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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 47/ मन्त्र 3
श॒तप॑वित्राः स्व॒धया॒ मद॑न्तीर्दे॒वीर्दे॒वाना॒मपि॑ यन्ति॒ पाथः॑। ता इन्द्र॑स्य॒ न मि॑नन्ति व्र॒तानि॒ सिन्धु॑भ्यो ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत ॥३॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽप॑वित्राः । स्व॒धया॑ । मद॑न्तीः । दे॒वीः । दे॒वाना॑म् । अपि॑ । य॒न्ति॒ । पाथः॑ । ताः । इन्द्र॑स्य । न । मि॒न॒न्ति॒ । व्र॒तानि॑ । सिन्धु॑ऽभ्यः । ह॒व्यम् । घृ॒तऽव॑त् । जु॒हो॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः। ता इन्द्रस्य न मिनन्ति व्रतानि सिन्धुभ्यो हव्यं घृतवज्जुहोत ॥३॥
स्वर रहित पद पाठशतऽपवित्राः। स्वधया। मदन्तीः। देवीः। देवानाम्। अपि। यन्ति। पाथः। ताः। इन्द्रस्य। न। मिनन्ति। व्रतानि। सिन्धुऽभ्यः। हव्यम्। घृतऽवत्। जुहोत ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 47; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषाः कीदृशा भूत्वा विवाहं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो नरा ! याः शतपवित्रा मदन्तीर्देवीर्विदुष्यो देवानां स्वधया पाथोऽपि यन्ति ता इन्द्रस्य व्रतानि न मिनन्ति यथा सिन्धुभ्यो घृतवद्धव्यं निर्माय ता जुह्वति तथैता यूयं जुहोत आदद्यात ॥३॥
पदार्थः
(शतपवित्राः) शतैरुपायैर्ये शुद्धाः (स्वधया) अन्नाद्येन (मदन्तीः) आनन्दतीः (देवीः) विदुष्यो ब्रह्मचारिण्यः (देवानाम्) विदुषाम् (अपि) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पाथः) अन्नाद्यैश्वर्यम् (ताः) (इन्द्रस्य) समग्रैश्वर्यस्य परमात्मनः (न) निषेधे (मिनन्ति) हिंसन्ति (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि (सिन्धुभ्यः) नदीभ्य इव (हव्यम्) होतुं दातुमर्हम् (घृतवत्) बहुघृतयुक्तम् (जुहोत) आदद्यात ॥३॥
भावार्थः
या युवतयः कन्याः सिन्धवः समुद्रानिव हृद्यान् पतीन् प्राप्य न व्यभिचरन्ति तथैव यूयं सर्वे मनुष्याः परस्परेषां संयोगेन सर्वदाऽऽनन्दत ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री-पुरुष कैसे होकर विवाह करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् मनुष्यो ! जो (शतपवित्राः) सौ उपायों से शुद्ध (मदन्तीः) आनन्द करती हुईं (देवीः) विदुषी पण्डित ब्रह्मचारिणी कन्या (देवानाम्) विद्वानों के (स्वधया) अन्नादि पदार्थ से (पाथः) अन्नादि ऐश्वर्य को (अपि, यन्ति) प्राप्त होती हैं (ताः) वे (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा के (व्रतानि) व्रतों को (न) नहीं (मिनन्ति) नष्ट करती हैं जैसे (सिन्धुभ्यः) नदियों के समान (घृतवत्) बहुत घी से युक्त (हव्यम्) देने योग्य वस्तु बनाकर वे होमती हैं, वैसे इनको तुम (जुहोत) ग्रहण करो ॥३॥
भावार्थ
जो युवति कन्या, नदियाँ समुद्रों को जैसे, वैसे हृदय के प्यारे पतियों को पाकर छोड़ती नहीं हैं, वैसे ही तुम सब मनुष्य एक-दूसरे के संयोग से सर्वदा आनन्द करो ॥३॥
विषय
इन्द्रपान की व्याख्या।
भावार्थ
