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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 63/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒भ्राज॑मान उ॒षसा॑मु॒पस्था॑द्रे॒भैरुदे॑त्यनुम॒द्यमा॑नः । ए॒ष मे॑ दे॒वः स॑वि॒ता च॑च्छन्द॒ यः स॑मा॒नं न प्र॑मि॒नाति॒ धाम॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभ्राज॑मानः । उ॒षसा॑म् । उ॒पऽस्था॑त् । रे॒भैः । उत् । ए॒ति॒ । अ॒नु॒ऽम॒द्यमा॑नः । ए॒षः । मे॒ । दे॒वः । स॒वि॒ता । च॒च्छ॒न्द॒ । यः । स॒मा॒नम् । न । प्र॒ऽमि॒नाति॑ । धाम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभ्राजमान उषसामुपस्थाद्रेभैरुदेत्यनुमद्यमानः । एष मे देवः सविता चच्छन्द यः समानं न प्रमिनाति धाम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभ्राजमानः । उषसाम् । उपऽस्थात् । रेभैः । उत् । एति । अनुऽमद्यमानः । एषः । मे । देवः । सविता । चच्छन्द । यः । समानम् । न । प्रऽमिनाति । धाम ॥ ७.६३.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 63; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विभ्राजमानः) सर्वप्रकाशकः परमात्मा (उषसां) प्रकाशितपदार्थानां मध्ये (उपस्थात्) स्थितत्वाद्धेतोः (रेभैः) स्तुतिकारकैरुद्गात्रादिभिः (अनुमद्यमानः) उपगीयमानः (उदेति) प्रकाशते (एषः) असौ (सविता) सर्वोत्पादकः (देवः) परमात्मा (मे) मम कामनां (चच्छन्द) पूरयति, अन्यच्च (यः) परमात्मा (नूनम्) निश्चयेन (धाम) अखिलस्थानं (समानम्) समानरूपेण (प्रमिनाति) जानातीत्यर्थः ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विभ्राजमानः) वह प्रकाशरूप परमात्मा (उषसां) सब प्रकाशित पदार्थों में (उपस्थात्) स्थिर होने से (रेभैः) उद्गात्रादि स्तोतृपुरुषों द्वारा (अनुमद्यमानः) गान किया हुआ (उदेति) प्रकाशित होता है (एषः) यह (सविता) सबका उत्पन्न करनेवाला (देवः) परमात्मा (मे) मेरी कामनाओं को (चच्छन्द) पूर्ण करता है और (यः) वह (नूनम्) निश्चय करके (धाम) सब स्थानों को (समानम्) समानरूप से (प्रमिनाति) जानता है अर्थात् न किसी से उसका राग और न किसी से द्वेष है ॥३॥

    भावार्थ

    भाव यह है कि वह परमात्मदेव प्रत्येक मनुष्य के हृदयरूपी धाम को समान भाव से जानता है, उसमें न्यूनाधिक भाव नहीं अर्थात् वह पक्षपात किसी के साथ नहीं करता। परमात्मभावों को अपने हृदयगत करना ही उसके प्रकाश होने का साधन है, वही सब ज्योतियों का ज्योति, सर्वोपरि विराजमान और वही सबका उपास्यदेव है, उसी की उपासना करनी चाहिये, अन्य की नहीं ॥३॥

