आपीन्) य आप्नुवन्ति तान् ॥१२॥

    भावार्थः

    यमजातक्रोधं जितेन्द्रियं राजानं सकलशास्त्रयुक्ता वागाप्नोति स एव सत्येन न्यायेन प्रजाः पालयितुमर्हतीति ॥१२॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकत्रिंशत्तमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कैसे मनुष्य को सत्य वाणी सेवती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जो (वाणीः) सकल विद्यायुक्त वाणी (सत्रा) सत्य से (अनुत्तमन्युम्) जिसका प्रेरणा नहीं किया गया क्रोध उस (राजानम्) प्रकाशमान (इन्द्रम्) अविद्या विदीर्ण करनेवाले विद्वान् को (सहध्यै) सहने को (दधिरे) धारण करते तथा (आपीन्) जो व्याप्त होते हैं उनको (सम्) अच्छे प्रकार धारण करते हैं (एव) उसी (हर्यश्वाय) प्रशंसित मनुष्य और घोड़ोंवाले के लिये सब विद्याओं को (बर्हय) बढ़ाओ ॥१२॥

    भावार्थ

    जिस न उत्पन्न हुए क्रोधवाले, जितेन्द्रिय राजा को सकल शास्त्रयुक्त वाणी व्याप्त होती है, वही सत्य न्याय से प्रजा पालने योग्य होता है ॥१२॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और राजा के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह इकतीसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    सेनाओं और वाणियों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वाणीः ) वाणवत् शत्रुनाशक सेनाएं ( अनुत्त-मन्युम् ) मन्यु, शत्रु को उच्छिन्न करने के प्रबल संकल्प से युक्त ( इन्द्रं ) ऐश्वर्यवान् ( राजानं ) तेजस्वी राजा को (सत्रा) अपने साथ ( सहध्यै ) शत्रु को पराजय करने के लिये ( दधिरे ) धारण करें । हे प्रजाजन ! ( हर्यश्वाय ) मनुष्यों में, अश्व के समान बलवान्, वेगवान्, श्रेष्ठ पुरुष की वृद्धि के लिये ( आपीन् ) अपने आप्त बन्धु जनों को भी ( सं बर्हय) अच्छी प्रकार उनको उत्साहित कर । ( २ ) (वाणी:) उत्तम स्तुतियां, वा याचना प्रार्थना करने वाली प्रजाएं भी, ( अनुत्त-मन्युम् ) क्रोध रहित, प्रसन्न राजा वा प्रभु को, अन्तः और बाह्य शत्रु के विजय के लिये धारण करें । उसके ही प्राप्त जनों को बढ़ावें । इति षोडशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    क्रोध रहित राजा को धारण करे

    पदार्थ

    पदार्थ-(वाणी:) = वाणीवत् शत्रुनाशक सेनाएँ (अनुत्त-मन्युम्) = शत्रु- उच्छेदन संकल्प से युक्त (इन्द्रं) = ऐश्वर्यवान् (राजानं) = राजा को (सत्रा) = अपने साथ (सहध्यै) = शत्रु पराजय के लिये (दधिरे) = धारण करे। हे प्रजाजन ! (हर्यश्ववाय) = मनुष्यों में अश्ववत् बलवान्, पुरुष की वृद्धि हेतु (आपीन्) = आप्त बन्धु जनों को भी (सं बर्हय) = अच्छी प्रकार बढ़ा।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुप्रजा का पालक राजा अपनी रक्षा एवं न्याय आदि कार्यों से इतना लोकप्रिय होवे कि प्रजा अपने प्रियजनों को भी राजा का अनुयायी बनावे । क्रोध रहित राजा ही इतना लोकप्रिय हो सकता है। अगले सूक्त का भी ऋषि वसिष्ठ व देवता इन्द्र है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो अक्रोधी व जितेन्द्रिय राजा संपूर्ण शास्त्रांनी युक्त वाणी बोलतो तोच खऱ्या न्यायाने प्रजेचे पालन करतो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All voices of the people, all sessions of yajnic programmes of action, uphold and support only the brilliant ruler, Indra of constant vision and passion, in order to maintain the social order of governance without obstruction. O friends and citizens of the land, exhort your people in support of Indra, leader of the dynamic nation of humanity.

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