Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 76 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - उषाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तानीदहा॑नि बहु॒लान्या॑स॒न्या प्रा॒चीन॒मुदि॑ता॒ सूर्य॑स्य । यत॒: परि॑ जा॒र इ॑वा॒चर॒न्त्युषो॑ ददृ॒क्षे न पुन॑र्य॒तीव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तानि॑ । इत् । अहा॑नि । ब॒हु॒लानि॑ । आ॒स॒न् । या । प्रा॒चीन॑म् । उत्ऽइ॑ता॒ । सूर्य॑स्य । यतः॑ । परि॑ । जा॒रःऽइ॑व । आ॒ऽचर॒न्ती । उषः॑ । द॒दृ॒क्षे । न । पुनः॑ । य॒तीऽइ॑व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तानीदहानि बहुलान्यासन्या प्राचीनमुदिता सूर्यस्य । यत: परि जार इवाचरन्त्युषो ददृक्षे न पुनर्यतीव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तानि । इत् । अहानि । बहुलानि । आसन् । या । प्राचीनम् । उत्ऽइता । सूर्यस्य । यतः । परि । जारःऽइव । आऽचरन्ती । उषः । ददृक्षे । न । पुनः । यतीऽइव ॥ ७.७६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तानि इत् अहानि) तानि दिनानीव प्रकाशमयानि (बहुलानि) नैकधा तेजांसि (आसन्) दृष्टिपथे प्रादुर्भवन्ति (या) यानि (सूर्यस्य) स्वतःप्रकाशस्य परमात्मनः (प्राचीनम्) प्राचीनस्वरूपं (उदिता) प्राप्तानि (यतः) यस्मात् (परि जार इव) अग्निसदृशानि (उषः) तेजांसि (आचरन्ती) निर्गच्छन्ति (ददृक्षे) दृश्यन्ते (यतीव) व्यभिचारपदार्था इव (पुनर्न) न सन्ति पुनः ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तानि इत् अहानि) वह दिन के समान प्रकाशरूप (बहुलानि) अनेक प्रकार के तेज (आसन्) दृष्टिगत होते हैं, (या) जो (सूर्यस्य) स्वतःप्रकाश परमात्मा के (प्राचीनं) प्राचीन स्वरूप को (उदिता) प्राप्त है, (यतः) जिससे (परिजार इव) अग्नि के समान (उषः) तेज (आचरन्ती) निकलते हुए (ददृक्षे) देखे जाते हैं, (यतीव) व्यभिचारी पदार्थों के समान (पुनः न) फिर नहीं ॥३॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि से सहस्रों प्रकार की ज्वालायें उत्पन्न होती रहती हैं, इसी प्रकार स्वतःप्रकाश परमात्मा के स्वरूप से तेज की रश्मियें सदैव देदीप्यमान होती रहती हैं, या यों कहो कि स्वतः-प्रकाश परमात्मा की ज्योति सदैव प्रकाशित होती रहती है। जैसे पदार्थों के अनित्य गुण उन पदार्थों से पृथक् हो जाते वा नाश को प्राप्त हो जाते हैं, इस प्रकार परमात्मा के प्रकाशरूप गुण का उससे कदापि वियोग नहीं होता अर्थात् परमात्मा के गुण विकारी नहीं, यह इस मन्त्र का भाव है ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दिन-रात्रि विज्ञान के साथ साथ सूर्य उषा के दृष्टान्त से वर-वधू के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सूर्यस्य या प्राचीनम् उदिता ) जिस प्रकार सूर्य के पूर्व दिशा में उदय होने पर जो प्रकट होते हैं ( तानि इत् अहानि ) वे ही दिन कहाते हैं ( उषा जारः इव परि अचरन्ती ) उषा भी रात्रि को जारण करने वाले सूर्य के समान ही आचरण करती हुई ( न पुनः यती इव ददृक्षे ) फिर नहीं लौटती सी दीखती है उसी प्रकार हे ( उषः ) पति की कामना करने वाली वधू ! ( या ) जो तू ( सूर्यस्य प्राचीनम् इत् ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष के पूर्व भाग में आकर आगे आती है (तानि इत् बहुलानि अहानि) वे ही बहुत दिन उत्तम हैं । यतः क्योंकि उन दिनों में तू ( जार: इव ) तेरी आयु को अपने साथ पूर्ण व्यतीत करने वाले वा रात्रि व्यतीत करने वाले सूर्यवत् तेजस्वी पति के समान ही तू भी (आचरन्ती) उसकी सेवा शुश्रूषा और धर्माचरण करती हुई ( न पुनः यती इव ) उसे फिर भविष्य में कभी भी न त्यागती सी (परि ददृशे ) सदा उसके संग दिखाई दे । अथवा (या) जिन दिनों ( सूर्यस्य प्राचीनम् उदिता ) सूर्यवत् तेजस्वी पति के पूर्व, प्राङ्मुख खड़े रहते, तू भी ( जार इव आचरन्ती यतः परि ददृशे ) पति के समान ही विवाहादि कृत्य उसके समीप करती दिखाई देवे ( न पुनः यती इव ) उसे छोड़ती सी न दिखाई देवे (तानि इद् अहानि बहुलानि ) ऐसे ही सहयोगी जीवन के दिन बहुत (आसन्) होवें ।

