ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 61/ मन्त्र 4
शंसा॑ मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ धाम॒ शुष्मो॒ रोद॑सी बद्बधे महि॒त्वा । अय॒न्मासा॒ अय॑ज्वनाम॒वीरा॒: प्र य॒ज्ञम॑न्मा वृ॒जनं॑ तिराते ॥
स्वर सहित पद पाठशंसा॑ । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । धाम॑ । शुष्मः॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । ब॒द्ब॒धे॒ । म॒हि॒ऽत्वा । अय॑न् । मासाः॑ । अय॑ज्वनाम् । अ॒वीराः॑ । प्र । य॒ज्ञऽम॑न्मा । वृ॒जन॑म् । ति॒रा॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शंसा मित्रस्य वरुणस्य धाम शुष्मो रोदसी बद्बधे महित्वा । अयन्मासा अयज्वनामवीरा: प्र यज्ञमन्मा वृजनं तिराते ॥
स्वर रहित पद पाठशंसा । मित्रस्य । वरुणस्य । धाम । शुष्मः । रोदसी इति । बद्बधे । महिऽत्वा । अयन् । मासाः । अयज्वनाम् । अवीराः । प्र । यज्ञऽमन्मा । वृजनम् । तिराते ॥ ७.६१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 61; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे मनुष्याः ! भवन्तः (मित्रस्य) अध्यापकस्य (वरुणस्य) उपदेशकस्य च (धाम) पदं (शंस) प्रशंसन्तु तयोरध्यापकोपदेशकयोः (शुष्मः) बलं (रोदसी) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (महित्वा) महत्त्वाय (बद्बधे) संसारमर्यादां बध्नातु (अयज्वनाम्) अयज्ञानाम् अकर्मणां सन्तानाः (अवीराः) वीरत्वधर्मरहिताः भवेयुः, अन्यच्च तेषां (मासाः) समयाः (अयन्) वीरसन्तानरहिता भवेयुः (प्र यज्ञमन्मा) यज्वानः (वृजनम्) बलं (तिराते) वर्द्धयन्तु ॥४॥
भावार्थः
परमात्मोपदिशति−भो जनाः ! अस्मिन् जगति अध्यापकानामुपदेशकानाञ्च सर्वोपरि पदं वर्त्तते, अतो भवद्भिः तत्पदस्य सर्वथैव रक्षणं कार्य्यम्, अन्यच्च अयज्ञानामकर्मणां निष्फल एव सन्तानो याति, यतश्च ईश्वराज्ञानुयायिन ईश्वरनियमं पालयन्ति, अतएव ते सुखिनः, ये ईश्वरीयनियमान् न पालयन्ति तेषां मासा दिनान्यापि दुःखेन यान्ति, इत्यभिप्रायेणोक्तं तेषां मासा अवीरा एव अयन् अगच्छन्नित्यर्थः ॥४॥ अस्येदमेव तात्पर्यं यत्सर्वेषां पापानां मूलकारणमेकमज्ञानमेव, अतः पूर्वं भवद्भिः अध्यापकोपदेशकयोरेव वृद्धिः कर्तव्या, कुतः यतश्च यस्मिन्देशे अध्यापकानां उपदेशकानां च बलं न वर्द्धते तस्मिन्देशे अज्ञानस्य मूलोच्छेदोऽपि न भवति प्रत्युत अज्ञानप्राबल्येन सर्वत्रानैश्वर्य्यस्य दारिद्र्यस्य च प्रचारो भवति, अस्य निवृत्त्यर्थं परमात्मना अध्यापकोपदेशका-श्चाव्याहतगतय उत्पादिताः ॥ इत्यभिप्रायेणैव "काम एष क्रोध एष" गी० ३।