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    विषय

    यन्त्रचक्र में लगे अश्व या एंजिनवत् वा राशिचक्र के बीच स्थित सूर्यवत् विद्वान् का सर्वसंञ्चालन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( देवः सविता ) प्रकाशमान् सूर्य, ( उषसाम् उपस्थात् ) उषाओं में से ( विभ्राजमानः ) विशेष रूप से चमकता हुआ, ( रेभैः ) शब्दकारी वायुओं, स्तुतिकर्त्ता जीवों से ( अनुमद्यमानः) वार २ स्तुति किया जाकर ( उदेति ) उदय को प्राप्त होता है वह (समानं धाम न प्रमिनाति) सबके प्रति प्राप्त होने वाले तेज को नष्ट नहीं करता, सबको समान रूप से प्रकाश देता है उसी प्रकार ( यः ) जो महापुरुष, (समानं धाम ) अपने एक समान, अनुरूप तेज, नाम स्थान, पद को ( न प्र-मिनाति ) नष्ट नहीं करता तो भी ( उषसाम् ) प्रभात वेलाओं के समान उत्तम अनुराग से युक्त प्रजाओं के बीच में ( रेभैः ) उत्तम विद्वानों द्वारा ( अनु-मद्यमानः ) प्रतिदिन स्तुति एवं उपदेश किया जाकर (उद् एति ) निरन्तर विद्या प्रकाश तथा बल दीप्ति से उदय को प्राप्त होता, उन्नति के पदपर गति करता है, ( एषः ) वह ( मे ) मेरा ( देवः ) ज्ञानदाता पुरुष वा ऐश्वर्यप्रद राजा ( सविता ) उत्पादक पितावत् ( चच्छन्द ) गृहवत् शरण दे । ( २ ) इसी प्रकार प्रकाशस्वरूप प्रभु सबसे स्तुत या उपदिष्ट होकर हमारे हृदय में उदित हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ १ – ५ सूर्यः । ५, ६ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सर्वप्रेरक ज्ञानी

    पदार्थ

    पदार्थ- जैसे (देवः सविता) = प्रकाशमान् सूर्य, (उषसाम् उपस्थात्) = उषाओं में से (विभ्राजमानः) = विशेष चमकता हुआ, (रेभैः) = स्तुतिकर्ता जीवों से (अनुमद्यमानः) = स्तुत होकर उदेति उदय होता है वह (समानं धाम न प्रमिनाति) = सबको प्राप्त तेज को नष्ट नहीं करता है, वैसे ही (यः) = जो महापुरुष, (समानं धाम) = अपने एक समान, अनुरूप तेज, नाम, स्थान पद को (न प्र-मिनाति) = नष्ट नहीं करता तो भी (उषसाम्) = प्रभात-वेलाओं के समान उत्तम अनुराग-युक्त प्रजाओं (रेभैः) = विद्वानों द्वारा (अनु-मद्यमानः) = स्तुति एवं उपदेश किया जाकर (उद् एति) = विद्या-प्रकाश तथा बल-दीप्ति से उदय को प्राप्त होता, उन्नत पद प्राप्त करता है, (एषः) = वह (मे) = मेरा (देवः) = ज्ञानदाता पुरुष वा ऐश्वर्यप्रद राजा (सविता) = उत्पादक पितावत् (चच्छन्द) = गृहवत् शरण दे।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्तम ज्ञानी पुरुषों को योग्य है कि वे अपने ज्ञानोपदेश द्वारा लोगों को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। लोगों को बतावें कि प्रातः उषाकाल में जागकर ईश्वर की स्तुति करें। विद्वानों का संग कर ज्ञान एवं बल की प्राप्ति करें तथा योग्य शिक्षा पाकर उन्नत पदों को भी प्राप्त करें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Self-refulgent and all illuminative since the origin of eternal dawns, the light of Divinity rises, inspiring and enlightening, when sung and celebrated by worshipful devotees. May this lord of cosmic light bless me with spiritual fulfilment, the lord who never frustrates his loved celebrant and never remisses on his own majesty nor compromises with his own generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा प्रत्येक माणसाचे हृदयरूपी धाम समान भावनेने जाणतो. त्यात कमी-अधिक भाव नाही. अर्थात, तो कुणाबरोबरही भेदभाव करीत नाही. परमेश्वर भाव आपल्या हृदयात असणेच त्याचा प्रकाश असल्याचे साधन आहे. तो सर्व ज्योतीचा ज्योती, सर्वत्र विराजमान असून, तोच सर्वांचा उपासक आहे. त्याचीच उपासना केली पाहिजे, इतरांची नव्हे ॥३॥

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