    टिप्पणी

    ‘जारः इव’ इति पदपाठः । 'जारे-इव' इति सायणाभिमतः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः॥ छन्दः—१ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नव वधु का कर्त्तव्य

    पदार्थ

    पदार्थ- (सूर्यस्य या प्राचीनम् उदिता) = जैसे सूर्य के पूर्व में उदय होने पर जो प्रकट होते हैं (तानि इत् अहानि) = वे दिन कहाते हैं। (उषा जारः इव परि आचरन्ती) = उषा भी रात्रि को जारण करनेवाले सूर्य के समान ही आचरण करती हुई (न पुनः यती इव ददृक्षे) = फिर नहीं लौटती-सी दीखती है, वैसे हे (उषः) = पति की कामनावाली वधू! (या) = जो तू (सूर्यस्य प्राचीनम् इत्) = सूर्य-समान तेजस्वी पुरुष के पूर्व भाग में आकर आगे आती है (तानि इत् बहुलानि अहानि) = वे ही बहुत दिन उत्तम हैं। (यतः) = क्योंकि उन दिनों में तू (जारः इव) = तेरी आयु को अपने साथ पूर्णरूपेण व्यतीत करनेवाले सूर्यवत् तेजस्वी पति के समान ही तू भी (आचरन्ती) = धर्माचरण करती हुई (न पुनः यती इव) = उसे भविष्य में कभी न त्यागती-सी (परि ददृशे) = सदा संग दिखाई दे।

    भावार्थ

    भावार्थ- नव वधू को योग्य है कि वह पति के प्रत्येक कार्य में बढ़-चढ़कर सहयोग करे। पति का कभी तिरस्कार न करे तथा गृहस्थ धर्म का आचरण करती हुई सदैव पति के अनुकूल व्यवहार करे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Many and intense are those resplendent lights of the divine sun arisen long before antiquity from where the dawns are seen rising like fire but never seen returning, deserted or deserting or forsaken.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या प्रकारे अग्नीपासून सहस्र प्रकारच्या ज्वाला उत्पन्न होतात. त्या प्रकारे स्वयंप्रकाशी परमात्म्याच्या स्वरूपाद्वारे तेजाच्या रश्मी सदैव देदीप्यमान होत असतात. स्वयंप्रकाशी परमात्म्याची ज्योती सदैव प्रकाशित होते. पदार्थांचे अनित्य गुण त्या पदार्थांपासून पृथक होतात किंवा नाश पावतात; परंतु परमात्म्याचा प्रकाशरूप गुण त्याच्यापासून कधीही वियुक्त होत नाही. अर्थात, परमात्म्याचे गुण विकारी नसतात, हा मंत्राचा भाव आहे. ॥३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top