३७ अत्र भगवता कृष्णेन अज्ञानमूलोच्छेदनमेवोपदिष्टम्, कुतः यतश्च अज्ञानमूलोच्छेदनं विना कदाचिदपि जगति कल्याणं नोत्पद्यते, सम्भाव्यते चेदं यद्भगवता कृष्णेन अयं भावः अस्मादेव मन्त्राद् गृहीतः ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (मित्रस्य, वरुणस्य, धाम) अध्यापक तथा उपदेशकों के पदों को (शंस) प्रशंसित करो (शुष्मः) जिनका बल (रोदसी) द्युलोक तथा पृथिवीलोक में (महित्वा) महत्त्व के लिए (बद्बधे) संसार की मर्य्यादा बांधे (अयज्वनाम्) अयज्ञशील−अकर्मी (अवीराः) वीरसन्तानों से रहित होकर (मासाः) दिन (अयन्) व्यतीत करे और (प्र यज्ञमन्मा) विशेषता से यज्ञशील सत्कर्मी पुरुष (वृजनम्) सब विपत्तियों से मुक्त होकर (तिराते) जगत् का उद्धार करें ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यो ! संसार में सबसे उच्च पद अध्यापक तथा उपदेशकों का है, तुम लोग इनके पद की रक्षा के लिए यत्नवान् होओ, ताकि इनका बल बढ़कर संसार के सब अज्ञानादि पापों का नाशक हो और संसार मर्यादा में स्थिर रहे ॥ तात्पर्य्य यह है कि संसार में सब पापों तथा अवनतियों का मूल कारण एकमात्र अज्ञान ही है, इसलिए तुमको सबसे पहले अज्ञान की जड़ काटने के लिए अध्यापक तथा उपदेशक बढ़ाने चाहियें, क्योंकि जिस देश में उपदेशक और अध्यापकों की बलवृद्धि नहीं होती, उस देश में अज्ञान की जड़ भी नहीं कट सकती प्रत्युत अज्ञान की सन्तति बढ़कर अनैश्वर्य और दारिद्र्य सर्वत्र फैल जाता है, इसी दारिद्र्य की निवृत्ति के लिए परमात्मा ने पृथ्वी तथा अन्तरिक्षलोक में अव्याहतगति अर्थात् बिना रोक-टोक से गतिशील होने के लिए अध्यापक तथा उपदेशकों के कर्त्तव्यों का वर्णन किया है ॥ इसी भाव से कृष्णजी ने “काम एष क्रोध एषः” गी. ३।३७ में अज्ञान की जड़ काटने का उपदेश करते हुए बलपूर्वक कहा है कि जब तक ज्ञानरूप शस्त्र से अज्ञान का छेदन नहीं किया जाता, तब तक संसार का कल्याण कदापि नहीं हो सकता, ज्ञात होता है कि यह भाव कृष्णजी ने इसी स्थल के वेदमन्त्रों से लिया है ॥४॥
विषय
मित्र, वरुण का महान् सामर्थ्य ।
भावार्थ
हे (मित्रस्य) प्राणवत् वा जल व सर्वप्रिय, सर्वस्नेही, शान्तिदायक और ( वरुणस्य ) दुःखों और अज्ञानों के वारण करने वाले जन के ( धाम) तेज और स्थान की (शंस) प्रशंसा कर । जिसके (महित्वा) बड़े सामर्थ्य से (शुष्मः) शत्रुशोषक, बलवान् पुरुष या जिसका महान् सामर्थ्य (रोदसी बद्वधे) सूर्य के समान आकाश पृथिवीवत् (रोदसी) दुष्टों को रुलाने वाली सेना और राष्ट्र-सभा दोनों को सुप्रबद्ध कर व्यवस्थित करता है । अयज्वनाम् ) यज्ञ, सत्संगादि से रहित लोगों के (मासः ) महीनों पर महीने ( अवीराः ) वीर पुत्रादि रहित वा विना विशेष विद्याध्ययन ज्ञान प्राप्ति के ही ( अयन् ) व्यतीत होते हैं और ( यज्ञमन्मा ) पूज्य प्रभु का मनन, आचार्य, गुरु और राजादि के मान्य करने वा सत्संगादि ज्ञान प्राप्त करने वाला जन ( वृजनं ) अपने ज्ञान और बल को ( प्र तिराते ) खूब बढ़ाने में समर्थ होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ मित्रा वरुणौ देवते ॥ छन्दः—१ भुरिक् पंक्तिः । २, ४ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मित्रावरुण का सामर्थ्य
पदार्थ