( शत-पवित्राः ) सैकड़ों रश्मियों से पवित्र ( देवी: ) दिव्य गुणयुक्त जलांश (स्वधया) अन्नांश से ( मदन्तीः ) प्रजाओं को तृप्त करते हुए ( देवानां ) सूर्य-रश्मियों के ( पाथः अपियन्ति ) मार्ग को प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार ( शत-पवित्राः ) सैकड़ों उत्तम संस्कारों से पवित्राचरण वाली ( देवी: ) विदुषी, उत्तम स्त्रियां ( स्वधया ) अन्नादि से (मदन्तीः) आनन्द लाभ करती हुईं ( देवानां ) उत्तम विद्वान् पुरुषों के ( पाथः ) पालन योग्य ऐश्वर्य को ( अपियन्ति ) प्राप्त करती हैं । (ताः ) वे ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्य युक्त अपने पति के (व्रतानि) कर्मों को ( न मिनन्ति ) नाश नहीं करतीं। ( सिन्धुभ्यः) पुरुषों को सम्बन्धों से बांधने वाली उन स्त्रियों के भी (घृतवत् ) घृत से युक्त ( हव्यं ) जलों का खाद्य अन्नों का उत्पादक अंश 'इन्द्रपान' अर्थात् जीवों के उपभोग योग्य इस अंश को रश्मियें उत्पन्न करती हैं। (२) विद्वान् लोग प्रजाओं और भूमि के श्रेष्ठ अंश को 'इन्द्रपान' अर्थात् राजोपभोग्य करते हैं । इसी प्रकार शिष्यवत् विद्या की कामनायुक्त पुरुष आप्त जनों की ( इड: ऊर्मिम् ) वाणी के उत्तम अंश को (इन्द्र-पानम् अकृण्वत ) उत्तम जीवों में से रसवत् पान करने योग्य वा इन्द्र आचार्य द्वारा पान करने योग्य ज्ञान का अभ्यास करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ आपो देवताः॥ छन्दः—१,३ त्रिष्टुप्। विराट् त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् पंक्तिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
विषय
देवमार्ग
पदार्थ
पदार्थ - (शत-पवित्रा:) = सैकड़ों रश्मियों से पवित्र (देवी:) = दिव्य गुण-युक्त जलांश (स्वधया) = अक्षांश से (मदन्तीः) = प्रजाओं को तृप्त करते हुए (देवानां) = सूर्य-रश्मियों के (पाथः अपियन्ति) = मार्ग को प्राप्त करते हैं। ऐसे ही (शत-पवित्रा:) = सैकड़ों उत्तम संस्कारों से पवित्राचरणवाली (देवी:) = उत्तम स्त्रियाँ (स्वधया) = अन्नादि से (मदन्तीः) = आनन्द लाभ करती हुईं (देवानां) = विद्वान् पुरुषों के (पाथः) = पालन योग्य ऐश्वर्य को (अपियन्ति) = प्राप्त करती हैं। (ताः) = वे (इन्द्रस्य) = ऐश्वर्य युक्त पति के (व्रतानि) = कर्मों को (न मिनन्ति) = नाश नहीं करतीं। (सिन्धुभ्यः) = पुरुषों को सम्बन्धों से बाँधनेवाली उन स्त्रियों के भी (घृतवत्) = घृत-युक्त (हव्यं) = जलों या खाद्य अन्नों का उत्पादक अंश 'इन्द्रपान' अर्थात् जीवों के उपभोग-योग्य इस अंश को रश्मियें उत्पन्न करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम जन सूर्य की किरणों द्वारा शोधित जल व अन्न पान द्वारा तृप्त होकर देवमार्ग के गामी होते हैं। विदुषी स्त्रियाँ भी ऐसे अन्न-जल का पान करके उत्तम संस्कारोंवाली होकर अपने व्रतों सुकर्मों द्वारा यज्ञशील बनती है। वे भी देवमार्ग की गामिनी होती हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
नद्या जशा समुद्राला मिळतात तशा ज्या युवती हृद्य पतींना प्राप्त करून त्यांचा त्याग करीत नाहीत तसे तुम्ही सर्व माणसे परस्परांच्या संयोगाने सदैव आनंदित राहा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The holy and ecstatic waters, hundred ways pure and flowing with their innate inspiring vitality, move on and converge to the divinities, centre yajna of the cosmos. They do not violate the divine laws of Indra, lord of existence. O men and women, offer oblations with ghrta for augmenting the rivers and the seas.
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