पदार्थ- हे मनुष्यो! (मित्रस्य) = शान्तिदायक और (वरुणस्य) = दुःखों के वारणकर्ता जन के (धाम) = तेज और स्थान की (शंस) = प्रशंसा करो। जिसके (महित्वा) = सामर्थ्य से (शुष्मः) = बलवान् पुरुष, या जिसका महान् सामर्थ्य (रोदसी बद्बधे) = आकाश-पृथिवीवत् दुष्टों को रुलानेवाली सेना और राष्ट्र-सभा दोनों को व्यवस्थित करता है। (अयज्वनाम्) = यज्ञ आदि से रहित लोगों के (मासाः) = महीनों पर महीने (अवीराः) = वीर पुत्रादि रहित, वा बिना ज्ञान प्राप्ति के (अयन्) = व्यतीत होते हैं और (यज्ञमन्मा) = पूज्य प्रभु को मनन, आचार्य और राजादि के मान्य सत्संगादि से ज्ञान प्राप्त करनेवाला जन (वृजनं) = अपने ज्ञान और बल को (प्र तिराते) = बढ़ाने में समर्थ होता है।
भावार्थ
भावार्थ- बलवान् पुरुष अपने तेज व सामर्थ्य से अपनी सेना तथा राष्ट्र सभा दोनों को व्यवस्थित रखे। जो लोग यज्ञ आदि के द्वारा ज्ञान प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं उन्हें आचार्यों की सत्संगति की प्रेरणा देकर ज्ञान-बल बढ़ाने में समर्थ बनावें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Study and meditate on the origin and abode of Mitra and Varuna, pranic energies of nature and human virtue of love and friendship, light and enlightenment, and justice and discrimination. By virtue of their great universal power and force they hold and sustain the earth and heaven together and yet apart. The time, months and years of those who do not perform yajna, corporate acts of social and environmental value, pass by without the joy of children. On the other hand, those who serve Divinity, nature and humanity with their heart and soul cross the paths of life and reach the ultimate freedom of Moksha.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे माणसांनो! जगात अध्यापक व उपदेशक यांचे पद श्रेष्ठ असते. तुम्ही त्यांच्या पदांचे रक्षण करण्याचा प्रयत्न करा. त्यामुळे त्यांचे बल वाढून जगातील सर्व अज्ञान इत्यादी पापांचा नाश व्हावा व जग मर्यादेत स्थिर राहावे.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की जगात सर्व पाप व अवनती यांचे मूळ कारण केवळ अज्ञानच आहे. त्यामुळे तुम्हाला सर्वांत प्रथम अज्ञानाचे मूळ नाहीसे करण्यासाठी अध्यापक व उपदेशकांची वाढ केली पाहिजे. ज्या देशात अध्यापक व उपदेशक यांची वृद्धी होत नाही. त्या देशातून अज्ञानाचे मूळ कधीही नष्ट होऊ शकत नाही, तर अज्ञान वाढून अनैश्वर्य व दारिद्र्य सर्वत्र पसरते. याच दारिद्र्याच्या निवृत्तीसाठी परमेश्वराने पृथ्वी व अंतरिक्षलोकात अव्याहतगती अर्थात गतिशील बनण्यासाठी अध्यापक व उपदेशकांच्या कर्तव्याचे वर्णन केलेले आहे. $ याच भावनेने श्रीकृष्णाने ‘काम एष क्रोध एष:’ गी. ३/३७ मध्ये अज्ञानाचे मूळ कापण्याचा उपदेश करोत आग्रहाने सांगितलेले आहे, की जोपर्यंत ज्ञानरूप शस्त्राने अज्ञानाचे छेदन केले जात नाही तोपर्यंत जगाचे कल्याण कधीही होऊ शकत नाही. यावरून हे सिद्ध होते, की श्रीकृष्णाने हा भाव याच मंत्राच्या आधारे स्पष्ट केलेला आहे ॥४॥
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